भारत में मीरा के आसपास के कालखंड में एक बड़े दिव्य संत हुए हैं श्री सनातन गोस्वामी। उनके बारे में कथा बहुत चर्चित है कि एक बार कोई युवा और उद्धत विद्वान सनातन गोस्वामी जी के पास पहुंचा और उनसे साथ शास्त्रार्थ करने की जिद करने लगा , उन्हें चुनौती देने लगा। सनातन गोस्वामी विष्णु भक्त थे कृष्ण भक्त थे , वृंदावन में रहते थे। उन्होंने उस युवक से कहा कि मुझे कुछ नहीं आता। मैं शास्त्रास करने की योग्य ही नहीं हूँ। इस पर उस युवक के घमंड की सीमा और बढ़ गई।
उसने कहा कि ऐसा नहीं है। आसपास के लोग ही नहीं बल्कि पूरा विद्वत समुदाय मानता है कि आप बड़े विद्वान हैं। इसीलिए जब मैं आपको शास्त्रार्थ में हराऊंगा तभी मेरी विद्वता सिद्ध होगी । इस पर फिर सनातन गोस्वामी ने कहा कि मैं तो प्रभु की भक्ति में लीन रहता हूं । मुझे कुछ आता ही नहीं। इसीलिए मुझे हराने की क्या जरूरत ? मुझे हारा हुआ ही मान लो । इस पर युवक तैयार तो हुआ पर वह बोला कि एक कागज पर आप मुझे लिख कर दे दें कि आप मेरी विद्वत्ता के आगे अपनी पराजय स्वीकार करते हैं।
सनातन गोस्वामी ने तत्काल एक कागज पर लिखकर दे दिया भेज दिया युवक को शास्त्रार्थ किए। वह उद्धत विद्वान उस पत्र को दिखाता हुआ अपने घमंड को और पुष्ट करता हुआ बोलता हुआ जा रहा था कि मैंने सनातन गोस्वामी पर विजय प्राप्त कर ली।
उन्हें शास्त्रार्थ में हरा दिया। देखिए यह उनका लिखा हुआ पत्र है जिसमें उन्होंने अपनी हार स्वीकार की है । तभी उनके भतीजे श्री जीव गोस्वामी वहां से गुजर रहे थे । उन्हें इस युवक की उद्दंडता पर बहुत क्रोध आया। उन्होंने कहा कि मेरे चाचा जी को हराने की घोषणा करने वाले पहले मुझे तो हरा कर दिखाओ। जब मैं हार जाऊंगा तब मान लूंगा कि तुम चाचा जी को हराने के लायक हो। फिर क्या था दोनों का शास्त्रार्थ शुरू हो गया और जाहिर सी बात है कि उस घमंडी युवक का घमंड चूर हो गया । जीव गोस्वामी विजेता हुए और उस कागज को लेकर वापस अपने चाचा श्री सनातन गोस्वामी के पास पहुंचे । उन्हें प्रणाम करके कहा कि चाचा जी मैंने उस युवक को पराजित करके यह कागज वापस ले लिया।
उनकी आशा थी कि सनातन गोस्वामी उनकी सराहना करेंगे और प्रसन्न होंगे परंतु अचानक सनातन गोस्वामी ने क्रुद्ध होकर कहा कि तुम ईश्वर की आराधना के लिए ही अनुपयुक्त हो। मेरे आश्रम को छोड़कर निकल जाओ क्योंकि तुमने भले ही उस युवक को पराजित कर दिया पर तुम अपने अभिमान के हाथों खुद पराजित हो गए और एक अभिमानी को ईश्वर की आराधना अधिकार ही नहीं है। वह युवक तो नासमझ था अपनी विद्वत्ता के घमंड में मस्त था , उसकी गलती को तो मैं क्षमा भी कर सकता हूं पर तुम्हारी गलती अक्षम्य है। तुम शीघ्र मेरे आश्रम से निकल जाओ।
इतना गौरवशाली है हमारा अतीत जो स्वयं को सामान्य और अविशिष्ट दिखाने में ही अपनी महानता का अनुभव करता है। आज तक किसी वेद या उपनिषद के रचयिता का नाम किसी को पता नहीं है। अगर है भी तो कुछ देवतुल्य ऋषियों या देवताओं के नाम से है। हमारे भारतीय मनीषियों ने कभी भी कोई श्रेय नहीं लिया है। आज भी हमने अमरीका से हल्दी का पेटेंट छीन कर उसे सर्वजन सुलभ किया है, उस पर अपना हक नहीं जताया है । यही है हम और यही हैं हमारी वो मान्यताएं जिसके कारण हम आज भी सबसे प्राचीन सभ्यता के साथ जीवित स्पंदित और सक्रिय हैं । न मिस्र के पिरामिड बनाने वाले जीवित हैं न माया सभ्यता के भविष्यवक्ता परंतु हम उसी टशन से जीवित हैं।
कृण्वंतो_विश्वमार्यम्
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