आजकल आते जाते फासिस्ट शब्द का प्रयोग सुनाई पड़ता है। कुछ लोगों ने तो मानों कसम ही खा ली है कि इस शब्द का प्रयोग अपने हर वाक्य में करेंगे और जब जाने-माने बुद्धिजीवी और फनकार इसका प्रयोग करने लगते हैं तो फिर ध्यान जाना स्वाभाविक है। रवीश जी बताते हैं कि डर का माहौल है। पुण्यप्रसुन बाजपेई, अजित अंजुम, बरखा रानी और जाने कितने महापुरुष यूट्यूब चैनल चलाने पर मजबूर कर दिए इन फ़ासिस्टों ने। कभी शरजील को पकड़ लेते है तो कभी शफूरा को। दिशा तक को नहीं छोड़ा। नन्हे बुरहान तक को भिड़ा दिया। अभी पिछले साल ही तो श्रीमान जावेद अख्तर और महेश भट्ट को किसी फॉरेन न्यूज़ चैनल को दिए गए इंटरव्यू में वर्तमान सरकार को फ़ासिज़्म का सर्टिफिकेट देते हुए देखा। तमाम पत्रकार और उनके द्वारा बताए बुद्धिजीवी, समाजसेवी हर दूसरे वाक्य में फासिस्ट शब्द का प्रयोग करते हैं।
फिर विचार आया कि आज सिर्फ एक पार्टी की सरकार बन जाने से उनकी आंखों पर एक ऐसा कौन सा चश्मा चढ़ गया जिससे हर बात में फ़ासिज़्म नजर आता है। ऐसा क्या कर दिया है इस सरकार ने जो पहले नहीं होता था? पर ये समझने के लिए पहले फ़ासिज़्म का मतलब क्या होता है, समझना जरूरी है। अब बड़े बड़े लोग कहते हैं तो कुछ बड़ा ही होगा। कहां पता करता मेरे जैसा कम बुद्धि आदमी?
तो वही विक्की भईया मतलब विकिपीडिया जी की शरण में गए। अब वो बता रहे हैं कि ये एक माननीय जी के ननिहाल से निकला था। और कुछ जलकुकड़े तो ये भी बोल रहे थे कि उनके नाना जी भी उसी निज़ाम का हिस्सा थे। पर वो फासिस्ट नहीं हो सकते ये मेरी आत्मा से आवाज़ आई। तो जलकुकड़ों को छोड़ वापस विकिपीडिया पर आए। लक्षण पढ़े तो लगा कि इतना बुरा तो नहीं है किसी को फासिस्ट कहा जाना। पर क्या है ना कि जैसे इतिहास जीतने वाले लिखते हैं, वैसे ही शब्द और उसकी परिभाषा भी विजेता ही गढ़ते हैं। बाद में उसे प्रयोग भले ही दुनिया भर और भारत के परजीवी मेरा मतलब बुद्धिजीवी ही करें। अब नाना जी को तो रूसियों ने धर लिया था दुनियावी पटका पटकी मेरा मतलब विश्व युद्ध में। तो उनके देश की व्यवस्था जिसे फ़ासिज़्म कहा जाता था, उसे अखंड गाली बना दिया।
क्या लक्षण होते हैं फसिज्म व्यवस्था के? विकी भईया कहते हैं कि सारे समाज को एक बनाने के लिए एक दलीय व्यवस्था की तरफ ले जाना फ़ासिज़्म का लक्षण है। खबरदार, जो आपातकाल और इंदिरा इज इंडिया टाइप गड़े मुर्दे उखाड़े आपके दिमाग ने। मना है।
दूसरा लक्षण एक मजबूत नेता का नेतृत्व जो देश को स्थिर रखने के लिए कड़े कदम उठा सके। अब आप फिर उठ कर इंदिरा जी की फोटो पोंछने लगे। हद है, कहा ना कि वो लोकतंत्र की देवी थीं।
आगे बढ़ो भाई। कहते हैं कि फासिस्ट अपने देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था का सहारा लेते थे। अब तो आपने हद ही कर दी। भला अब कौन योजना आयोग, पांच वर्षीय योजना और कक्षा पांच से रटाए जाने वाले मिश्रित अर्थव्यवस्था के फायदे याद करता है? अब आप बैंक से लेकर खदान तक सबके राष्ट्रीयकरण का रोना लेकर बैठ गए। बता दिया कि वो फासिस्ट नहीं थीं। मतलब नहीं थीं।
समाज में हिंसा को सहारा लेना भी एक लक्षण बताया भईया जी ने। मैं आपके शैतानी दिमाग को जानता हूं। आप बंटवारे की मार धाड़ सोच रहे हैं ना? नहीं? फिर! मेरठ, मलियाना, भागलपुर? हरमिंदर साहब पर टैंक चलवा देना? हजारों को गले में टायर डाल कर फूंक देना? ट्रेन के डिब्बे के डिब्बे जला देना? अपने ही देश के नागरिकों पर अपनी ही एयरफोर्स से बम गिरवाना? अब ये क्या बात हुई भला?
