सावन महीने की पावन बेला आते ही पूरा वातावरण चल रे काँवड़िया और हर हर महादेव की गूंज से गुंजायमान हो जाता है। इसी के साथ काँवड़ यात्रा भी शुरू हो जाती है। वहीं शुरू हो जाता है हिन्दू विरोधियों द्वारा अलग-अलग तरह का प्रोपेगंडा चला कर काँवड़ यात्रा को बदनाम करने की कोशिश। कोई भगवान शिव को जल चढ़ाना पानी की बर्बादी बताने लगता है। कोई ट्वीट कर के कह रहा है कि बच्चों के हाथों में काँवड़ की जगह किताब देनी चाहिए तो कोई काँवड़ियों पर गुंडागर्दी का आरोप लगा रहा है। कुछ हिंदू विरोधी लोग तो इसे अंधविश्वास भी बताने लगते हैं।
दरअसल कांवड़ यात्रा इतनी अनोखी और भव्य होती है कि सड़कों पर बोल बम के बोल के साथ भक्ति रस में मग्न कांवड़ियों का जोश देखते ही बनता है. लेकिन हिंदू विरोधी, कमज़ोर हृदय वाले और प्रबुद्ध बुद्धिजीवी कहां इसकी महिमा समझ पाएंगे ये तो बस भगवान भोले के भक्तों के बस की ही बात है. नंगे पैर कांवड़ ले जाना, बिन थके, बिन रुके आगे बढ़ते जाना एयरकंडीशन कमरे में बैठे हुए उपदेश देने वाले मूर्खों के बस की ये बात कहाँ?
चो चलिए कांवड़ यात्रा के विरोधियों को हम इस अमूल्य उत्सव के उन लाभों से परिचित कराते हैं जो वामपंथी खेमे के महानुभावों को नहीं दिखता है और ना ही किसी भी आर्थिक विशेषज्ञ ने इस ओर कोशिश की है! लेकिन उससे पहले क्या आप जानते हैं कि भारत पर कोई बड़ी आर्थिक विपदा क्यों नहीं आ पाएगी? क्योंकि हमारे यहां त्योहारों की कोई कमी नहीं है! क्योंकि हमारा कैलेंडर पर्वो-त्योहारों से भरा हुआ है ऐसे में कोई भी आर्थिक मंदी हमारे दे को छू भी नहीं सकती. दरअसल हिंदू विरोध का चश्मा पहने लोगों को ये मालूम ही नहीं है कि काँवड़ यात्रा एक आर्थिक बूस्टर डोज़ भी हो सकता है.
काँवड़िया बनने के लिए आपको सबसे पहले भगवा वस्त्रों और पवित्र गंगाजल ले जाने के लिए बांस से बनी कांवर की जरुरत होती है। ये कांवर बनातें हैं बढ़ई. एक रिपोर्ट के मुताबिक इस वर्ष अनुमानित 5 करोड़ कांवरियों के साथ, प्रत्येक 1 या 2 कांवर ले जा रहा है, जिनका बेसिक मूल्य 300 के आसपास पड़ेगा। अब 10 करोड़ काँवड़ के आर्थिक मूल्य की कल्पना करें! ये आंकड़े सिर्फ हरिद्वार के हैं. जबकि इसमें देवघर और वाराणसी को तो जोड़ा भी नहीं गया है. वैसे भी इस बार दो महीने का सावन लग रहा है. जिसकी वजह से बढ़ई समाज की इतनी आमदनी हो जाएगी कि उनकी साल भर की रोजी-रोटी चल सकती है।
कांवड़ यात्रा के दौरान कांवरियों को सुविधाओं और जलपान की जरुरत होती है। इससे सड़क किनारे ढाबे, धर्मशालाएं और भोजनालय को भी अतिरिक्त राजस्व मिलेगा। अकेले बिहार से हर महीने 2 हजार करोड़ रुपये का भरपूर राजस्व मिलता है. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बिहार जैसे गरीब राज्य में भी केवल भागलपुर में इस साल इससे 500 करोड़ रुपयों का कारोबार अनुमानित है। मधेपुरा और कटिहार जैसे जिलों में भी 20 करोड़ का कारोबार तो हो ही जाएगा। सोचिए, एक गरीब राज्य की अर्थव्यवस्था में इस तरह के कारोबार से फायदा होगा या नहीं होगा?
इसके साथ ही काँवड़ बनाने के लिए बाँस, लकड़ी, रंगीन कागज, कपड़ा और घंटी या घुँघरू की भी जरुरत पड़ती है। यूपी के अलीगढ़ या एटा में वहां के सैकड़ों परिवारों की आमदनी केवल घंटी और घुँघरू बनाने पर ही निर्भर होती है और वे सावन के महीने में अच्छी कमाई करते हैं। अलीगढ़ को ताला उद्योग के लिए जाना जाता रहा है, लेकिन ये घुँघरू-घंटी उद्योग के लिए भी लोकप्रिय है। काँवड़िए पाँवों में घुँघरू बाँधते हैं, घंटी काँवड़ में लगा दी जाती है।
लेकिन कुछ लोगों का तिरस्कारी स्वभाव जाता ही नहीं। ये न केवल हमारे देसी संस्कृति के प्रति हीन भावना रखते हैं, बल्कि हमारे पर्वों होली और दिवाली जैसे पर्वों से भी घृणा करते हैं। इन्हें ये समझना पड़ेगा कि काँवड़ यात्रा शिव भक्तों के लिए भक्ति की सच्ची परीक्षा है। जो भी इस यात्रा का विरोध करता है या उसका मजाक उड़ाता है वह सीधे-सीधे हमारे देश की आर्थिक प्रगति के खिलाफ है। ऐसे लोगों का स्वयं भोलेनाथ भी भला न कर पाएँ।
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