(newspremi dot com, मंगलवार, २६ जनवरी २०२१)
रोटी, कपडा और मकान. मनुष्य के लिए ये तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं, ऐसा हमें बताया गया और हमने मान लिया. लेकिन पिछले साठ-सत्तर वर्ष के कालखंड में हमने देखा है कि समाज के जिस स्तर की ये तीनों जरूरतें पूरी नहीं होतीं, उस स्तर को सरकार जब जब भी ये तीनों आवश्यकताएं प्रदान करने की कोशिश करती है तब तब रूपए में से दस-पंद्रह पैसे ही लोगों तक पहुंचे हैं. पचासी से नब्बे प्रतिशत राशि कांग्रेसी नेता, उन नेताओं के चमचों और इन दोनों प्रजातियों को पालने पोसने वाले असामाजिक तत्वों में बंट जाती है. इससे दो नुकसान हैं. एक तो, जिन्हें जरूरत है रोटी, कपडे, मकान की उन तक सरकारी सहायता नहीं पहुंचती और दो— जो लोग टैक्स भरकर सरकार को यह काम करने में सक्षम बनाते हैं, अपने पसीने की कमाई का एक हिस्सा सरकार की तिजोरी में देनेवाले प्रामाणिक लोगों पर भी ये अन्याय है. उनके द्वारा प्रदान किए गए कर की राशि का उपयोग देश की कमजोरियों को दूर करने के बजाय कांग्रेसियों और उनके चमचों के करप्शन तथा मौज शौक के लिए उपयोग में लाई जाती है. सत्तर वर्ष से इस देश में कमोबेश यही रस्म चलती आई है.
२०१४ में मोदी युग का आरंभ हुआ. पुरानी भ्रष्ट रिवायतों को नियंत्रित करने और क्रमश: उसे दूर करने का असंभव सा काम शुरू हुआ. दिल्ली से भेजा गया रुपया, जिनके लिए भेजा जाता है उनके बैंक खाते में पूरे का पूरा जमा हो ऐसी महाव्यवस्था की गई. नोटबंदी के कारण ब्लैक मनी की समांतर इकोनॉमी कंट्रोल में आई. जीएसटी के कारण व्यापाय- व्यवसाय में करचोरी का काम कठिन बन गया. पैन कार्ड और आधार कार्ड के कॉम्बिनेशन के बाद आर्थिक लेन देन में पारदर्शिता आई.
क्या ये सब, छह-सात दशकों से देश का शोषण कर रहे कांग्रेसियों को, स्वीकार्य हो सकता है? जनरल इलेक्शन्स, राज्यों के चुनावों तथा पंचायतों-नगरपालिकाओं के चुनावों में २०१४ के बाद लगातार कांग्रेस पार्टी हारती रही, कांग्रेस पार्टी के छोटे-बडे नेता और बडे कार्यकर्ता तथा उन सभी को सपोर्ट करनेवाले सुप्रीम कोर्ट के अनेक वकीलों से लेकर उन जैसे ही काम करनेवाले स्थानीय स्तर के बाहुबलियों का इस नए भारत के वातावरण में दम घुटने लगा तो उन्होंने क्या किया? उन्होंने वही किया जो वे ७ दशकों से करते आए हैं. प्रिंट मीडिया, टीवी के न्यूज चैनल्स तथा अन्य माध्यमों द्वारा जनता को गुमराह करना शुरू किया. २०१४ के बाद भारत की गाडी प्रगति की राह से नीचे उतर गई है और मोदी सरकार की हर नीति देश को गड्ढे में ले जा रही है, ऐसा प्रचार शुरू हुआ. ये वही मीडिया थी जो ७ दशकों तक कांग्रेस, उसके भ्रष्ट नेताओं को दुलारती रही. ये वही मीडिया थी जो कांग्रेस के पैसे, सुविधाओं और दम पर देश के करोडो पाठकों-दर्शकों-श्रोताओं की आंख में धूल झोंककर अपने साम्राज्य का विस्तार करती रही. इन मीडिया हाउसेस ने अपनी विशाल संपत्तियां खडी करके