साम्यवाद ने श्रमिकों के असंतोष को आधार बनाकर एक अनदेखे शत्रु की कल्पना की जिसे अधिनायक वादी व्यवस्था , पूंजीवादी व्यवस्था और सामंतशाही व्यवस्था का नाम देकर एक छद्म शत्रु तैयार किया गया। इसमें अधिनायकवाद व्यवस्था के नाम पर सरकार की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह उठाकर देश की युवा शक्ति को जाग्रत भी किया और बरगलाया भी, यह कहकर कि नौकरियां उत्पादित करना या बनाना सरकार का काम है। पूँजीवाद के विरुद्ध श्रमिक वर्ग में यह असंतोष पैदा किया गया कि पूंजीवाद श्रमिकों का दोहन करता है शोषण करता है और खुद मुनाफा कमाता है। यह बात थोड़ी सच भी है क्योंकि जहां कहीं भी साम्यवाद का प्रभाव नगण्य है , श्रमिकों की हालत बहुत बुरी है । यह वामपंथ का ही प्रभाव है कि पूरे २४ घंटे में आठ आठ घंटों के ३ भाग बनाकर श्रमिकों को काम, आराम और मनोरंजन का समय उपलब्ध कराया गया। वैसे इसके नकारात्मक प्रभाव भी हुए और औद्योगिक प्रगति सिमटकर उन क्षेत्रों में चली गई जहां साम्यवाद का प्रभाव कम है और जहां साम्यवाद का प्रभाव ज्यादा था वहां ८ घंटे से अधिक श्रम करने वाला मजदूर वास्तव में बेरोजगारी की स्थिति में १६ से १८ घंटे तक रेहड़ी- पटरी पर या तो सामान बेचने लगा या रिक्शा चलाने लगा या ऐसा ही कोई कम मानदेय वाला काम करने लगा। बिहार के दरभंगा जनपद के अंदर दरभंगा के राजा के द्वारा स्थापित कई उल्लेखनीय उद्योगों को वामपंथ की नजर लगी और एक संपन्न जनपद आज सिर्फ मजदूर उत्पादक व निर्यातक बनकर रह गया और उन फैक्ट्रियों के मालिक उन्हीं कबाड़ बनी फैक्ट्रियों का जमीन बेचकर थोड़े और अमीर हो गये।
और सामन्त शाही व्यवस्था के खिलाफ साम्यवाद ने अछूत दलित वाला भाव जगा कर सामाजिक समरसता को तोड़ा।
इस आलेख में सरकार के रोजगार उत्पादन क्षमता को केंद्र बनाकर उत्पन्न किए गए असंतोष के विषय में लेखन रहेगा।
विश्व की कोई भी व्यवस्था हो, शिक्षित और प्रशिक्षित मानव संसाधन की तुलना में समानुपातिक रूप से नौकरियों का उत्पादन नहीं कर सकती है। आमतौर पर सरकारी संस्थाएं अपने काम के लायक श्रम शक्ति के चयन के लिए पासिंग द पार्सल जैसा एक कंपिटीशन आयोजित करती है और लगभग म्यूजिक चेयर के हिसाब से लाखों में से लगभग हजार लोग चयनित होकर सरकारी नौकरी पाते हैं और बाकी खुद को कोसते हुए उसी साम्यवादी लहर के साथ खड़े हो जाते हैं। यूपीएससी के द्वारा आयोजित परीक्षाएं लाखों के दिलों में ज्ञान द्वारा वर्चस्व प्राप्त करने की ललक जगा कर सिर्फ कुछ सौ नौकरियां प्रदान कर असंतुष्टों की एक बड़ी फौज छोड़ जाती हैं। प्रबंधन, वकालत, चिकित्सा अभियांत्रिकी आदि के क्षेत्रों में पढ़ने वाले युवा निजी क्षेत्रों में अच्छी नौकरियों पर काबिज हो जाते हैं पर इसके लिए उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का