स्वतंत्र भारत की हर बड़ी समस्या की जड़ में नेहरू के अपराध
नेहरू भारत के इतिहास का वो काला धब्बा जिसके दाग 70 साल बाद भी देश पर बोझ बन हुए हैं
देश की शिक्षा व्यव्स्था को कम्युनिस्ट गैंग के हाथों में बेचने का महापाप नेहरू ने ही किया। देश की सोच को हिन्दू विरोधी, देश के प्रति कुंठा व हीनता की भावना से भरने का कुकर्म भी नेहरू के राज में ही हुआ।
यूएन की परमानेंट सीट छोड़ने का पाप
नेहरू ने 1953 में अमेरिका की उस पेशकश को ठुकरा दिया, जिसमें भारत को सुरक्षा के स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने के लिए कहा गया था. लेकिन नेहरू जी ने बिना सोचे समझे इसकी जगह चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करने की सलाह दे दी. जिसके वजह से चीन और पाकिस्तान दोनों मिलकर भारत के कई प्रस्ताव यूएन में ठुकरा देते हैं. हाल ही में आतंकवादी मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय घोषित करने का भारत का यह प्रस्ताव चीन ने ठुकरा दिया.
नेपाल को भारत मे विलय रोकने का पाप
नेपाल भी कभी भारत में विलय करने को तैयार था? 1952 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन विक्रम शाह ने नेपाल के भारत में विलय का प्रस्ताव नेहरू के सामने रखा। लेकिन प्रधानमंत्री नेहरू ने ये कहकर उनकी बात टाल दी कि इस विलय से दोनों देशों को फायदे की बजाय नुकसान ज्यादा होगा। यही नहीं, इससे नेपाल का पर्यटन भी खत्म हो जाएगा। जबकि असल वजह ये थी की नेपाल जम्मू कश्मीर की तरह विशेष अधिकार के तहत अपनी हिन्दू राष्ट्र की पहचान को बनाये रखना चहता था जो की नेहरू को मंजूर नही थी, और इस वजह से भारत के हाथ से एक स्ट्रेटेजिक जगह निकल गयी।
काबू व्हेली मणिपुर – वह दिन 13 जनवरी 1954 था जब पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के मणिपुर प्रांत की काबू वैली दोस्ती के नाम पर म्यानमार को दे दिया. उसके बाद एक बार फिर वही हुआ जिसका डर था. म्यानमार ने फिर से यह जगह चाइना को दे दिया. जिसके वजह से आज भी चाइना भारत पर नजर रखता है. बता दें काबू दुनिया के सबसे खूबसूरत जगह में से एक है. जिसकी तुलना कश्मीर से की जाती है.
कश्मीर की समस्या – नेहरू का पाप
कश्मीर का विवाद तो नेहरू के सरासर जिद्दीपन की ही देन रहा है. पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला बोला. कश्मीर सरकार के बार-बार आग्रह के बाद भी नेहरु जी कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने में देरी करते रहे. अंत में 27 अक्तूबर, 1947 को हवाई जहाज द्वारा श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई. भारतीय सेना ने कबाइलियों को खदेड़ दिया. सात नवम्बर को बारामूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु तब ही नेहरु ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर युद्ध विराम कर दिया. अगर नेहरु ने वह ऐतिहासिक गलती न की होती तो सारा कश्मीर हमारे पास होता. यह बात पहेली ही है कि जब पाकिस्तान के कबाइली हमलावरों को कश्मीर से खदेड़ा जा रहा था तब नेहरु को संघर्ष विराम करने की इतनी जल्दी ही क्या थी. नेहरु की उसी भूल के कारण आज भी मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र पाकिस्तान के पास हैं. ये सभी क्षेत्र आज पाकिस्तान में आजाद कश्मीर के नाम से जाने जाते हैं. कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने वाली भारतीय सेना की उस टुकड़ी का नेतृत्व भारतीय सेना के अफसर एस के सिन्हा ही कर रहे थे, जो बाद में जनरल और कश्मीर और असम के गवर्नर भी बने.
