-बलबीर पुंज
अफगानिस्तान में घटनाक्रम इतनी तेजी से बदला कि शेष विश्व हतप्रभ रह गया। अमेरिकी सैनिकों की वापसी पश्चात 103 दिनों में इस इस्लामी गणराज्य की पहली लोकतांत्रिक सरकार और उसकी सेना से प्रांत दर प्रांत छीनने के बाद तालिबान ने 15 अगस्त को काबुल (दिल्ली से एक हजार किलोमीटर दूर) स्थित सत्ता-अधिष्ठान पर कब्जा जमा लिया। भारत, अमेरिका सहित कई देश अपने राजनायिकों और लोगों को काबुल से सुरक्षित बाहर निकाल चुके है या निकाल रहे है। अब जब तालिबान द्वारा नियंत्रित अफगानिस्तान ‘इस्लामी अमीरात’ में विशुद्ध शरीयत का राज हो गया है, तो इसपर शेष विश्व के आचरण से क्या संकेत मिलता है?
अफगानिस्तान में जो कुछ मंजर देखने को मिल रहा है, वह काफी हद तक भारत की कश्मीर घाटी 1990 के दशक में झेल चुकी है। उस समय जब कश्मीरी पंडितों पर इस्लाम के नाम पर जिहादी कहर टूटा और उन्हें उनकी बहू-बेटियों को छोड़कर घाटी से जाने को कहा गया, तब वामपंथियों-जिहादियों के साथ देश का स्वघोषित सेकुलर-उदारवादी बुद्धिजीवी वर्ग चुप था। कोई आश्चर्य नहीं कि अफगानिस्तान में उस प्रकार की विभीषिका पर यह वर्ग फिर मौन है। दादरी में भीड़ द्वारा अखलाक की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या पर दुनियाभर में भारत-हिंदुओं को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाले यही लोग आज अफगानिस्तान की स्थिति पर चर्चा इस्लाम के आलोक में क्यों नहीं कर रहे है? इस महाअपराध में जहां स्वयंभू सेकुलरवादी-वामपंथी-जिहादी कुनबा अपराधी है, वही अमेरिका में सत्ता-अधिष्ठान और “मजहबी आज़ादी” के नाम पर अपनी दुकान चलाने वाली स्वयंसेवी संस्थाएं भी बराबर दोषी है।
आखिर तालिबान कौन है? “काफिर-कुफ्र” अवधारणा से प्रेरित और सुन्नी केंद्रित तालिबान का जन्म पाकिस्तान स्थित मदरसों में हुआ, जिसका वित्तपोषक सऊदी अरब रहा है। 1980-90 के दशक में अफगानिस्तान से सोवियत संघ को खदेड़ने के लिए अमेरिका ने पाकिस्तान और सऊदी अरब की मजहबी सहायता से मुजाहिदीनों, अर्थात्- “काफिरों” के खिलाफ जिहादियों को आयुध उपलब्ध कराया था। वास्तव में, तालिबान उन्हीं मुजाहिदीनों का समूह है। जब 1995-98 के बीच राजधानी काबुल सहित अफगानिस्तान पर तालिबान ने कब्ज़ा जमाया और वहां इस्लाम का सच्चा स्वरूप लागू किया, तब उसे पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने मान्यता दी थी।
तालिबान खालिस शरियत व्यवस्था का पक्षधर है, जिसकी जड़े 1,400 वर्ष पूर्व के कालखंड में मिलती है। जो कुछ उसने पिछले ढाई दशक में किया और जो कुछ वह अब करना चाहता है, उसका दंश अखंड भारत 600 वर्षों के इस्लामी हुकूमत में झेल चुका है। इस जिहादी संगठन की अबतक शरियत आधारित नीतियों के अनुसार, पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाना और महिलाओं को बुर्का पहनना अनिवार्य है। टीवी, संगीत, सिनेमा, अन्य कलात्मक गतिविधियां, लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं को बिना पुरुषों के घर से बाहर निकलना- ईशनिंदा का समरूप है। जिस किसी ने इनका उल्लंघन या विरोध किया, तब उसका या तो कोई शारीरिक अंग सरेआम काट दिया जाएगा या फिर उसे चौराहे पर मौत के घाट उतारा जाएगा। चूंकि “काफिर-कुफ्र” अवधारणा, जिसमें गैर-इस्लाम किसी भी संस्कृति, सभ्यता और परंपरा का कोई स्थान नहीं है- उसके अनुरूप 2001 में तालिबानियों ने एक सच्चे अनुयायी का कर्तव्य निभाते हुए बामियान स्थित विशाल बुद्ध प्रतीमा को बम से उड़ा दिया था।
