ठंड में कोरोना के बढ़ते प्रसार और उसकी चिंताओं के बीच पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी और असदुद्दीन ओवैसी के बयानों ने पर्याप्त सुर्खियाँ बटोरीं और संभवतः वे चाहते भी यही थे। ओवैसी को राजनीति करनी है, इसलिए उनके वक्तव्यों के निहितार्थ समझ आते हैं, पर आश्चर्य है कि उपराष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पद पर दस वर्षों तक आरूढ़ रहा व्यक्ति भी उनके सुर में सुर मिलाता हुआ वैसी ही बात करता है, लगभग एक जैसे लबो-लहजे, मुहावरे और प्रतीकों के साथ। न तो पृथक पहचान की राजनीति इस मुल्क़ के लिए नई है और न मुसलमानों में भय एवं असुरक्षा की भावना पैदा करके राजनीतिक रोटियाँ सेंकने की कोशिश। बल्कि देश का तथाकथित प्रगतिशील-धर्मनिरपेक्ष धड़ा तो 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के पूर्व से ही मुसलमानों में डर का माहौल पैदा करने की कोशिश कर रहा था। स्वाभाविक है कि प्रधानमंत्री के रूप में ज्यों-ज्यों उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई, त्यों-त्यों उस धड़े की ओर से भारत में बढ़ती कथित असहिष्णुता के स्वर भी जोर-शोर से उठाए जाते रहे। देश ने पुरस्कार-वापसी का एक दौर भी देखा। और ये वे लोग हैं जिन्होंने पुरस्कार-वापसी पर भी छाती-कूट विलाप किया था। कमाल की बात यह है कि फ्रांस, ऑस्ट्रिया, कनाडा समेत लगभग पूरी दुनिया में आए दिन होने वाले कट्टरपंथी इस्लामिक हमलों पर मौन साधने की कला में सिद्धहस्त एवं पारंगत तमाम कथित धर्मनिरपेक्षों व प्रगतिशीलों को भारत के बहुसंख्यकों में कट्टरता, असहिष्णुता एवं आक्रामक राष्ट्रवाद का उभार अवश्य दिखाई दे जाता है!! पर मजाल क्या कि इनमें से एक की भी ज़ुबान से इस्लामिक कट्टरपंथ के विरोध में एक हर्फ़ या शब्द भी बाहर आए! बौद्धिक दोगलेपन और सैलेक्टिव नैरेटिव के ऐसे उदाहरण पूरी दुनिया में ढूँढें नहीं मिलेंगें।


सवाल यह है कि जिस मुल्क़ में देश की भाषा में संवाद तक कर पाने में असमर्थ एक विदेशी मूल की महिला सोनिया गाँधी सबसे बड़े और पुराने राजनीतिक दल की ताक़तवर अध्यक्षा रही हों, सिख समुदाय से आने वाले (मन) मौनमोहन सिंह दस साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे हों, देश के सार्वकालिक महानतम राष्ट्रपति या व्यक्तित्व के रूप में स्वर्गीय ए.पी.जे अब्दुल कलाम की सर्वस्वीकार्यता रही हो, सर्वाधिक लोकप्रिय फ़िल्मी कलाकार अल्पसंख्यक समुदाय से आते हों, वहाँ ऐसे वक्तव्य पूर्वाग्रह-प्रेरित, मनगढ़ंत एवं निरर्थक ही अधिक प्रतीत होते हैं। ऐसा कौन-सा क्षेत्र है जहाँ अल्पसंख्यक प्रतिभाओं की प्रगति में अवरोध पैदा किया जाता है या उन्हें प्रोत्साहित करने में कोई संकोच दिखाया जाता है? बल्कि भारतीय मन-मिज़ाज को तो ऐसे भी समझा जा सकता है कि वह सामान्य बोल-चाल में भी अपने मुस्लिम सहकर्मियों या परिचितों-अपरिचितों के नाम के साथ ‘साहब’ या भाई संबोधन लगाना मुनासिब समझता है। सवाल यह भी कि इस देश में मुसलमानों से भी बहुत कम की संख्या में रहने वाले अन्य समुदायों से कभी ऐसी कोई बात क्यों नहीं सामने आती? यदि आक्रामक राष्ट्रवाद या हिंदुत्व ख़तरा होता तो उनके लिए भी होना चाहिए था। बल्कि जिन लोगों ने मज़हबी पृथकतावाद के आधार पर मुल्क़ के दो टुकड़े कराए, आज वे हमें राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ा रहे हैं। ढीठता और निर्लज्जता की पराकाष्ठा का ऐसा कोई और दृष्टांत दिया जा सकता है!


