1960 मे जब मिल्खा सिंह को पाकिस्तान आने का न्योता मिला तो मिल्खा ने एकदम साफ और तल्ख शब्दों में मना कर दिया। कुरेदे जाने पर मिल्खा सिंह ने कहा ” जिस जमीन पर लोगों ने मेरे मां बाप को तलवारों से मेरे सामने काट दिया, वहाँ मैं कभी नही जाऊँगा, कभी नहीं। ” मिल्खा के भाई बहन भी मारे गये थे।
आमतौर पर भारत के राष्ट्रपति की भी उपेक्षा करने वाले नेहरूजी को मिल्खा की ये बात ऐसी चुभी, कि नेहरु जी ने मिल्खा से व्यक्तिगत मुलाकात कर उन्हें पाकिस्तान का निमंत्रण स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। बेमन से मिल्खा सिंह कुछ और एथलीटों के साथ पाकिस्तान रवाना हुए। आखिर नेहरु जी को मिल्खा सिंह जी के सच से इतनी चिढ़ क्यों हुई ?
पाकिस्तान के स्टार एथलीट अब्दुल खलीक को दो बार हराने के बाद पाकिस्तान ने ये अपनी इज्जत का मुद्दा बना लिया था। पाकिस्तान में कभी भी भारत से अपनी नफरत और दुश्मनी को छिपाने की कोई कोशिश हुई हो, इसका कोई इतिहास नहीं है, और भारत की आजादी के बाद इधर नेहरूजी और उनकी सेकुलरी बुद्धि के औरस पुत्रों ने कभी भी पाकिस्तान से अपना जबरिया का रोमांस छिपाया नहीं है। क्या कंट्रास्ट है!!
दौड़ हुई तो स्टेडियम में सात हजार लोगों के साथ पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल अयूब खान भी थे। समझ लीजिए कि मजहबी सोच पर बने मुल्कों में गैर मजहबी को हराने की कैसी खुली ख्वाहिश होती है। हम उन्हें क्यों दोष दें, जिन्होंने अपनी दुश्मनी कभी छुपाई ही नहीं। एक मामूली हार-जीत पर देश का राष्ट्रपति तक खुलकर इनवाल्व हो जाता है।
खैर…मिल्खा जीते, और दुसरे स्थान पर भी भारतीय धावक मक्खन सिंह ही रहे। अंततः राष्ट्राध्यक्ष जनरल अयूब खान ने उन्हें मुबारकबाद देते हुए शानदार एथलीट के बजाय फ्लाइंग सिक्ख कहा, शायद “फ्लाइंग भारतीय” कहकर वो भारत से हारना कबूल नहीं करना चाहता था।
आखिर नेहरु जी और उनके सेकुलर औरस पुत्रों को पाकिस्तान से इतना प्रेम क्यों रहा है? कारण पाकिस्तान नामक देश तो नहीं ही है।
मिल्खा सिंह मजहबी हिंसा के शिकार के प्रतीक बनकर उस जमाने में उभरे थे, वो हिंसा, जो भारत के इतिहास में समाहित है हजारों मंदिरों के विध्वंस और लाखों लोगों के कत्लो-गारत में। जो हिंसा कश्मीर के हिन्दुओं को मार देती है, जो आज बंगाल में हिन्दुओं पर कहर बनकर फिर टूट रही है। उस हजार चेहरे वाले दानव का कोई भी चेहरा आजाद भारत के हिन्दुओं को न दिखाई दे, इसी कोशिश में नेहरु और उनकी सेकुलरी सोच के औरस पुत्र हर तरह से लगे रहे। खूरेंज इतिहास को छिपाया गया, और ताजमहल को महिमामंडित किया गया। हिंदुओं को बौद्धिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दरिद्र घोषित किया गया। शायद नेहरु जी को लगता होगा कि आने वाले समय में उस हजार चेहरे वाले दानव को वो इस तरह से हमेशा के लिए परदे के पीछे डाल देंगे।एक एथलीट को भी वो इस दानव की क्रूरता से हत् हुआ प्रतीक बनकर उभरने नहीं देंगे, बड़ी और ऐतिहासिक क्रूरता और जघन्य कृत्यों को तो उजागर होने की बात सोचने का भी मौका मिलना असंभव था।
सोचिये, एक तरफ जनरल अयूब खान जो अपनी घृणा को कहाँ तक ले जाता है, और दूसरी तरफ नेहरु और भारत की सेकुलर बौद्धिक विरासत है, जो बंटवारे के बाद भी भारत की सांस्कृतिक वास्तविकता और उसमें स्वाभाविक रुप से उगते छोटे छोटे पाकिस्तानों को छिपाने के लिए जी-तोड़ प्रयास करते रहे हैं।
जनरल अयूब खान और नेहरु जी एक ही उद्देश्य में लगे लोग थे, जिन्हें आज भी हम डिकोड करने पर असहिष्णु घोषित कर दिये जाते हैं।
साजिश बहुत भीतरी है और अनवरत जारी है।
आशीष कुमार
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