“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मै इसे लेकर रहूँगा” का उद्घोष देने वाले हिंदकेसरी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जयंती 23 जुलाई को है। अंग्रेजों की सत्ता होते हुए भी भारत भूमि के उद्धार के लिए दिन-रात चिंता करने वाले और अपने तन, मन, धन एवं प्राण राष्ट्रहित में अर्पण करनेवाले कुछ नररत्नों में उनका नाम सदैव आदर से लिया जाता रहेगा। तत्त्वचिंतक, गणितज्ञ, धर्मप्रवर्तक, विधितज्ञ आदि विविध कारणों से उनका नाम संपूर्ण विश्व में प्रसिद्ध है । स्वतंत्रता पूर्व काल में लोकमान्य जी के निश्चयी तथा जाज्वल्य नेतृत्व गुणों से ओतप्रोत उनकी पत्रकारिता वैचारिक आंदोलन के लिए कारणीभूत हुई । स्वतंत्रता के पश्चात् इस देश की दुरावस्था रोकने हेतु आज एक और ऐसे ही वैचारिक आंदोलन की आवश्यकता है । आज यदि वे जीवित होते तो आज की अवस्था देखकर निश्चित ही वे अपना नया उद्घोष “सुराज्य (हिन्दू राष्ट्र) हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और हम इसे लेकर रहेंगे!” यह देते ।
इस लेख के माध्यम से हम उनके विशेष गुणों के बारे में जानने का प्रयास करते हैं।
1879 में एल्.एल्.बी.की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद समाज को जागृत करना, नए युग के प्रकाश किरणों से जनता का जीवन तेजोमय करना और समाजमन में नयी आकांक्षाएं निर्माण कर उन्हें कार्यान्वित करना जिससे एक स्वाभिमानी तथा बलशाली समाज बने, इसी उद्देश्य से विचार मंथन कर उन्होंने मराठी भाषा में ‘केसरी’ एवं अंग्रेजी भाषा में ‘मराठा’ यह दो समाचार पत्रिका निकालने का निर्णय लिया ।
पत्रकारिता के गुणधर्म – केसरी का स्वरूप कैसे होगा, यह स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा था – ‘‘केसरी निर्भयता एवं निःपक्षतासे सर्व प्रश्नों की चर्चा करेगा । ब्रिटिश शासन की चापलूसी (खुशामद) करने की जो बढती प्रवृत्ति आज दिखाई देती है, वह राष्ट्रहित में नहीं हैं । ‘केसरी’ के लेख केसरी (सिंह) इस नाम को सार्थक करने वाले होंगे ।”
निर्भीक पत्रकारिता के उपहार स्वरुप मिली यातनाएं – कोल्हापुर संस्थान के राज प्रबंधक बर्वे के माध्यम से ब्रिटिश शासन छत्रपति शाहू महाराज से छल कर रहा है । यह जानकारी उन्हें मिलते ही केसरी में आरोप करने वाला लेख प्रसिद्ध हुआ कि श्री. बर्वे कोल्हापुर के महाराज के विरुद्ध षडयंत्र रच रहे हैं । बर्वे ने उस लेख के विरोध में केसरी पर अभियोग चलाया । उसमें तिलक एवं आगरकर जी को चार मास का कारावास हुआ । इस प्रथम कारावास से उन्हें राजकीय कार्य की आवश्यकता तीव्रता से लगने लगी । कारावास से मुक्त होते हुए, उन्होंने एक अलग ही निर्णय लिया और अपना राजनैतिक कार्य क्षेत्र निश्चित्त किया । ‘केसरी’ एवं ‘मराठा’ इन वृत्तपत्रों के संपादक के नाते कार्यारंभ किया ।
तिलक जी की पत्रकारिता का आधार – ईश्वर निष्ठा – जिस समय ज्यूरी ने उन्हें ‘दोषी’ ठहराया, उस समय न्यायाधीश दावर ने उनको पूछा, ‘आपको कुछ कहना है ?’ तब वे खडे होकर बोले – ‘‘ज्यूरीने यदि मुझे दोषी माना है, तो कोई बात नहीं; परंतु मैं अपराधी नहीं हूं । इस नश्वर संसार का नियंत्रण करनेवाले न्यायालय से वरिष्ठ भी एक शक्ति है । कदाचित यही ईश्वरकी इच्छा होगी कि, मुझे दंड मिले और मेरे दंड भुगतने से ही मेरे अंगीकृत कार्य को गति मिले ।”
धर्मनिष्ठ तिलक : स्वामी विवेकानंद जी के संबंध में 8 जुलाई 1902 के ‘केसरी’ के मृत्युलेख में उन्होंने कहा था, ‘‘हमारे पास यदि कुछ महत्त्वपूर्ण धरोहर है, तो वह है, हमारा धर्म ! हमारा वैभव, हमारी स्वतंत्रता, सर्व नष्ट हो चुका है; परंतु हमारा धर्म आज भी हमारे पास शेष है और वह भी ऐसा-वैसा नहीं, इन कथित सुधारित राष्ट्रों की कसौटी में आज भी स्पष्ट रूप से खरा-खरा उतरता है। उन्होंने अपनी पैतृक संपत्ति में से कुछ अंश देकर अपने कुलदेवता ‘लक्ष्मी- केशव’ मंदिर के जीर्णोद्धार में सहायता की थी और अंत में अपने मृत्यु पत्र द्वारा कोंकण की पैतृक संपत्ति अपने कुलदेवता के श्री चरणों में अर्पण की ।
ऐसे महान धर्मनिष्ठ व्यक्तित्व को बारम्बार नमन तथा उनकी जयंती पर हम उनसे प्रेरणा लेकर धर्म मार्ग पर चलते हुए हिन्दुराष्ट्र स्थापना के कार्य में आगे बढ़ते रहे ऐसी ईश्वर से प्रार्थना है ।
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