-बलबीर पुंज
हाल ही में उत्तरप्रदेश सरकार ने वित्तवर्ष 2021-22 का बजट प्रस्तुत किया। साढ़े पांच लाख करोड़ रुपये के प्रादेशिक बजट में मदरसों के आधुनिकीकरण योजना हेतु 479 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया है। आखिर इस घोषणा के पीछे योगी सरकार का आशय क्या हो सकता है? संभवत: सरकार का उद्देश्य होगा कि मदरसों में अंग्रेजी, गणित, विज्ञान और कंप्यूटर जैसे आधुनिक विषयों को सम्मलित करके, यहां के छात्रों को मुख्यधारा में शामिल किया जाएं। क्या इतना भर करने से ऐसा संभव है?
मदरसा शिक्षा प्रणाली मूलत: मजहब आधारित है। यहां पढ़ने वाले नौनिहाल लगभग शत-प्रतिशत, तो शिक्षक कुछ अपवादों को छोड़कर मुस्लिम ही होते है। संक्षेप में कहे, तो इसका पूरा “इको-सिस्टम” इस्लामी और संबंधित पहचान से ओतप्रोत होता है। यहां बच्चों को मिलने वाली शिक्षा का आधार स्वाभाविक रूप से मजहबी होगा और उनका देश के अन्य मतावलंबी छात्रों के साथ मेलजोल भी ना के बराबर होगा। यदि इस वर्ग के छात्रों का गैर-इस्लामी बच्चों से संपर्क नहीं होगा और सदैव केवल अपने समुदाय के लोगों के बीच में रहेंगे, तो उनका दृष्टिकोण, विचार, वेशभूषा, भाषा, आकांक्षाएं और अपनी सांस्कृतिक पहचान के बारे में उनकी समझ न केवल शेष समाज से भिन्न होंगी, अपितु उनके सपने भी अलग होंगे।
एक आदर्श समाज में सभी बच्चों को न केवल शिक्षा के समान अवसर मिले, बल्कि शिक्षा के माध्यम से ही उनका विकास भी समान जीवनमूल्यों से प्रेरित होना चाहिए- जिसका आधार बहुलतावाद, समरसता, समतापूर्ण, पंथनिरपेक्षी और लोकतांत्रिक हो। क्या मदरसों में ऐसी तालीम देना संभव है?
विगत वर्ष 16 अक्टूबर को पेरिस की सड़क पर एक शिक्षक का गला काटने वाला जिहादी “अल्लाह-हू-अकबर” चिल्ला रहा था, जिसका शाब्दिक अर्थ ‘अल्लाह ही सबसे बड़ा’ है। इस प्रकार का यह कोई पहला मामला नहीं था और ना ही अंतिम होगा। इस नारे को प्राणवायु देती विकृत मानसिकता और संबंधित विषबेल को सींचने में मदरसों के भीतर दी जाने वाली मजहबी शिक्षा का कितना हाथ होता है- यह विचारणीय है। विगत दिनों ही फ्रांसीसी संसद ने एक विधेयक पारित करके अपने देश में मदरसों को प्रतिबंधित किया है। भारत में असम सरकार ने भी उदाहरण प्रस्तुत करते हुए राज्य में 620 से अधिक मदरसों को मिल रहे सरकारी वित्तपोषण को बंद करने का निर्णय किया है।
वास्तव में, यह अवधारणा ही गलत है कि गणित, अंग्रेजी, विज्ञान और कंप्यूटर सिखाकर बच्चों को किसी भी प्रकार की मजहबी कट्टरवाद से दूर किया जा सकता है। सच तो यह है कि आधुनिक विषय केवल एक माध्यम है- इनका उपयोग कैसे किया जाता है, यह सब उपयोगकर्ता की मानसिकता पर निर्भर है।
यदि वाकई आधुनिक शिक्षा प्राप्त करने से इस्लामी कट्टरता या जिहादी मानसिकता का खात्मा संभव होता, तो गत वर्ष कश्मीर में गणित स्नातक हिज्बुल आतंकी रियाज नायकू सुरक्षाबलों के हाथों मुठभेड़ में क्यों मारा गया? क्या 2018 में मारा गया हिज्बुल आतंकवादी मोहम्मद रफी भट जम्म-कश्मीर विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर नहीं था? वर्ष 2001 में अमेरिका के न्यूयॉर्क में भीषण 9/11 आतंकवादी हमले में कंप्यूटर शिक्षित, अंग्रेजी बोलने वाले, आधुनिक विषयों में स्नातक या परास्नातक और कुशल पायलट क्यों शामिल हुए? अधिकतर हमलावर उसी संपन्न और समृद्ध इस्लामी राष्ट्र सऊदी अरब के नागरिक थे, जो मजहबी कारणों से विश्वभर के अधिकांश मदरसों-मस्जिदों का आज भी सबसे बड़ा वित्तपोषक बना हुआ है।