और अपने साथ जुडे खूब जाने माने पत्रकारों को करोडों की कमाई करने के अनेक मौके देकर दिल्ली में विशाल बंगलों की शानोशौकत अर्जित करने में मदद की. इन तमाम मीडिया हाउसेस और उनके साथ जुडे दर्जनों जाने माने पत्रकारों के पास कांग्रेस की मेहरबानी से आज सात पीढियां बैठे बैठे खा सकें, तो भी कुछ कमी न हो, इतनी दौलत है. मीडिया के इस करप्शन को व्हाइट वॉश करने के लिए कांग्रेसी सरकारें इन मीडियाकर्मियों को पद्मश्री, पद्मभूषण इत्यादि से नवाजती रही. मीडिया हाउसेस को तथा इन मीडिया हाउसेस के मालिकों के भाई-बंधु-मित्रों सरीखे उद्योगपतियों के अनुकूल रहे राजनेताओं को, कांग्रेस सरकार मंत्रिमंडल तथा अन्य बडे ओहदों पर बिठाती रही. कांग्रेस और मीडिया का यह नेक्सस कभी नहीं टूट पाएगा, ऐसा लग रहा था. देश में कई जगहों पर, कई छोटे बडे निष्ठावान पत्रकारों ने इस सांठगांठ को तोडने की कोशिश की लेकिन उन्हें सीमित सफलता ही मिल पाई. उनमें अधिकांश को तो उभरते ही दबा दिया गया. कईयों को जीवित दीवार में चुनवा देने की कोशिशें हुईं. देश के किसी कोने में एक कबूतर ने आकर जाल उठाने की कोशिश की. देश के दूसरे कोने से किसी दूसरे कबूतर ने जाल उचकने की कोशिश की. कोने कोने पर हो रही ऐसी कोशिशों के बावजूद तमाम कबूतर एकजुट होकर जब तक कोशिश नहीं करेंगे तब जाल उठने वाला नहीं है, इसका विश्वास कांग्रेस के दिल्ली में बैठे आकाओं को पता था और इसीलिए राज्यों, जिलों तथा तहसीलों को संभालनेवाले उनके बाहुबली भी निश्चिंत रहे.
`मैं बनूं माइक, तू मंच बन जा; मैं खाऊं डिनर तू लंच खा. आओ हम दोनों मिलकर गांव का कल्याण करें; मैं तहसीलदार बनूं तू सरपंच बन जा.’ गुजराती के जाने-माने कवि डॉ. मुकुल चोक्सी के इस मशहूर मुक्तक को सार्थक करनेवाली परंपरा हमारे देश में तकरीबन ७० साल से देखी-अनुभूत की जा रही है. कांग्रेस बडे मीडिया हाउसेस का उपयोग करती है और ये जायंट प्रकाशन गृह कांग्रेस का उपयोग करते हैं. बदले में कांग्रेस इन अखबार-टीवी वालों को संभाल लेती और मीडिया भी इस रोटी के व्यवहार को बखूबी निभाता. बीच बीच में किसी को शंका न हो इसीलिए, या कभी पानी नाक तक आ जाय तो, या फिर आपसी हितसंबंधों का टकराव हो रहा हो तो, या फिर अनकहे- अनलिखे समझौते को कोई एक पक्ष भंग करता हो तब, या ब्लैक मेलिंग की तमाम सीमाएं लांघी जा चुकी हों तब, कांग्रेस इन पत्रकारों के कान मरोडती और ये पत्रकार कांग्रेस के किसी बडे घोटाले का स्कूप बाहर निकालकर कांग्रेसी नेताओं को हल्के डंडे से मारकर याद कराते कि तुम्हारी चोटी हमारे हाथों में है. असल में दोनों ही पक्षों की चोटियां एक दूसरे के हाथों में होने के कारण अंत में समझौता हो जाता और घी के कटोरे में ही घी गिरता रहता.
मीडिया में उपजे ऐसे प्रदूषित-कलुषित वातावरण से जनता विक्षुब्ध हो गई. जाग चुकी जनता समझ नहीं पा रही थी कि मिसइन्फॉर्मेशन के इस कार्पेट बॉम्बिंग में से सत्य को कैसे खोजें.
