दुनिया को गणतंत्र का पाठ पढ़ाने वाला और राजनीति की प्रयोगशाला कहे जाने वाले बिहार ने जिसे भी सत्ता सौंपी उसे भरपूर मौके भी दिए। चाहे वो कांग्रेस हो, जदयू हो या राजद। पर बिहार ने भाजपा को कभी भी सत्ता के शीर्ष पर नहीं पहुंचाया। ऐसा नहीं है कि BJP बिहार की सत्ता में नहीं रही ।वह कई बार सरकार में भागीदार थी पर बहुमत के जादुई आंकड़े को पार नहीं कर सकी। सूबे में भाजपा की ऐसी स्थिति के कारणों को समझने के लिए हमें पिछले कई वर्षों के घटनाक्रम को समझना होगा।
भारत की राजनीति को समझने के लिए इसे तीन चरणों में बांट सकते हैं:-(1) 1952-1977(2)1977-1990(3)1990-अब तक
1952 से 1975 तक देश के सभी चुनावों में स्वतंत्रता की छाप रही। जाहिर है इन सभी चुनावों में कांग्रेस का प्रभाव रहा। कुछ अपवाद को छोड़ दे तो केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस ही सत्ता में रही।
1962 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनसंघ(bjp कापुराना version) ने 3 सीटें जीती। अगले चुनावों में ये आंकड़ा बढ़ा ।1967 में 26 तो 1969 में जनसंघ के 34 विधायक निर्वाचित हुए। पर 3 साल बाद ही फिर से चुनाव हुए और सीटों की संख्या घटकर 25 रह गयी।
राजनीति के दूसरे युग की बात करें तो आपातकाल और जेपी आंदोलन ने कांग्रेस की लोकप्रियता में कमी लायी और दूसरे दलों को उभरने का मौका मिला। इसी का परिणाम था की 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी पर ये अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायी।
6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ। इसी साल बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी ने 21 सिटें जीती। अगले चुनाव में पार्टी का ग्राफ नीचे गया और पार्टी 16 सीटों तक सिमट कर रह गयी।
7 अगस्त 1990 में प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने देश में मंडल कमीशन लागू किया जहाँ से राजनीति के तीसरे चरण की शुरुआत हुई। इस दौर में क्षेत्रीय दल मजबूत हुए।
मंडल की राजनीति का फायदा बिहार में लालू प्रसाद यादव को मिला और 1990 में वो मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने में सफल रहे। भाजपा को 39 सीटों से संतोष करना पड़ा।
बिहार में bjp का ग्राफ बढ़ता गया और 1995 में 41 तो 2000 में पार्टी ने अपनी सीटों की संख्या 67 तक पहुंचाई।
2005 में जब दूसरी बार चुनाव हुए तो भगवा के 55 विधायक जीते और पार्टी JDU के साथ पहली बार बिहार की सत्ता में भागीदार बनी।
2010 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए 91 सीटें जीती।
2015 में पहली बार BJP के पास मुख्यमंत्री पद पाने का सुनहरा अवसर था। पार्टी पहली बार सबसे ज्यादा सीटें पर चुनाव लड़ी पर बहुमत के जादुई आंकड़े से कोसों दूर रह गयी।
सूबे में पार्टी की ऐसी स्थिति के लिए खुद bjp जिम्मेदार है। पार्टी के प्रदेश स्तर के नेताओं ने कभी सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने का प्रयास ही नहीं किया तो दूसरी तरफ गुटबाजी ने दल का बंटाधार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अटल-आडवाणी के युग में वे नीतीश के छोटे भाई बनकर खुश रहे। अमित शाह के अध्यक्ष बनने से भाजपा को थोड़ी उम्मीद बंधी। शाह की छवि आक्रामक रूप से काम करने की रही है। अमित शाह ने उन प्रदेशों में भी पार्टी को कुर्सी तक पहुंचाया जहाँ तक इसकी सोच भी नहीं थी। लेकिन 2015 की करारी हार ने उनके हौसले भी पस्त कर दिए।
भारत के लगभग सभी हिंदी प्रदेशों में भाजपा ने अपनी सरकार बनाई है लेकिन बिहार की सत्ता पर bjp का प्रभुत्व कब होगा इसका इंतजार अब भी है।
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