Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की सत्रहवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे भारत के उन पहले क्रांतिकारी के बारे में जो सैन्य प्रशिक्षण के लिए विदेश गए और भारत का पहला ध्वज जो कि 1907 में भीकाजी कामा द्वारा फहराया गया था, उसके निर्माताओं में से भी एक थे।
उन महान क्रांतिकारी का नाम है :- हेमचंद्र कानूनगो।
हेमचंद्र का जन्म 12 जून 1871 को तत्कालीन बंगाल प्रान्त के मिदनापुर जिले में हुआ था। देश के लिए कुछ कर गुजरने का संकल्प उनके मन में बहुत पहले से था, लेकिन वो जानते थे कि बिना तकनीकी सहायता के हम अंग्रेजों को नही हरा सकते है।
हेमचंद्र ने समझा कि तकनीकी ज्ञान का महत्व क्या है और वह इसे पाने के लिए यूरोप गए। यात्रा के लिए धन की व्यवस्था करने के लिए उन्होंने कलकत्ता में अपना घर भी बेच दिया। 1906 के अंत में Marseille (फ्रांस) पहुँचकर उन्होंने वहाँ कुछ महीने बिताए और स्विट्जरलैंड, फ्रांस और इंग्लैंड में उन लोगो से संपर्क में आने की कोशिश कर रहे थे जो या तो स्वयं क्रांतिकारी थे या क्रांतिकारियों को जानते थे। उन्होंने पेरिस में एक रूसी प्रवासी से बम बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त किया और अब वो पूरी तरह तैयार थे।
हेमचंद्र जनवरी 1908 में भारत लौटे। हेमचंद्र यूरोप से आधुनिक तकनीकी साहित्य के साथ लौटे, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण साम्रगी थी, बम बनाने पर एक सत्तर पृष्ठ का मैनुअल, जिसका अनुवाद रूसी से किया गया था।
उन्होंने कोलकाता के पास मणिकतल्ला में एक गुप्त बम फैक्ट्री “अनुशीलन समिति” खोली, जिसके संस्थापक सदस्य हेमचंद्र कानूनगो, अरबिंदो घोष (श्री अरबिंदो) और बरिंद्र कुमार घोष थे।
क्रूर ब्रिटिश जज किंग्सफोर्ड को मारने के लिए खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने जो बम फेंका था, वो हेमचंद्र के द्वारा ही बनाया गया था।
किंग्सफोर्ड को मारने की योजना विफल हो गयी थी, इस कारण खुदीराम बोस तो पकड़े गए थे और प्रफुल्ल चाकी ने आत्महत्या कर ली थी।
इस घटना के परिणामस्वरूप, हेमचंद्र द्वारा स्थापित गुप्त बम फैक्ट्री पर ब्रिटिश पुलिस ने छापा मारा और बंद कर दिया। इस योजना में शामिल लगभग सभी क्रांतिकारी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया।
हेमचंद्र कानूनगो का ज्ञान भारत के साथ साथ विदेशों में स्थित भारतीय राष्ट्रवादी संगठनों में भी फैला हुआ था। 1908 में, हेमचंद्र अलीपुर बम मामले (1908–09) में अरबिंदो घोष के साथ मुख्य सह-अभियुक्त थे। उन्हें अंडमान जेल में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी, लेकिन उन्हें 1921 में रिहा कर दिया गया।
1926 में उनकी एक पुस्तक Account of the Revolutionary Movement in Bengal प्रकाशित हुई थी। हेमचंद्र ने इस पुस्तक में बंगाल में पहली सशस्त्र राजनीतिक क्रांति के इतिहास का एक तटस्थ विश्लेषण प्रस्तुत किया था।
जीवन के अंतिम दिन हेमचंद्र जी ने राधानगर में बिताए। चूंकि उन्हें पेंटिंग और फोटोग्राफी का शौक था इसलिए अपना अधिकतर समय इन्ही कार्यों में व्यतीत करते थे।
08 अप्रैल 1951 को इस वीर क्रांतिकारी की गुमनामी में ही मृत्यु हो गई, क्योंकि हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इनके योगदान को जरूरी नही समझा।
भारत माँ के इस वीर सपूत को हमारा शत् शत् नमन।
जय हिंद
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