-बलबीर पुंज
सरकार और किसान संगठनों के बीच 11वें दौर का संवाद होगा। क्या दोनों पक्ष किसी समझौते पर पहुंचेंगे? इससे पहले बुधवार (20 जनवरी) की बातचीत तो विफल हो गई, परंतु समझौते के बीज अंकुरित होते दिखाई दिए। जहां आंदोलनकारी किसान तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े है, वही सरकार किसी भी कीमत पर आंदोलनकारी किसानों पर बलप्रयोग करने से बच रही है। प्रारंभ में सरकार इन कानूनों के माध्यम से कृषि क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन लाने हेतु कटिबद्ध दिख रही थी। किंतु लोकतंत्र में दृढ़-निश्चयी अल्पसंख्यक वर्ग कैसे एक अच्छी पहल को अवरुद्ध कर सकता है- कृषि कानून संबंधित घटनाक्रम इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

सर्वप्रथम, यह नए कृषि कानून अकस्मात नहीं आए। पिछले दो दशकों से कृषि क्षेत्र की विकासहीनता और उसके शिकार किसानों द्वारा आत्महत्याओं से सभी राजनीतिक दल चिंतित है और उसमें सुधार को प्राथमिकता देते रहे है। इसी पृष्ठभूमि में सत्तारुढ़ भाजपा ने 2019 लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में 2022-23 तक किसान आमदनी को दोगुना करने का वादा किया था। इसके लिए सरकार जहां सरकार 23 कृषि उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) दिया, तो पीएम-किसान योजना के माध्यम से सात किस्तों में 1.26 लाख करोड़ रुपये भी 11.5 करोड़ किसानों के खातों में सीधा पहुंचाया। फिर भी हजारों किसान पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली सीमा पर धरना दे रहे है। इस स्थिति कारण ढूंढने हेतु हमें थोड़ा पीछे जाना होगा।

भारत 1960 दशक में भूखमरी के कगार पर था। न ही हम अपनी जरुरत के अनुरूप अनाज पैदा कर पा रहे थे और न ही हमारे पास अंतरराष्ट्रीय बाजार से खरीदने हेतु विदेशी मुद्रा थी। तब देश घटिया गुणवत्ता के अमेरिकी पीएल-480 गेहूं पर निर्भर था। इस विकट स्थिति को आम-बोलचाल की भाषा में Ship to Mouth कहा जाता था। फिर रसायनिक खादों के दौर, नए बीजों, किसानों के अथक परिश्रम और सरकारी नीतियों से भारतीय कृषि की सूरत बदल गई। उसी कालखंड में गेहूं-धान पर भी पहली बार एमएसपी लागू हुआ था।

पंजाब-हरियाणा की भूमि उर्वरक है, तो किसान मेहनती। स्वतंत्र भारत को भूख से स्वतंत्रता दिलाने में इन दोनों प्रदेशों का योगदान अतुलनीय है। अपने परिश्रमी स्वभाव के कारण ही पंजाब 2000 के दशक के प्रारंभ तक अधिकांश मापदंडों पर देश में शीर्ष पर बना रहा। परंतु 2018-19 आते-आते वह 13वें स्थान पर खिसक गया। इसी गिरावट और वर्तमान किसान आंदोलन में कहीं न कहीं गहरा संबंध है।

पंजाब सहित शेष भारत में किसान संकट का एक बड़ा कारण- भूमि का असमान वितरण भी है। देश में 2.2 प्रतिशत बड़े किसानों (चार हेक्टेयर भूमि या अधिक के स्वामी) के पास देश की कुल कृषि-भूमि का 24.6 प्रतिशत हिस्सा है। पंजाब-हरियाणा में यह विषमता और मुखर है। वहां 36.3 प्रतिशत कृषि-भूमि पर 3.7 प्रतिशत किसानों का स्वामित्व है। वही पंजाब की कुल जनसंख्या में 32 प्रतिशत दलितों के पास 3 प्रतिशत कृषि-भूमि है।

