विगत अतीत में झांकता हूँ तो ये सोच कर हँसी आती है कि जिस “छद्म सेकुलरिज्म” का आज मैं विरोध करते नहीं थकता, अपनी किशोरावस्था में मैं स्वयं उसी नकली धर्मनिरपेक्षता से ओत-पोत था। बचपन में ही दिमाग में हिन्दू मुस्लिम एकता की शिक्षा ठूंस-ठूंस कर भर दी गयी थी। कई मुस्लिम मित्र थे जिनके लिए मैं जान देने हेतु तत्पर रहता था। मेरी यही मानसिकता मेरी नौकरी के शुरुआती दिनों तक रही। फिर सोशल मीडिया का उदय हुआ और सब बदल गया। दुनिया सोशल मीडिया से जुड़ रही थी और मैं भी इससे अछूता नहीं रह सका। किन्तु उस समय ये पता नहीं था कि आने वाले समय में यही सोशल मीडिया क्या करने वाला था।

सोशल मीडिया से जुड़ने के बाद जो सबसे पहला बदलाव मुझे पता चला वो ये, कि अब तक जिन्हे मैं अपना घनिष्ठ मित्र समझता था, वो वैचारिक तौर पर मुझसे कितने अलग थे। हैरान था, परेशान था। समझ नहीं आ रहा था कि अचानक ऐसा क्या हो गया कि जिन मित्रों के साथ सदैव रहा, आज उनसे ही अनबन होती जा रही है? समय बीतता रहा और धीरे-धीरे “गंगा-जामुनी” तहजीब परत दर परत उतरती रही। और जब वो नशा पूरी तरह से उतरा तो समझ आया कि आज तक जिस विचार का आवरण ओढ़े मैं जी रहा था, वो वास्तव में कितनी बड़ी मरीचिका थी। इसका पूरा श्रेय सोशल मीडिया को जाता है कि कल तक जिस “सत्य” को न्यूज़ चैनलों द्वारा बड़ी सफाई से छिपा लिया जाता था, आज कई माध्यमों से हम तक पहुँच ही जाती है।

ये पृष्ठभूमि देनी इसीलिए आवश्यक थी क्यूंकि कल ही मैंने कुछ ऐसा देखा जिसने ये सिद्ध कर दिया कि मुस्लिम तबका चाहे कोई भी हो, खून सबका एक ही होता है। मुझे विश्वास है कि आप सभी ने “प्रसिद्ध” शायर मुनव्वर राणा का वो बयान देखा होगा जिसमें वो बड़े गर्व से फ़्रांस में हुए इस्लामिक आक्रमण का समर्थन करता दिख रहा है। खैर, मुसलमानों द्वारा मुसलमानों का समर्थन किया जाना इस देश में आम है किन्तु एक शायर, जिसका काम ही शब्दों का उचित प्रयोग करना होता है, के मुँह से “हम तो मार देंगे…”, ये शब्द साफ-साफ सुनना पीड़ादायक था। उससे भी दुखद ये है कि जिस अभिव्यक्ति की आजादी का ये विरोध कर के ये हत्या जैसे जघन्य अपराध को सही ठहरा रहे हैं और मरने मारने को तैयार हैं, अपने ही हमकौम एम एफ हुसैन द्वारा बनाई गयी हिन्दू देवी-देवताओं की भद्दी तस्वीरों के विरुद्ध इनके मुँह से एक बोल नहीं निकला।

ऐसा नहीं है कि मुनव्वर राणा वो पहला व्यक्ति है जिसका सेक्युलरवाद भरी सभा में उधड़ा है। जावेद अख्तर, शबाना आजमी, जावेद जाफरी, नसीरुद्दीन शाह और ना जाने कितने डरे हुए मुसलमान अपने धर्म के प्रति अपनी वफ़ादारी को भरे बाजार दिखा और निभा चुके हैं। किन्तु “गज़वा ए हिन्द” का ऐसा सपाट लहजा जैसा मुनव्वर राणा ने कल दिखाया है, वैसा किसी कथित “बुद्धिजीवी” की ओर से अब तक तो सुनने को नहीं मिला था। तो इसे दुखद कहें या सुखद? मेरे विचार से तो सुखद, वो इसीलिए क्यूंकि इस देश और विशेषकर हिन्दुओं के प्रति जो इनके मन में जहर भरा है, वो देर से ही सही, अब साफ-साफ पटल पर दिख रहा है। ये मेरे जैसे उन उन सभी व्यक्तियों के मन से वो कीचड साफ करेगा जो गंगा-जामुनी तहजीब में नहाये हुए हैं।

जिस देश ने राणा जैसे व्यक्ति को पनाह दी, इज्जत दी, पैसा दिया, रुतबा दिया, प्रसिद्धि दी, उसी देश और देशवासियों को परे कर भरी सभा में केवल और केवल इस्लाम के प्रति अपनी वफ़ादारी दिखाकर उसने ये सिद्ध कर दिया कि हम चाहें अपनी खाल उतारकर भी इनके सम्मान में बिछा दें, बदले में ये केवल हमारे उन घावों पर नमक ही लगा सकते हैं। मुझे पता नहीं कि आपमें से कितनों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि राणा जैसों का इस्लामिक प्रेम उभर कर तब ही सामने आता है जब वे इस देश से सब कुछ प्राप्त कर घर पर बैठ चुके होते हैं। क्यों नहीं इनका ये जहर उस समय सामने आता है जब ये अपने प्रसिद्धि के चरम पर होते हैं और इनपर नाम और पैसों की बारिश हो रही होती है? ये कितने पक्के नमाजी हैं ये इन जाहिलों को तब ही समझ में क्यों आता है जब ये बेरोजगार हो चुके होते हैं? इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

अंत में बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि ना राणा पहला है और ना ही अंतिम। मजमा लगा हुआ है, अब आप तो बस देखते रहिये कि इसमें से और कितने “डरे हुए” शांतिदूत निकलते हैं। वैसे मुनव्वर राणा से हम हिन्दुओं को ये सीखने की आवश्यकता तो है कि जात-पात में बिखरे अपने महान हिन्दू धर्म को हम कस कर पकडे रहें। अन्यथा जिस दिन ये हमारे हाथ से छूटा, राणा जैसे व्यक्ति अपनी कथनी को करनी में बदलने में देर नहीं लगाएंगे। इसीलिए समझिये कि जहाँ हम आपस में लड़ रहे हैं वही शांतिदूत एक घटना, जो सात समंदर दूर फ़्रांस में हुई है, जिससे उनका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं है, पर ऐसी खुली प्रतिक्रिया दे रहे हैं। फ़्रांस में अपने भाइयों के लिए गए निर्णय के विरोध में पूरे देश में बैठे मुसलमानों का दिल पसीज गया है और हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया और दलित वोटबैंक के चक्कर में फंसे हुए हैं। सम्भलिये, अन्यथा जो दिल्ली में हुआ वो आपके घर के सामने होगा और उससे बचाने वाला कोई कपिल मिश्रा भी वहाँ नहीं होगा। एकत्र रहें, सशक्त रहें।

जय श्रीराम।

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