ऐसे वक्तव्य इसलिए भी निरर्थक हैं कि अतीत से लेकर वर्तमान तक धार्मिक मतों के आधार पर हिंदू समाज के आक्रामक, अनुदार या विस्तारवादी होने का एक भी दृष्टांत नहीं मिलता। इसके विपरीत इतिहास ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है, जब हिंदू-समाज ने  दुनिया भर के उपेक्षितों-पीड़ितों-विस्थापितों को सहर्ष गले लगाया। पूरी दुनिया से खदेड़े-भगाए गए लोगों को भी हिंदू-समाज ने शरण दिया। वस्तुतः हिंदुत्व का पूरा दर्शन ही सह-अस्तित्ववादिता पर केंद्रित है। जबकि उदार समझा जाने वाला पश्चिमी जगत प्रगति के अपने तमाम दावों के बावजूद अब तक केवल सहिष्णुता तक पहुँच सका है। सहिष्णुता में विवशता परिलक्षित होती है, वहीं सह-अस्तित्ववादिता में सहज स्वीकार्यता का भाव है। हिंदुत्व जड़-चेतन सभी में एक ही विराट सत्ता के पवित्र प्रकाश देखता है। वह प्राणि-मात्र के कल्याण की कामना करता है। वहाँ जय  है तो धर्म की, क्षय है तो अधर्म की। वहाँ संघर्ष के स्थान पर सहयोग और सामंजस्य पर बल दिया जाता है। हिंदुत्व एक राजनीतिक विचार न होकर सांस्कृतिक अवधारणा है। भारतीय उपमहाद्वीप में रहने वाले सभी मत-पंथ के लोगों में उसके न्यूनाधिक प्रभाव देखे जा सकते हैं। चींटीं से लेकर पहाड़, धरती से लेकर आकाश, वनस्पतियों से लेकर समस्त प्राणियों एवं जीव-जंतुओं तक की इसमें चिंता की जाती है। हिंदुत्व के सरोकार विश्व-मानवता और चराचर जगत के सरोकार हैं। जीवन और जगत का जहाँ इतना व्यापक एवं सूक्ष्म चिंतन किया गया हो, वहाँ किसी भिन्न विचार-पंथ के प्रति आक्रामकता एवं अनुदारता कैसे संभव है? ‘एकं सत्य, विप्राः बहुधा वदन्ति’, ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’, ‘नेति-नेति’ ‘यत पिंडे, तत् ब्रह्माण्डे’ ‘सर्वं खल्विदं ब्रह्मम्’ जैसे हिंदुत्व के ध्येय-वाक्यों का सार बस इतना है कि अलग-अलग रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं। और जो कुछ भेद या भिन्नता है, वह दृष्टि-भ्रम एवं अज्ञान का परिणाम है। बल्कि समस्त पार्थक्य-बोध को मिटाकर अणु-रेणु में व्याप्त उस सर्वव्यापी सत्ता के दर्शन और चेतना का उत्तरोत्तर विकास एवं विस्तार ही हिंदुत्व का लक्ष्य है। उसने सदैव विस्तार को जीवन और संकीर्णता को मृत्यु का पर्याय माना है।


बल्कि जिस संघ-परिवार को ध्यान में रखकर ओवैसी और हामिद अंसारी ने यह बयान ज़ारी किया है, उसके प्रमुख एवं शीर्ष पदाधिकारियों ने भी बार-बार हिंदुत्व को एक जीवन-पद्धत्ति के रूप में माने-अपनाए जाने की पैरवी की है। कुछ दिनों पूर्व ही विजयादशमी के अवसर पर अपने उद्बोधन में प.पू. सरसंघचालक मोहन भागवत जी ने कहा था- ”हिन्दू राष्ट्र कोई राजनीतिक संकल्पना नहीं है। भारत में अथवा सारे विश्व में कोई भी व्यक्ति जो अपने को भारत माता की संतान मानता है, जो भारत की संस्कृति का सम्मान करता है, जो अपने भारतीय पूर्वजों का स्मरण करता है, वह हमारी दृष्टि में हिंदू है। हमारा मानना है कि जो अपने को हिन्दू नहीं कहता, कोई और नाम कहता है, वह भी हिंदू है।” क्या इस परिभाषा में किसी के लिए कोई आक्रामकता, अनुदारता या अस्वीकार्यता है?