पंजाब की 99 प्रतिशत कृषि-भूमि सिंचाई संसाधनों से युक्त है। राष्ट्रीय स्तर पर यह सुविधा 50 प्रतिशत, तो महाराष्ट्र में 20 प्रतिशत है। स्वाभाविक है कि पंजाब में कृषि-उत्पादन लागत कम है। यहां राज्य सरकार किसानों को प्रतिवर्ष 8,275 करोड़ रुपये की मुफ्त बिजली, तो केंद्र सरकार खाद पर 5 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है। पंजाब में किसानों की संख्या 10 लाख से अधिक है, जो भारत के कुल 14.6 करोड़ किसानों का एक छोटा अंश है। इसका अर्थ यह हुआ कि पंजाब के प्रत्येक किसान को औसतन प्रतिवर्ष 1.28 लाख रुपये की सब्सिडी मिलती है। इसके अतिरिक्त, किसानों को सस्ती दरों पर ऋण और प्रधानमंत्री किसान योजना से समय-समय पर अनुदान भी मिलता है।

पंजाब में औसत कृषि भू-धारण 3.62 हेक्टेयर है, जो अखिल भारतीय स्तर पर 1.08 हेक्टेयर, तो बिहार में मात्र 0.4 हेक्टेयर है। पंजाब-हरियाणा में 1,97,000 ऐसे किसान है, जिनके पास औसतन 6.3 हेक्टेयर भूमि है। इसका अर्थ यह हुआ कि कृषि नीति का सर्वाधिक लाभ इन्हीं किसानों को मिल रहा है- क्योंकि इनके पास सरकार को एमएसपी दर पर बेचने लायक सर्वाधिक कृषि उत्पाद है। राष्ट्रीय स्तर पर बात करें, तो एमएसपी का लाभ उठाने वाले किसानों की संख्या देश में मात्र 6 प्रतिशत है। इन किसानों में से अधिकांश आढ़त का काम करते है, जो छोटे-मझोले किसानों से उनकी फसल अन्य सुविधाओं के साथ सस्ती दरों पर खरीदकर सरकार को एमएसपी पर बेच देते है। इनमें बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी है, जो आढ़ती और किसान- दोनों रूप में सक्रिय है। यह लोग अपने एक खाते से दूसरे खाते में आमदनी को दिखाकर आयकर में छूट प्राप्त करते है। इस विकृति का परिणाम यह हुआ कि कृषि क्षेत्र में फसलों का ढांचा असंतुलित हो गया, भूजल का स्तर गिर गया, जैव-विविधता क्षतिग्रस्त हुई और रसायनिक खादों से भूमि की उर्वरता नष्ट हो गई।

आज सरकार के पास जितना अन्न भंडार है, वह आवश्यकता से लगभग तीन गुना अधिक है। गेहूं-धान के भंडारण हेतु व्यवस्था सीमित होने से या तो अनाज सड़ जाता है या भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है या फिर चूहों का भोजन बन जाता है। इनका निर्यात इसलिए संभव नहीं है, क्योंकि एमएसपी की दर से खरीदे हुए अन्न का मूल्य अंतरराष्ट्रीय कीमतों से कहीं अधिक होता है। प्रतिस्पर्धा के युग में कृषि शायद ही लाभदायक व्यापार है। अमेरिका, जापान, चीन आदि संपन्न देशों की सरकार कृषि पर अरबों डॉलर की सब्सिडी देती है। फिर भी वहां के किसानों की स्थिति सामान्य शहरवासियों से बेहतर नहीं। अमेरिका के ग्रामीण क्षेत्रों में शहरों की तुलना में 45 प्रतिशत अधिक आत्महत्याएं होती है।

यदि भारत में किसानों को संकट से बाहर निकालना है, तो पुरानी व्यवस्था को बदलना होगा। कालबाह्य नीतियां नए परिणाम नहीं दे सकती। दिल्ली सीमा पर धरना दे रहे लोग निसंदेह किसान है। परंतु वे कृषकों में बहुत छोटे नव-धनाढ्य वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे है। यह संघर्ष वास्तव में, यथास्थितिवाद के लाभार्थियों और समयोचित परिवर्तन के बीच है।

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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