२०१४ के बाद मोदीयुग में कांग्रेस ने देखा कि भारत की जनता अब हर क्षेत्र में जाग चुकी है. अभी तक सुषुप्त रहकर लगातार मार खाती आ रही यह जनता एक नई नेतागिरी के तहत नई शक्ति प्राप्त कर रही है. राख में दब चुका जनता का कांग्रेस के प्रति क्रोध फिर प्रज्ज्वलित होकर कांग्रेस को जलाने लगा. कांग्रेस ने फिर एक बार अपने पुराने और विश्वासपात्र मीडिया हाउसेस को सक्रिय किया. कांग्रेस के वफादार देशद्रोही पत्रकारों ने २०१४ के बाद के कालखंड में नई सरकार को बदनाम करने का कोई भी मौका नहीं छोडने की प्रतिज्ञा ली और अपनी वफादारी दिखाना शुरू कर दिया. इन सभी को पता था कि उनके लिए तो ये बांएं हाथ का खेल है. १९९२ में अयोध्या के समय, २००२ में गोधरा के समय वे देश की जनता को गुमराह करने में सफल हो चुके थे. इतना ही नहीं, राष्ट्रवादियों के मन में एक दूसरे के इरादों पर संदेह के बीज रोपने के षड्यंत्र भी सफलतापूर्वक रचे जा चुके थे. अपनी ईकोसिस्टम पर आश्वस्त इस मीडिया को लगता था कि नए प्रधान मंत्री की नीतियों के बारे में गलत जानकारी फैलाकर उनकी छवि को धुंधली करने का काम हमारे लिए बाएं हाथ का खेल है. २००२ के बाद मोदी की मौत का सौदागर' वाली गलत छवि खडी करके अमेरिका के विसा को रद्द करानेवाली कांग्रेस को अपने आंगन की पायदान बन चुके मीडिया हाउसेस की वफादारी पर पूरा भरोसा था. नई सरकार की नीतियों की
नाकामियों’ के प्रमाणों से अखबारों के मुखपृष्ठ छलकने लगे. टीवी न्यूज चैनल्स को ब्रेकिंग न्यूज का मसाला मिलने लगा. राजमाता भले देश की पीएम न बन सकें लेकिन राजविदूषक जरूर इस बार सिंहासन पर बैठेगा, ऐसा माहौल बनाने लगे. न्यूज मैगजीन वाले अपनी कवर स्टोरी द्वारा राजजोकर को भावी पीएम का राजतिलक करने लगे.
मीडिया में उपजे ऐसे प्रदूषित-कलुषित वातावरण से जनता विक्षुब्ध हो गई. जाग चुकी जनता समझ नहीं पा रही थी कि मिसइन्फॉर्मेशन के इस कार्पेट बॉम्बिंग में से सत्य को कैसे खोजें. मीडिया और कांग्रेस ने मिलकर जो नंगों का नगर बसाया था उसमें प्रवेश करने के लिए एक ही शर्त थी—आपको भी नंगा होना पडेगा.
ऐसी ईकोसिस्टम में एक आदमी सूट-बूट-टाई पहनकर निर्वस्त्रों के नगर में प्रवेश करता है और ललकार कर कहता है:`हे कांग्रेसियों, हे ल्यूटियन्स मीडिया. तुम सभी नंगे हो.’
इस आदमी का नाम है अर्णब गोस्वामी. पिछले कुछ सप्ताह से यह निर्वस्त्र लोग एकसाथ जुटकर इस आदमी का चीरहरण करने का अट्टहास कर रहे हैं. यही समय है जब मुझे-आपको और हम जैसे करोडों देशप्रेमियों को इस आदमी के चीर को लंबा करके सभी को यह एहसास दिलाना है कि संभवामि युगे युगे का वचन देनेवाले भगवान श्रीकृष्ण गलत नहीं थे. हम सभी में ईश्वर का अंश है और इस बात को साबित करने का यही समय है. छब्बीस जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर शुभेच्छा के साथ यह अवगत कराना है कि रोटी, कपडा और मकान की जरूरत को पूरा करने के लिए जिसकी जरूरत है वह है फ्रीडम ऑफ प्रेस. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता.
हम सभी की ओर से बोल रहे अर्णब गोस्वामी को हमेशा के लिए चुप कराने के षड्यंत्रों का, टीवी चैनल्स की टिपिकल भाषा में कहें तो ‘पर्दाफाश’ करने का समय आ चुका है. मीडिया हाउसेस के तथा उनके कुकर्मों में साझेदारी रखनेवाले पत्रकारिता के दिग्गजों के नाम देकर उन्हें एक्सपोज करने का समय आ गया है. ये सारी साजिश किस तरह से शुरू हुई और अभी कहां जाकर पहुंची है इसका पूरा ग्राफ प्रस्तुत करना है. जैसा कि मोटाभाई कहते हैं उसकी `क्रोनोलॉजी’ समझनी है.
सबसे बडी बात तो ये समझनी है कि नंगों के नगर में ललकार कर बोलनेवाला कोई होगा तो ही फ्रीडम ऑफ प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित रहेगी. उसका गला घोंटने के प्रयास सफल हो गए तो देश में रोटी, कपडा और मकान के लिए आबंटित किए जा रहे तमाम संसाधन-आप द्वारा दिया गया सारी कर की राशि कांग्रेसियों की तिजोरियों में जमा हो जाएगी, जहां से वह मामा के घर पहुंच जाएगी.
अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी पर हो रहे प्रहारों के बारे में विस्तार से बात करना जरूरी है. मेरी सवा चार दशक की पत्रकारिता के दौरान किसी भी पत्रकार पर इस हद तक अत्याचार होते मैंने कभी नहीं देखा.
