बस थोड़ा सा पीछे जाकर एक बार इस तस्वीर में , दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री की भाव भंगिमा रंग रूप को देखिये। नहीं नहीं हम कोई भी टीका टिप्पणी अरविन्द केजरीवाल के ऊपर नहीं करने जा रहे हैं न ही राजनीति के शुरूआती दिनों में खाँस खाँस कर उखड़ी साँस में बोलने बात करने को लेकर कुछ भी कहने जा रहे हैं। ये सिर्फ एक प्रतीकात्मक बात कही जा रही है कि , आप खुद अंदाज़ा लगाइये कि , आज से सिर्फ कुछ सालों पहले – जनलोकपाल आंदोलन के नाम पर , ईमानदार और अलग राजनीति करने के नाम पर , राजनीति में शुचिता लाने के नाम पर और जाने ऐसे कितने ही ढकोसलों , नारों, वादों ,बातों के सहारे पहले पूरी दिल्ली और फिर भारत को बरगलाने वाला एक व्यक्ति किस कदर सत्ता की मलाई चाटते ही आत्म केंद्रित होकर रह जाता है ये इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

ये वही समय था जब , जंतर मंतर पर -समाज सेवी अन्ना हज़ारे को बहला फुसला कर – जनलोकपाल आंदोलन का मुखौटा बना कर – पूर्व न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े , पूर्व नौकरशाह किरण बेदी , कवि कुमार विशवास , योगेंद्र यादव , अधिवक्ता प्रशांत भूषण समेत एक पूरी पलटन , सड़क से लेकर सोशल मीडिया तक पर लगातार पीपली लाईव के सहारे देश और दुनिया को – एक नया लॉलीपोप -जनलोकपाल कानून -चुसवाने में लग गए थे।

वर्षों से कांग्रेस और इनके जैसे ही स्वार्थी राजनैतिक दलों की नीति और नीयत से त्रस्त पस्त जनता ने इन सबको -जिन्होंने अपना नामकरण सिविल सोसायटी रखा था – हाथोंहाथ लेकर अपना तारणहार मान लिया और सबको कुछ परिवर्तन , कुछ नया , कुछ अलग की उम्मीद दिखी /जगी। इसमें इतने क्षेत्रों से इतने नामचीन लोगों के जुड़े होने के कारण यह विश्वास और भी अधिक था। यही वजह रही कि राजधानी दिल्ली में एक नहीं दो दो बार एक बिलकुल नए स्थापित राजनैतिक दल को लोगों ने अवसर दिया।

बस यही वो समय था जब -अरविन्द केजरीवाल ने -आम आदमी पार्टी -यानि अरविन्द केजरीवाल -और सिर्फ अरविन्द केजरीवाल- ही आम आदमी पार्टी वाली नीति और नियम , बना लिया। तुरत फुरत में , लोकसभा चुनावों में देश भर में अपने प्रत्याशी खड़े करने वाले केजरीवाल की राजनैतिक महत्वाकांक्षा इतनी तीव्र हो उठी कि सीधे नरेंद्र मोदी को हरा कर देश का प्रधानमंत्री बनने के सपने ने उन्हें बनारस से चुनाव लड़ने को बाध्य कर दिया। नतीजा पूरे भारत में जमानत ज़ब्त।

जैसे जैसे अरविन्द अपना कद बड़ा करते गए , सारे अन्य साथी , अन्ना हज़ारे , किरन बेदी , जस्टिस हेगड़े , योगेंद्र यादव , कुमार विश्वास , कपिल मिश्रा , आशुतोष आदि सब न सिर्फ छोटे होते चले गए बल्कि धीरे धीरे सबको हाशिये पर धकेल दिया गया या वे अपनी बची खुची इज्जत को तार तार होने से बचाने के लिए खुद ही अलग होते चले गए।

अब चारों तरफ या तो सिर्फ अरविन्द केजरीवाल ही नज़र आ रहे थे या वे जिनके चहरे और मुख में सिर्फ केजरीवाल ही थे। रेडियो , टेलीविजन , अखबार , ट्विट्टर ,फेसबुक , मेट्रो , ऑटो से लेकर दीवारों और खम्बों तक पर एक ही चेहरा चमकाया जाने लगा। कहाँ गई वो शुचिता वाली राजनीति , कहाँ गए खुद को अलग राजनीति करने कहने वाली नीतियाँ , पार्टी का संविधान , प्रस्ताव -सब कुछ सिर्फ और सिर्फ केजरीवाल होकर रह गया।

आखरिकार साथ के मित्र बंधु और जिन्होंने एक साथ मिल बैठ कर इस संघर्ष को शुरू किया था उन्होंने ही केजरीवाल की असलियत को पहचान कर लोगों के सामने रखना शुरू कर दिया। कवि कुमार विश्वास ने तो सार्वजनिक रूप से कई बार अरविन्द केजरीवाल को -आत्ममुग्ध बौना व्यक्ति -तक कह दिया। और अब जबकि अरविन्द केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी को ठीक उसी तरह से अपनी मिलकियत बना लिया है जैसे कि कांग्रेस में गाँधी परिवार , समाजवादी पार्टी में मुलायम परिवार , बसपा में मायावती ,राजद में लालू आदि तमाम लोगों ने अपनी अपनी पार्टियों को अपनी बपौती बना कर रखा है।

अब केजरीवाल जब तक तक चाहें वे अपनी आम आदमी पार्टी को -अरविन्द केजरीवाल पार्टी -बना कर -आत्मुग्धता में दिनों दिन इज़ाफ़ा करते हुए रोज़ सुबह अपनी ही शक्ल देखकर इतराते रह सकते हैं। ईमानदारी , अलग राजनीति , लोगों का भरोसा , स्वच्छ और सवस्थ राजनीति जैसी बातें वे अपने प्रचार गाड़ी से करते रहें और राजधानी दिल्ली की सारी व्यवस्था का बेड़ा गर्क करते रहें।

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