“लाल सलाम” यह नारा कम्यूनिस्टों के रक्तरंजित चरित्र को अभिव्यक्त करता है। इसी लाल सलाम की अभिव्यक्ति लेनिन, स्टालिन से लेकर माओ के Cultural Revolution में देखने को मिलती है, इस लाल सलाम की अभिव्यक्ति क्यूबा, वियतनाम, चीन, उत्तरी कोरिया, अफ़्रीका, अफ़ग़ानिस्तान, लैटिन अमेरिका, वेनेज़ुएला, कोलम्बिया, लिथुआनिया, पोलैंड, रूस आदि देशों में जहाँ भी लाल सलाम नामक कैंसर पनपा, वहाँ के नागरिकों ने साक्षात देखी है। 1917 -2017 तक के सौ वर्षों के सफ़र में लाल सलाम के नाम पर लगभग सौ मिलियन लोगों को मौत के घाट उतारा है। भारत की यदि बात करें तो केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि क्षेत्रों में लाल सलाम के नाम पर किस प्रकार मासूम लोगों की हत्या की जाती है, आज सर्वविदित है। अकेले पश्चिम बंगाल की बात करें तो 1977-2009 तक पश्चिम बंगाल में कम्यूनिस्टों ने लगभग 55,000 वैचारिक विरोधियों को मौत के घाट उतारा है। 1997 में स्वयं बुद्धदेव भट्टाचार्य ने विधानसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए यह बात स्वीकार की थी कि 1977-1996 तक राज्य में 28000 राजनैतिक हत्याएँ हुई हैं। केरल में आए दिन राष्ट्रीय विचारों को मानने वाले लोगों को लाल सलाम के नाम पर प्रताड़ना और ज़रूरत पड़े तो हत्या का भी शिकार बनना पड़ता है। केरल में लाल सलाम का कन्नूर माडल वैचारिक विरोधियों की हत्या के लिए कम्यूनिस्टों के लिए आदर्श माना जाता है। मीडिया में चिल्ला–चिल्लाकर अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य की दुहाई देने वाले कम्यूनिस्ट स्वयं अभिव्यक्ति के कैसे दमनकारी हैं यह केरल में पिनाराई विजयन सरकार द्वारा केरल पुलिस अधिनियमन संशोधन अध्यादेश लागू करने के नाकाम षड्यंत्र से समझा जा सकता है। बेचारा जैक मा अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रयोग की क़ीमत आज कम्यूनिस्ट चीन में चुका रहा है। बात स्पष्ट है जहाँ भी कम्यूनिस्ट हावी हुए हैं उन्होंने अन्य किसी विचार को पनपने का मौक़ा ही नही दिया। लाल सलाम माने वैचारिक विरोधी की हत्या।
JNU में इसी लाल सलाम ने विगत कुछ दशकों से अपने वैचारिक विरोधियों को समाप्त करने का कार्य किया है। समाप्ति से यहाँ अभिप्राय उसके अकादमिक एवं स्वतंत्र वैचारिक जीवन जीने की समाप्ति से है। बहुधा यह लाल सलाम वैचारिक विरोधियों के प्रति हिंसा के रूप में भी देखने को मिला है। 2018 में जब कम्यूनिस्ट JNUSU में चुनकर आए तो इसी लाल सलाम का नारा लगाते हुए उन्होंने पेरियार छात्रावास पर सुबह 5 बजे के क़रीब हमला कर दिया। ऐसे समय जब सभी छात्र सो रहे थे तो पेरियार के छात्र सुशील कुमार, चंद्रवीर, हिमांशु आदि को उनके कमरे में घुसकर लाठी–डंडों से मारते हुए कम्यूनिस्ट यही लाल सलाम चिल्ला रहे थे। इन छात्रों की ग़लती बस यह थी कि इन्होंने लाल सलाम से वैचारिक असहमति प्रकट की थी और इनके दरवाज़े पर स्वामी विवेकानंद का चित्र लगा हुआ था।
JNU में घटित आज से ठीक एक वर्ष पूर्व 5 जनवरी की घटना आज भी लाल सलाम के हिंसात्मक चेहरे को प्रकट कर लाल सलाम के उस विद्रूप चेहरे से आम छात्र को डरने के लिए मजबूर कर देती है। आज भी पेरियार छात्रावास एवं साबरमती छात्रावास के छात्र–छात्राएँ उस दिन लाल सलाम के विद्रूप चेहरे को याद करते हुए सिहर जाते हैं। ऐसा काला दिन जिसकी पुनरावृत्ति शायद ही कोई JNU का छात्र अपने जीवन में चाहता हो। 5 जनवरी का ही वह दिन था जब कम्यूनिस्ट–जिहादी गठजोड़ ने पहले पेरियार छात्रावास और फिर उसके बाद साबरमती छात्रावास पर हमला कर दिया। यह हमला सुनियोजित था क्योंकि इसका नेतृत्व स्वयं JNUSU प्रेज़िडेंट कर रही थी। पेरियार छात्रावास में हमले के दौरान JNUSU प्रेज़िडेंट द्वारा हमलावर भीड़ के नेतृत्व का वह फ़ुटेज आज भी डरावना लगता है। दोनों छात्रावासों को असीमित नुक़सान पँहुचाया गया। छात्रावास में जिस भी दरवाज़े पर भारतमाता अथवा स्वामी विवेकानंद का चित्र मिला उसी में इस भीड़ ने लाल सलाम का नारा लगाते हुए ज़बरन घुसकर छात्र को लाठी–रौड़ से लहूलुहान करने का काम किया। राष्ट्रीय विचारों को मानने वाला जो भी छात्र सड़क पर, ढ़ाबे पर, स्कूल में अथवा छात्रावास में मिला, उसे इस कम्यूनिस्ट भीड़ ने बेतहाशा लाठी–रौड़ से पीटने में कोई गुरेज़ नही किया। उद्देश्य स्पष्ट था वैचारिक विरोधियों का निर्ममतापूर्वक दमन। उस दिन पूरे JNU में “लाल सलाम” ज़ोर–ज़ोर से कर्कश अट्टहास कर रहा था क्योंकि उसके समक्ष वैचारिक विरोधियों को कुचला जा रहा था, बेरहमी से मारा जा रहा था, दौड़ाया जा रहा था और सबसे अधिक डरावना उनको JNU छोड़ने पर मजबूर किया जा रहा था। आज उस दुर्दिन को एक वर्ष हो गया किंतु उसके ज़ख़्म आज भी ताज़ा हैं।
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