आजकल एक ट्रैंड बड़ी ही तेज़ी से चलन में आया है और वो है निगेटिविटी अट्रैक्ट्स मोर ,यानि नकारात्मकता ज्यादा आकर्षित करती है और जो दिखता है वो बिकता है की रवायत को अपने कर्म का धंधा सूत्र माने कुछ लोग ,कुछ संस्थाएं और कुछ समूह दिन रात भ्रम ,झूठ आदि के सहारे ही सही मगर वो तलाशते हैं या कहिए की तलाश लेते हैं अमूमन तौर पर किसी आम इंसान को ऐसा सोचने के लिए बहुत नीचे गिरना पड़ता है पर खेल यदि टी आर पी बढ़ाने वाला हो तो बाकी सब गौण हो जाता है |
द प्रिंट में प्रकाशित अपनी इस पोस्ट में लेखिका ज्योति यादव ने सुशांत सिंह राजपूत प्रकरण में लीक से हटकर अनावशयक रूप से बिहार ,बंगाल दोनों के परिवार समाज सोच और अंधविश्वास के बहाने अपनी कुंठा का विष वामन किया है |
लेख जिसके शीर्षक का आशय है की जहरीले बिहारी परिवार में “श्रवण कुमार ” बनने का दबाव | सोचिये कि असल में जिस जहरीले शब्द को पूरे बिहारी समुदाय परिवार को नीचा दिखाने के लिए किया गया है असल में वो इस पोस्ट की लेखिका अपने विचारों में लिए साथ ही घूम रही है ,खुद अपने नकारात्मक सोच के विषैले दलदल में रूह तक पैवस्त |
पत्रकारिता की जाने कौन सी बड़ी पदवी या विश्व भर में अपने पत्रकारिता से अपना देश समाज को ख्याति और गर्व का अवसर दिलाने जैसे विख्यात पत्रकार महोदया ने न सिर्फ उस सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के बाद उसे पीड़ा पहुंचाने की कोशिश की बल्कि इस बहाने से और जाने किस पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर बिहारी परिवार ,बंगाली परिवार ,समाज को भी अलग अलग वजहों से निशाने पर लिया |
ज्योति यहीं तक नहीं रुकीं ,उन्होंने माँ बेटे ,भाई बहन ,दोस्त मंगेतर आदि तमाम सामाजिक रिश्तों नज़रिये से देखते और दिखाते हुए ये सिद्ध करने का प्रयास किया कि दकियानूसी विचार और जीवन शैली ही ऐसी मौतों के लिए जिम्मेदार होती हैं |
अपनी अलग ही सोच को लेकर कुछ भी लिखती हुई लेखिका एक बिहारी परिवार अपने बेटे की महिला मित्र को लेकर कितना संकीर्ण सोच रखता हो सकता है | और ऐसे हालातों में सामान्यता संतान परिवार से दूर होकर हताशा और निराशा में आत्महत्या जैसा कदम उठा लेता है ” सब कुछ फ़िल्मी फैंटेसी सा तफ्सील से अपने शब्दों के ताने बाने बुनते हुए वो ये भूल गईं कि बेशक लगता जरूर है मगर यकीनन ही वास्तविक जीवन सिनेमाई करिश्मे और बनावटीपन से कोसों दूर ही रहता है |
अब जबकि मामला देश की सबसे तेज़ तर्रार अन्वेषण एजेंसी के हाथों में पहुँच गया है तो फिर सबको सच के बाहर आने तक यूँ ही बाहर बाहर से सारे हालातों को समझने का प्रयास करना होगा | लेकिन इस बीच लगातार सरकार प्रशासन पुलिस कानून के विरूद्ध ही खड़े हो उठने वाले ऐसे सभी व्यक्तियों /विचारों और संस्थाओं पर कठोर कार्यवाही होनी चाहिए |
सस्ती लोकप्रियता के लिए हर घटना दुर्घटना में खबर तलाश लेने नहीं तो खबर बना देने की इस नई शैली की पत्रकारिता को हतोत्साहित किया जाना बहुत जरूरी हो जाता है | असल में एकदम निम्नतम स्तर पर भी पहुँच कर लोग ख्याति और चर्चा पाने की प्रवृत्ति में अब इतने प्रवीण हो चुके हैं कि बाकी सब गौण हो जाता है | खबरों के बाजार ने सारी संवेदनशीलता को ताक पर रख दिया है |
प्रिंट तथा वायर जैसे अंतर्जालीय पन्ने आँख मूँद कर वो वो सच देख समझ लेते हैं आमतौर पर जिन्हें समझने में न्यायपालिका को भी कई बार बहुत समय लग जाते हैं | ऐसा ही कुछ भयंकर निराशावादी टीवी चैनल एनडीटीवी ने भी अपनी एकतरफा रिपोर्टों से एक एजेंडे का अनुसरण करते से दिखते हैं |
पोस्ट में जिस तरह का विष वमन किया गया है इससे लगता है कि ये सब आजकल टेलीविजन पर सामाजिक धारावाहिकों के नाम पर परोसे जा रहे ऊलजलूल टेलीविजन नाटकों को ज्यादा दिनों तक देखते रहने के कारण सोच पर पड़ा कुछ दुष्प्रभाव तो जरूर है |
बिहारी और बंगाली ,जिन दो को एक साथ घेरा और कोसा है न दोनों सभ्यता ,संस्कृति ,उत्सव हर लिहाज़ से पूर्णतया एक से हैं यहां ये ध्यान दिलाना जरूरी हो जाता है कि घटना मुंबई महाराष्ट्र में घटी है कोसा बिहार और बंगाल को जा रहा है ,अब ये किया गया है तो कुछ सोच कर किया होगा ,बुद्धिजीवी जो ठहरे |
कुछ जिज्ञासाएं हमारी भी बन आई हैं
सीबीआई जाँच की माँग के बाद खुद ही उसका विरोध क्यों
देश के सबसे अधिक महंगे अधिवक्ता को अपने लिए अनुबंधित करना
आय से कहीं अधिक की संपत्ति की स्वामिनी , कैसे
यदि ये परिवर्तन नहीं आता तो ये सब कब तक बदस्तूर चलता
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