प्रश्न चिन्ह सा प्रतीत होता है वह ,
ढलते सूरज संग ढल रहा कदाचित किसी का सम्मान है।
क्षितिज धरा पे निराश, जीवित मगर ढाँचे सा,
बैठा जीवन रेखा को उलाँघने, मेरे देश का एक और किसान है।

संकूचित ना उसकी विचार शैली है,
अशक्षम ना उसके धैर्य की धारा है।
परिश्रम उसके लहू की प्रत्येक बूँद में प्रशिक्षित है,
किन्तु स्वयं अपने देश की कटु राजनीति से वह हारा है।

किसान वह जिसके घर की छत छिन्न भिन्न लज्जित सी नज़र आती है ,
आगन्तुक और अभिलाषी है फिर भी ,वर्षा के आगमन के लिए।
खलियानों का सीना सींचके जिसने आशा के बीज़ बोयें है,
चातक के समान  निहारता है वह, इस देश से सुगम आचरण के लिए।

क्या इतना असहाय है इस देश का विशाल प्रसाशन,
या भ्रष्टाचार के असूरों ने इसकी नीँव को कलंकित कर दिया।
भारत वर्ष के सुनेहरे चरित्र चित्रण का अविभाज्य यतार्थ है किसान ,
कृषि प्रधान इस देश को किन स्वार्थियों ने यूँ पराजित कर दिया।

वृक्ष की डालियाँ क्षमाप्रार्थी हैं ,
की उनपर जान निकलती है देशके निराधार अमूल्य रत्नो की।
रेह जातें हैं बिन-आश्रित , अतृप्त अवस्था मे देह उनके,
बिखर जाती हैं क्षमताएं, मर जाती हैं अपेक्षाएं जतनो की।

लहू , श्रम , निद्रा त्याग कर बोतें हैं खेत खलियान वोह,
क्यों करुणा विहीन हो चलें हैं हम,उनके प्रति जो हमारे जीवन का आधार हैं ?
बिना पक्षपात के देतें हैं वह अन्न सुख सर्व को,
इतनी निर्दय अवहेलना क्यों उनकी, जिनसे चलित ये चराचर संसार है?

अब अनिवार्य है की संवेदनशील हों हम ,
और उनके घर का भी चूल्हा जले ,
उनकी बेटी भी शिक्षित हो ,
उनके बेटे.

नोट: यह कविता इससे पहले रूस में अगस्त 2017 में प्रकाशित हुई है

किसान

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