उन्होंने मुझे स्वयं एक बार बताया था कि नेहरू ने 1947 में सेनाओं को मुज़फ़्फ़राबाद जाने से रोक दिया था. मुज़फ़्फ़राबाद अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की राजधानी है. जनरल सिन्हा ने यह भी बताया था कि भारतीय सेना उड़ी तक पहुंच गई थी, लेकिन नेहरु जी ने फैसला किया कि पुंछ को छुड़ाया जाना ज़रूरी है. इसलिए भारतीय सेना मुज़फ़्फ़राबाद नहीं गई.
बहरहाल, नेहरु कश्मीर में गलती पर गलती करते ही रहे. वे कश्मीर के मुद्धे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए. इसीलिए तो पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवाद को भारत ही इस मंच पर लेकर गया था.
नेहरु ने बाबा साहेब अम्बेडकर की सलाह की अनदेखी करते हुए भारतीय संविधान में धारा 370 को जुड़वा दिया था. यह उन्होंने अपने परम प्रिय मित्र शेख अब्दुल्ला की सलाह पर किया था. इसमें कश्मीर के लिए अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा द्वारा पारित होने तक लागू नहीं होगा. यानी उन्होंने देश में दो संविधान का रास्ता बनाया. तो देश के पहले प्रधानमंत्री ने देश को कई असाध्य समस्याओं में फंसा दिया.
नेहरु की पिलपिली चीन नीति का परिणाम ही यह रहा कि देश को अपने पड़ोसी से 1962 में युद्ध लड़ना पड़ा और युद्ध में मुंह की खानी भी पड़ी थी. चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगाने और ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नेहरु के उदारवादी नारों को घूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा. उस युद्ध के 56 सालों के बाद आज भी, चीन ने हमारे महत्वपूर्ण अक्साई चिन पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है. चीन की तरफ से कब्जाये हुए भारतीय इलाके क्षेत्रफल 37,244 वर्ग किलोमीटर है. जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है, उतना ही बड़ा है अक्साई चिन.
ग्वादर लेने से इंकार – 1950 के दशक में ओमान के शासक ने ग्वादर बंदरगाह का मालिकाना हक भारत को देने की पेशकश की तो नेहरू ने अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए बंदरगाह का स्वामित्व लेने से इनकार कर दिया। इसके बाद 1958 में ओमान ने ग्वादर बंदरगाह को पाकिस्तान को सौंपा। यदि उस समय नेहरू ग्वादर के दूरगामी महत्व को समझकर उसका विलय भारत में कर लेते तो न सिर्फ मध्य एशिया में पहुंच के लिए भारत के पास एक अहम बंदरगाह होता बल्कि चीन ग्वादर तक पहुंचकर हमें धमका न पाता।
1962 का युद्ध – सन 1962 के चीन युद्ध के समय नेहरू ने वायुसेना के प्लान के अनुसार युद्ध रणनीति नहीं बनाई और न ही वायुसेना को समय से थल सेना के साथ युद्ध में भाग लेने का अधिकार दिया। नतीजा भाररत को न सिर्फ हजारों सैनिकों की जान गवानी पड़ी बल्कि हम हजारों वर्ग किलोमीटर जमीन भी गंवा बैठे।
सिंधु जल समझौता – 1960 में भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी राष्ट्रपति अयूब खां के बीच सिंधु जल समझौता हुआ। इस समझौते में नेहरू ने मुस्लिम तुष्टिकरण और उदारवादी दिखने के लोभ में भारतीय हितों की बलि देते हुए 50/50 फार्मूले के बजाए 80 फीसदी पानी पाकिस्तान को देने संबंधी समझौते पर खुद कराची जाकर दस्तखत कर दिया।
समग्रत: स्पष्ट है कि नेहरू ने अपनी अदूरदर्शी नीतियों के द्वारा और विश्व शांति का नेता बनने के मोह में विदेशी मोर्चों पर देश को जो जख्म दिए हैं उन्हें भरने में बहुत समय लगेगा। इनमें से कई जख्म तो ऐसे हैं जिन्हें भारत चाहकर भी ठीक नहीं कर सकता।
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