कटु सत्य तो यह है कि मदरसों के पाठ्यक्रम में विज्ञान, अंग्रेजी और गणित आदि विषय शामिल करने या उनमें कंप्यूटर आदि शिक्षा को प्रारंभ करने से मध्यकालीन जिहादी मानसिकता और अधिक आधुनिक यंत्र-तंत्र के साथ न केवल सशक्त बनाना है, अपितु इसके अधिक विकराल होने की भी संभावना बनी रहेगी।
क्या कारण है कि मुस्लिमों का विश्व के अधिकांश गैर-इस्लामी समाज में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के साथ रहना लगभग असंभव है? इसका उत्तर इस्लामी अनुयायियों के एक बड़े हिस्से का “काफिर-कुफ्र” अवधारणा से प्रेरित होना होता है। इस मानवता विरोधी चिंतन का उन्मूलन तभी संभव है, जब मुस्लिम समाज के भीतर से ही लोग इसके खिलाफ खड़े हो, जो यह कह सके कि मजहबी ग्रंथों में शामिल होने के बाद भी यह मान्यताएं अस्वीकार्य है, क्योंकि वह कालबाह्य हो चुकी है और इनका आधुनिक विश्व में कोई स्थान नहीं है। कल्पना कीजिए एक तरफ समाज सती-प्रथा, दहेज-प्रथा और अस्पृश्यता जैसे अभिशापों से लड़ रहा हो, वही अधिकांश राजकीय वित्तपोषित शिक्षण संस्थाएं बच्चों को प्राचीन ग्रंथों को उद्धृत करके यह बताने का प्रयास करें कि यह सब मान्यताएं शास्त्रानुकूल है- तब क्या इन सामाजिक बुराइयों के विरुद्ध सफलता प्राप्त कर सकते है?
एक व्यक्ति का समरस चिंतन और आचरण, आदर्श समाज की कल्पना का प्रथम सोपान है, जिसमें परिवार और बाल्यकाल में मिले संस्कार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यदि हम अपने समाज को समतावादी और समरसतापूर्ण बनाना चाहते है, जहां सभी लोग समान हो, उनका उनकी आस्था, परंपरा और मान्यताओं का सम्मान हो और उन्हे जीवन जीने का स्वतंत्रता प्राप्त हो- तो हमें उन शाश्वत जीवनमूल्यों को अंगीकार करना होगा, जिसकी डिफॉल्ट सेटिंग बहुलतावाद और पंथनिरपेक्षता है।
भारत विविधताओं का देश है और यहां नागरिकों की पहचान बहुआयामी हो सकती है। परंतु कुछ मामलों में देश के सभी नागरिकों की पहचान सांझी होनी चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि सभी बच्चे समरूप विद्यालयों से शिक्षा प्राप्त करें, जिससे उनमें “वसुधैव कुटुम्बकम्” और “एकम् सत् विप्रा: बहुधा वदंति” जैसे सांझे मूल्य अंकुरित हो सके। किसी भी मजहब या वैचारिक अधिष्ठान को यह अधिकार नहीं है कि वह लोकतांत्रिक, बहुलतावाद और सेकुलरवाद जैसे मूल्यों का अपनी मजहब या विचारधारा से प्रेरित होकर उनका क्षरण करें। इसलिए भारत में मदरसें राज्याश्रय से मुक्त होकर मुस्लिम समाज के निजी संसाधनों द्वारा संचालित हो और उनकी भूमिका केवल बच्चों को दीनी तालीम देने तक सीमित होनी चाहिए।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
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