वामपंथी इतिहासकारों ने भारत देश की जनता से वह सच हमेशा छुपाया है जिससे कांग्रेसी कल्चर के सच की कलाई खुल सके। दरअसल अक्सर वामपंथी इतिहासकार उस समय की शासन करने वाली कांग्रेस के पक्ष में प्रचार करते हुए कहते हैं कि डॉक्टर अंबेडकर ने सिर्फ हिंदू कोड बिल के कारण इस्तीफा दिया था जबकि उनके इस्तीफे के पत्र में साफ दिखता है कि वह प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों से सहमत नहीं थे।
पंडित नेहरू ने कभी डॉक्टर अंबेडकर को उनकी योग्यता के मुताबिक मंत्रालय नहीं दिया जिसका दुख डॉक्टर अंबेडकर को हमेशा रहा..
डॉक्टर अम्बेडकर को पंडित नेहरू ने कभी उनकी योग्यता के मुताबिक पद नहीं दिया जबकि वो ज्यादा डिज़र्व करते थे,मगर इस बात पर वामपंथी इतिहासकार अक्सर चुप रहते हैं। डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी योग्यता के मुताबिक अक्सर तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से मांग की थी कि उन्हें और बड़ी जिम्मेदारी मिले, मगर नेहरू ने उन्हें कुछ नहीं दिया। डॉक्टर अंबेडकर लिखते हैं कि जब मंत्री बाहर जाते थे तब भी उनके मंत्रालय का अतिरिक्त कार्य अम्बेडकर को नहीं सौंपा जाता था..
अब हम #KreatelyMedia बताते हैं आपको वो सच जिसे वामपंथी इतिहासकारों ने हमेशा छिपाया…दरअसल अंबेडकर पंडित नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों से खासे नाराज थे और वह कहते थे कि इस सरकार में प्रधानमंत्री को सिर्फ मुस्लिमों के तुष्टीकरण की ही पड़ी रहती है जबकि दूसरे अन्य समुदायों पर भी ध्यान दिया जाना बेहद जरूरी है..
डॉक्टर अंबेडकर ने अपनी किताब में साफ लिखा था कि यह सरकार दलितों की तुलना में मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर हमेशा ज्यादा चिंतित रहती है प्रधानमंत्री नेहरु का पूरा समय और ध्यान मुसलमानों की सुरक्षा के लिए लगा होता है यानी उस वक्त दूरदर्शी अंबेडकर नेहरू की व कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियों के दूरगामी परिणाम देख रहे थे जिसका नतीजा यह देश अब तक भुगत रहा है।
इतना ही नहीं जब 1951 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की नीतियों से नाराज होकर डॉक्टर अंबेडकर ने सदन में इस्तीफा देना चाहा तब तत्कालीन सरकार ने उनकी स्पीच का एक भी शब्द सदन में नहीं होने दिया और डॉक्टर अंबेडकर को बोलने की अनुमति नहीं दी तब डॉक्टर अंबेडकर ने गुस्से में भरकर सदन में यह कहा कि वह इस तानाशाही के खिलाफ झुकेंगे नहीं और इतना कह कर वे वहां से बाहर चले गए।
अब 2014 में उसी सदन में पिछड़े समाज का एक पुरुष प्रधानमंत्री बनता है और उसी संसद के दरवाजे पर सिर रखकर लोकतंत्र के मूल्यों की पुनर्स्थापना करता है , वह दिल्ली में डॉक्टर अंबेडकर की अस्थियों का कलश रखवा कर उनके नाम का एक स्मारक बन जाता है और यह साबित करता है कि अंबेडकर के प्रति सिर्फ कहने और करने में फर्क है जिस फर्क को कांग्रेस और मोदी के नामों से परिभाषित किया जा सकता है।
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