 
जहाँ तक ‘आक्रामक राष्ट्रवाद’ की बात है तो ध्यान रहे कि हिंदुत्व से निःसृत राष्ट्रवाद पश्चिम की तरह का एकांगी और प्रभुत्ववादी राष्ट्रवाद नहीं है। वह यूरोप के नेशन स्टेट की तरह विस्तार की कामना और प्रभुत्व की भावना से प्रेरित-संचालित नहीं है। वह सत्ता (स्टेट) पर आधारित न होकर लोक (पीपुल) और जीवन-दृष्टि पर आधारित है। उसमें सर्वाधिकार की प्रवृत्ति नहीं, स्वत्व-बोध की जागृत्ति है। यूरोपीय राष्ट्रवाद ने दुनिया को दो-दो विश्वयुद्ध दिए; उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और साम्यवाद जैसी एकांगी-विखंडनवादी अवधारणाएँ दीं, पर भारतीय राष्ट्रीय विचार विश्व-दृष्टि रखता आया है। वह समग्रता या ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा में विश्वास रखता है। वह अंधी व अंतहीन प्रतिस्पर्द्धा नहीं, संवाद, सहयोग और सामंजस्य पर बल देता है। वह संकीर्ण, आक्रामक और विस्तारवादी नहीं, अपितु सर्वसमावेशी है। वह राष्ट्रवाद यूरोप की तरह रक्त की शुद्धता पर बल नहीं देता। उसमें श्रेष्ठता का दंभ नहीं, जीवन-जगत-प्रकृति-मातृभू के प्रति कृतज्ञता की भावना है। वह समन्वयवादी है। उसका मानना है कि मज़हब बदल लेने से पुरखे, परंपरा और संस्कृति नहीं बदलती। वह सभी मत-पंथ-प्रांत, भाषा-भाषियों को साथ लेकर चलता है। वह एकरूपता नहीं, विविधता का पोषक है। वह एकरस नहीं, समरस व संतुलित जीवन-दृष्टि में विश्वास रखता है। उसमें अस्वीकार और आरोपण नहीं, स्वीकार और नवीन रोपण का भाव निहित है। बल्कि राष्ट्र के साथ वाद जैसा शब्द जोड़ना ही पश्चिमी चलन है। यूरोपीय राष्ट्रवाद का प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर को माना जाता है, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली थी। उस समय यह सिद्धान्त दिया गया कि राष्ट्र केवल समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। उसे आधार बनाकर ही कुछ लोग हिंदू संस्कृति और भारत की मूल प्रकृति को जाने-समझे बिना उग्र या आक्रामक राष्ट्रवाद का रोना रोते रहते हैं।


वस्तुतः भारत के मर्म और मन को पहचान पाने में असमर्थ विचारधाराओं ने ही सार्वजनिक विमर्श में हिंदू, हिंदुत्व, राष्ट्रीय, राष्ट्रीयत्व जैसे  विचारों एवं शब्दों को नितांत वर्जित और अस्पृश्य माना है। जो थोपने में यक़ीन करते हैं, जिन्हें सर्वाधिकार चाहिए, जो पूरी दुनिया को हरे रंग में रंगा देखना चाहते हैं, उन्हें ही इन शब्दों से परहेज़ है। जो एक पंथ, एक ग्रंथ, एक पैग़ंबर के लिए बड़े-बूढ़े-बच्चे-स्त्री-पुरुष किसी का भी गला रेतने में संकोच नहीं करते, उन्हें ही इन शब्दों से आपत्ति है। ताज़्जुब है कि मज़हब के लिए जो दिन-रात मरने-मारने के ज़ुनूनी नारे गुँजाते रहते हैं, वे हमें शांति का पाठ पढ़ा रहे हैं। हमें धर्मनिरपेक्षता, उदारता व शांति का पाठ पढ़ाने से पूर्व उन्हें अपने गिरेबाँ में एक बार अवश्य झाँकना चाहिए।

 
जो चिंतक-विचारक-राजनेता या सर्वसाधारण लोग भारत को भारत की दृष्टि से देखते, समझते और जानते रहे हैं उन्हें न तो इन शब्दों से कोई आपत्ति है, न इनके कथित उभार से। बल्कि हिंदू-दर्शन, हिंदू-चिंतन, हिंदू जीवन सबके लिए आश्वस्तकारी है। वहाँ सब प्रकार की कट्टरता और आक्रामकता का पूर्णतः निषेध है। वहाँ सामूहिक मतों-मान्यताओं-विश्वासों के साथ-साथ व्यक्ति-स्वातंत्र्य एवं  सर्वथा भिन्न-मौलिक-अनुभूत सत्य के लिए भी पर्याप्त स्थान है।

प्रणय कुमार

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