मजबूत होना बहुत जरूरी होता है मतलब जो आर्थिक रूप से संपन्न होते हैं वही निजी क्षेत्रों में भी नौकरियां पाने के योग्य बन पाते हैं परंतु हजारों लाखों की संख्या में प्रतिवर्ष कॉलेजों से तैयार होने वाले ग्रैजुएट्स और पोस्टग्रेजुएट्स आमतौर पर इन निजी क्षेत्रों की नौकरियों के लिए या तो लेस क्वालिफाइड होते हैं या सर्वथा अयोग्य होते हैं और किसी तरह एडजस्ट करके अपनी नौकरी पाने की कोशिश करते हैं।
अपनी पढ़ाई के द्वारा योग्य बनने के बाद आजीविका पाने की जो घुट्टी मैकाले के शिक्षा दर्शन ने लोगों को पिलाई उसका दुष्प्रभाव पहला तो यह हुआ कि येन केन प्रकारेण डिग्री प्राप्त करना युवाओं की पहली पसंद बनी ताकि वे नौकरी पाने की कसौटी का पहला चरण पार कर लें लेकिन योग्यता के मामले में थोड़े पिछड़ गए और यह तो ज्ञात है कि दस पदों के लिए हजार या लाख अभ्यर्थियों से आवेदन मांगे जाते हैं। जिसमें दस या बीस सर्वश्रेष्ठ हीं चयनित होते हैं बाकी जो असंतुष्ट रह जाते हैं वे साम्यवाद की जंग लगी पहियों के लिए ग्रीज और मोबिल का काम करते हैं।

और साम्यवाद का असंतोष चक्र चल पड़ता है। यही कारण है कि बिहार में ट्रेन जलाई गई और प्रयागराज में प्रदर्शनकारी छात्रों पर सत्ता द्वारा बल प्रयोग हुआ। चाहे छात्रों का कुछ भला हुआ हो या नहीं पर छात्रों के रक्त से सिंचित होकर वामपंथ की बेल कुछ और रक्तिम हो गई ।
चाणक्य ने भी अपने श्लोकों में यह बताया है कि बराबरी वालों में विवाह करना चाहिए और नौकरी करनी पड़े तो सरकारी नौकरी करनी चाहिए।
सत्ता का काम अपने शासित राज्य में एक निरापद वातावरण स्थापित करना है जिसमें लोग अपने योग्यता अनुसार कुछ ऐसा काम कर सकें जो उनका और उनके परिवार जनों का भरण पोषण कर सके। और आप माने या ना माने सनातन की सामाजिक व्यवस्था है इस प्रकार का रोजगार देने में सक्षम थी जिसको नवीन शिक्षा नीति ने तिरस्कृत किया और वामपंथ ने उस तिरस्कार को बौद्धिक सामाजिक और आर्थिक मंचों पर और महिमामंडित किया।
अब यह स्थिति है कि अनुभव के बिना नौकरी नहीं मिलती और नौकरी के बिना युवाओं को अनुभव नहीं मिल सकता। यह ऐसा दुष्चक्र है जिसमें भारतीय युवा या कहें कि पूरे विश्व की युवा पीढ़ी इस तरह फंस चुकी है कि हर कालखंड में और हर संप्रभु राष्ट्र में युवा शक्ति या तो पूंजीवाद के कहर के नीचे अपनी आजीविका के खातिर कुछ ले जाने के लिए अभिशप्त हैं या वामपंथ की खुराक बनने के लिए तैयार है और यही वजह है कि युवा शक्ति अपने कौशल और ज्ञान से उत्फुल्ल होकर भी स्व नियोजन के बदले सरकार की तरफ भिक्षुक की भांति तृषित नैनों से देख रहा है और इस परमुखापेक्षी स्थिति में ठोकर खाकर लाल हो रहा है कभी गुस्से से तो कभी साम्यवाद के प्रभाव से।

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.