नरेंद्र मोदी ने किया? नहीं, फिर ये फासिज्म के लक्षण नहीं हो सकते। ये पक्का वो क्या कहते हैं, स्टेटक्राफ्ट रहा होगा। फासिस्ट अब की सरकार है। नरेंद्र मोदी हैं। हैं तो हैं।
हां मिला ना, कहते हैं फ़ासिज़्म का सबसे बड़ा लक्षण टोटलेरियन होना है। यानी चीजों को उसकी पूर्णता में करने का आग्रह। ये तो हुआ है। अब साबित होगा कि ये सरकार ये प्रधानमंत्री फासिस्ट हैं।
कुछ याद करवाता हूं।
“Special request kindly do not use the toilet when train is stationary at a railway platform.”
विशेष अनुरोध जब ट्रेन प्लेटफार्म पर खड़ी हो तो कृपया शौचालय का प्रयोग ना करें।”
ये याद है?
हम लोग इन्हीं स्पेशल रिक्वेस्ट्स को देखते हुए बड़े हुए और कभी सोचा भी नहीं कि इसमें कोई गलत है पर आज जब चारों और फ़ासिज़्म की बात सुनता हूं तो सोचता हूं कि पटरियों पर टट्टी ना इकट्ठा हो इसके लिए कोई और व्यवस्था ना करके सभी को मना कर देना कि यहां ना करें। क्या यह फासिज्म नहीं था? आज शत प्रतिशत bio-toilets इस सरकार ने ट्रेनों में लगाएं हैं तो पटरी देख कर उल्टी नहीं आती। आज आपको कोई नहीं कहता कि प्लेटफार्म पर रुकी हुई गाड़ी में शौचालय का प्रयोग ना करें। ये शत प्रतिशत की जिद। यही फ़ासिज़्म है।
सुबह हुई या शाम। गांव में महिलाएं हाथ में लोटा लेकर लाइन से जाने कहां चल देती थीं। पंचायत करती होंगी। या किट्टी पार्टी का कोई गंवई संस्करण होगा। क्या कहा? घर में टॉयलेट नहीं होने के कारण अंधेरे का इंतजार करती थीं ये महिलाएं? जोर जबर, छिनैती और सांप गोजर बिच्छू का डर प्रकृति के आगे घुटने टेक देता था। और ये फासिस्ट आए। जिद पकड़ ली कि हर घर टॉयलेट बनाएंगे। किसी को खुले वातावरण में घूमने नहीं देंगे।
मिडिल क्लास की अमीरी की पहली सीढ़ी होती थी घर में गैस कनेक्शन होना। टोटलेरियन सरकार इसके भी पीछे पड़ गई। घर घर उज्ज्वला के गैस कनेक्शन पहुंचा दिए। फासिस्ट हैं ये। बता रहा हूं।
हर घर में कहते है लाइट कनेक्शन भी दे डाला है सौभाग्य के नाम पर। ऐसा कौन करता है भला।
सबको सुनते हैं कि घर देने पर भी तुले हैं ये सब। और तो और अंधे राष्ट्रभक्ति के नाम पर योजना का नाम तक किसी महापुरुष (मतलब गांधी परिवार) के नाम पर ना रख कर प्रधानमंत्री आवास योजना रख दिया।
इंदिरा जी का नाम नहीं रख सकते थे क्या जो प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना कह दिया? और थोड़ा आराम से काम कर लेते। टोटलेरियन सरकार जिद कर रही है कि आखिरी गांव तक पक्की सड़क बनाएंगे। हैं ये फासिस्ट।
आजकल कहते हैं कि हर घर पेयजल पहुंचाएंगे। इनके इतिहास को देख कर लगता है कि ये भी जिद में पूरा कर डालेंगे। यही तो है फ़ासिज़्म।
दस करोड़ परिवार यानी लगभग चालीस पचास करोड़ लोगों को भला कौन लोकतांत्रिक, लिबरल सरकार पांच लाख तक का इलाज मुफ्त देती है। पर फासिस्ट तो ऐसा ही करते हैं।
और बताता हूं।
अभी कोविड की महामारी आई। ये सरकार जिद पकड़ कर बैठ गई कि किसी को भूखा नहीं मरने देंगे। अब ऐसा कहीं होता है क्या? अस्सी करोड़ लोगों को छह महीने तक मुफ्त में राशन दे डाला। इतनी भी क्या जिद भाई? एक सौ पैंतीस करोड़ के देश में पहले तो महामारी से लाखों को मरने नहीं दिया और फिर भूखा भी नहीं मरने दोगे। महामारी भी बेचारी कह रही होगी चाचा चिंगपिंग से कि “तो मैं क्या करूं? मर जाऊं?”
अब अगर ये फ़ासिज्म है तो है! हे भगवान!!
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