हालिया अंतरराष्ट्रीय मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, तालिबान वहां 15 वर्ष से अधिक आयु की लड़कियों और 45 वर्ष से कम उम्र की विधवाओं की सूची बनाकर घर-घर जाकर उन्हें उठा रहा है, ताकि उन्हें “सेक्स गुलाम” बनाया जा सके। वह मस्जिदों से पुलिसकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों की पत्नियों-विधवाओं को उन्हें सौंपने का निर्देश दे रहा है। सच तो यह है कि तालिबान को सच्चे इस्लाम की प्रेरणा देवबंदी सुन्नी (हन्नाफी) विचार से मिलती है, जिसकी 1866 में उत्पत्ति अखंड भारत में इस्लामी शासन को पुनर्स्थापित करने हेतु वर्तमान उत्तरप्रदेश में देवबंद स्थित दारुल उलूम के एक मदरसे में हुई थी। ऐसे में अनुमान लगाना कठिन नहीं कि क्यों खंडित भारत में अधिकांश मदरसों से शिक्षित मुस्लिम समाज का एक वर्ग- इस्लामी आक्रांताओं और क्रूर शासकों के साथ तालिबान आदि जिहादियों से उनके मजहबी उद्देश्यों के कारण सहानुभूति रखता है और उन्हें अपना नायक मानता है।
यह ठीक है कि अमेरिकी सैन्य कार्रवाई में तालिबान को उखाड़ फेंकने के बाद दिसंबर 2001 में हामिद करजई के नेतृत्व में अंतरिम अफगानिस्तानी सरकार बनी और 2014 में पहली बार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत हुए चुनाव पश्चात अशरफ गनी राष्ट्रपति बने- किंतु वहां हजारा शिया समाज के साथ गिनती के बचे “काफिर” हिंदुओं और सिखों की स्थिति नहीं बदली। क्यों?
अफगानिस्तान के संकट को दो-तीन दशकों से नहीं मापा जा सकता। 11वीं-12वीं शताब्दी तक कश्मीर की भांति यह भूखंड भी भारतीय सांस्कृतिक विरासत का अंग था। हिंदू-बौद्ध संस्कृति से सुसज्जित अफगानिस्तान में जब इस्लाम का आगमन हुआ और महमूद गजनी ने “काफिर” हिंदूशाही राजवंशों को परास्त किया, तब इस भूखंड का मजहबी स्वरूप और चरित्र बदलने लगा। परिणामस्वरूप, क्षेत्र में सुन्नी इस्लाम का वर्चस्व स्थापित हो गया, जिससे प्रेरित “इको-सिस्टम” का प्रभाव वर्तमान अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत स्थित कश्मीर में हैं। इस्लामी परचम के अधीन जिस प्रकार पाकिस्तान और कश्मीर को भारतीय सनातन संस्कृति के प्रतीकों से मुक्त करने का कुप्रयास जारी है, ठीक वैसा अफगानिस्तान में भी हो रहा है। यहां 1970 के दशक में अफगानी हिंदुओं और सिखों की संख्या लगभग सात लाख थी, जो 1990 में गृहयुद्ध के बाद निरंतर घटते हुए आज केवल कुछ सौ हो गई है। हालिया घटनाक्रम की पृष्ठभूमि में मोदी सरकार वहां हिंदुओं-सिखों के संपर्क में है और उन्हें सुरक्षित भारत लाने की योजना बना रही है।
तालिबान का पुन: अफगानिस्तान में सत्तासीन होना- भारत के लिए चिंता का विषय है, क्योंकि कश्मीर में घुसपैठ को फिर बढ़ावा मिल सकता है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान के अनुसार, तालिबान ने वहां गुलामी की बेड़ियां तोड़ी है। यह निर्लज्ज समर्थन पाकिस्तान के वैचारिक-सत्ता अधिष्ठान के अनुरूप भी है, क्योंकि उसका और तालिबान का जन्म “काफिर-कुफ्र” चिंतन के गर्भ से हुआ है। ऐसे में यदि शेष विश्व सोचता है कि यह मजहबी बीमारी केवल भारतीय उपमहाद्वीप तक सीमित रहेगी, तो यह उनकी मूर्खता है। जब भी किसी गैर-इस्लामी क्षेत्र में “काफिर-कुफ्र” प्रेरित सर्वोच्च सत्ता की स्थापना होती है, तब काफिरों को केवल दो में से एक चुनने का विकल्प दिया जाता है- इस्लाम या मौत। इनका मूल उद्देश्य समस्त दुनिया को दारुल-इस्लाम में परिवर्तित करना है। पिछले कई वर्षों से कुछ यूरोपीय देश इस जिहादी ऊष्मा का अनुभव कर रहे है। फ्रांस द्वारा इसी वर्ष इस्लामी कट्टरपंथ विरोधी कानून बनाना- इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।
अफगानिस्तान में जो कुछ हो रहा है, क्या शेष विश्व उसे तटस्थ होकर देखें या उसे रोकने का प्रयास करें? इस प्रश्न का उत्तर काफी कुछ वैश्विक घटनाक्रम पर निर्भर करता है। इस दिशा में दुनिया की बड़ी सामरिक-आर्थिक महाशक्ति अमेरिका की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है, किंतु उसकी नीति दोगली, स्वार्थी और विरोधाभास से भरी है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति के लिए गनी सरकार और अफगान सेना को दोषी ठहराया है। यदि ऐसा है, तो वर्ष 1980-90 में “काफिर” सोवियत-संघ के खिलाफ तालिबान को किसने उभारा, वर्ष 2001 में न्यूयॉर्क 9/11 आतंकवादी हमले के बाद अफगानिस्तान में “बैड” तालिबान से युद्ध किसने किया, फिर 20 वर्ष पश्चात किसने “गुड” तालिबान से समझौता करके अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुला लिया? क्या इन सबका उत्तर अमेरिका नहीं है?
बात अमेरिका तक सीमित नहीं है। विश्व की अन्य बड़ी महाशक्ति चीन का मानना है कि अफगानिस्तान में तालिबान के नेतृत्व वाली इस्लामी सरकार “समावेशी” होगी। यदि “काफिर-कुफ्र” दर्शन में “सबकी स्वीकार्यता” है, तो चीन इस्लामी कट्टरपंथ को समाप्त करने हेतु शिनजियांग प्रांत में उइगर मुस्लिमों का सांस्कृतिक संहार क्यों कर रहा है? वैसे भी कुटिल साम्यवादी चीन द्वारा अपने साम्राज्यवादी हितों की रक्षा हेतु मानवता, शांति, बहुलतावाद और लोकतंत्र के शत्रुओं का समर्थन कोई नई बात नहीं है। अपनी भारत विरोधी नीति के कारण ही चीन-पाकिस्तान घनिष्ठ मित्र है। रूस भी तालिबान का सशर्त समर्थन कर रहा है। ऐसी विरोधाभासी स्थिति में दुनिया का तालिबान जैसे को प्रेरणा देने वाले “काफिर-कुफ्र” चिंतन से लड़ना- निरर्थक है।
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
संपर्क:- punjbalbir@gmail.com
Please see the enclosed
-Regards
Balbir Punj
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.