अर्णब गोस्वामी को चुप कराने के लिए उतावले हो चुके कांग्रेसी, उद्धव-पवार जैसे सवाए कांग्रेसी और सबकी आजीवन दलाली करने की कसम खा चुके इस देश के मीडिया मुगल्स तथा उनके संस्थानों में नौकरी कर रहे चपरासी के स्तर के संपादक-पत्रकार यदि अपने इरादों में सफल हो गए तो सबसे बडा आघात हम सभी को लगनेवाला है. रिपब्लिक टीवी मीडिया यदि कमजोर हुआ तो फिर एक बार देश वामपंथी मीडिया के शिकंजे में आ जाएगा. अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी पर जिस तरह से कांग्रेसी और भ्रष्ट मीडिया टूट पडे हैं, उसे देखकर बॉलिवुड की फिल्में याद आ जाती हैं जिनमें विलन की करतूत को जान चुके हीरो को धरकर दो दर्जन गुंडे मव्वाली मार मार कर अधमरा कर देते हैं.
अर्णब गोस्वामी और रिपब्लिक टीवी पर हो रहे प्रहारों के बारे में विस्तार से बात करना जरूरी है. मेरी सवा चार दशक की पत्रकारिता के दौरान किसी भी पत्रकार पर इस हद तक अत्याचार होते मैंने कभी नहीं देखा. दुनिया के सबसे बडे और सबसे पुराने लोकतंत्र वाले देश में किस हद तक जानेवाले राजनेता और मीडिया सम्राट बसते हैं, जब इसका इतिहास लिखा जाएगा तब भविष्य की पीढियों को ये सबकुछ बॉलिवुड की फिल्म की स्क्रिप्ट जैसा ही काल्पनिक लगेगा. ये कल्पना नहीं है. ये अलीबाबा चालीस चोर की कहानी नहीं है. अर्णब के सामने आए ४० चोर वास्तविकता है और उसका रेकॉर्ड रहे इसीलिए इस विषय पर न्यूज डॉट कॉम पर एक मिनी सिरीज़ लिखने का निर्णय लिया गया है. भारतीय पत्रकारिता में शुरू हुए डेविड वर्सेस गोलिएथ के इस अभूतपूर्व युद्ध के परिणाम का असर ऑपइंडिया' के राहुल रोशन, नुपूर जे. शर्मा और अजित भारती जैसे राष्ट्रवादी पत्रकारों से लेकर
दिल्ली रायट्स: २०२०’ जैसी विस्फोटक पुस्तक छापने का साहस करनेवाले गरुड प्रकाशन' के संक्रांत सानू और अंकुर पाठक तक भारत के कई प्रथम पंक्ति के पत्रकारों-लेखकों पर पडने वाला है. अर्णब को किसी भी कीमत पर खत्म करने का वन पॉइंट अजेंडा अब निर्णायक दौर में प्रवेश कर चुका है. किसी भी पत्रकार की विश्वसनीयता पर प्रश्न खडा करने का अंतिम रास्ता है- उसके आर्थिक व्यवहारों के बारे में धुंधला वातावरण निर्मित करके उनके प्रशंसकों में संदेह पैदा करना. उद्धव ठाकरे की सरकार ने कांग्रेस के इशारे पर अपनी गुलाम जैसी पुलिस के अधिकारियों द्वारा अर्णब और रिपब्लिक को मसलने के लिए जो खतरनाक खेल शुरू किया था उसमें कल
इंडियन एक्सप्रेस’ भी जुड गया है. टाइम्स नाव' और
इंडिया टुडे’ ग्रुप तो पहले से ही मैदान में हैं. एनडीटीवी को तो अब कोई पूछता भी नहीं है फिर भी वह इस तमाशे में शामिल है.
अपने ऊपर हुए आर्थिक भ्रष्टाचार के गलत आरोपों से निष्कलंक बाहर निकलने के लिए कल रात नौ से ग्यारह बजे तक चले प्राइम टाइम डिबेट में अर्णब गोस्वामी ने अपने तथा अपनी पत्नी के इनकम टैक्स रिटर्न तथा आर्थिक कारोबार के तमाम हिसाब किताब को सार्वजनिक करने की घोषणा की. अर्णब गोस्वामी की विश्वसनीयता पर प्रश्न खडा करने की मंशा धरानेवाले उद्धव ठाकरे, शरद पवार और सोनिया गांधी तथा उनके इशारे पर कैबरे करनेवाले पुलिस अधिकारी तथा इस लेख के शीर्षक में वर्णित पत्रकार तथा उनके आकाओं के लिए अब अपने अपने चार्टर्ड अकाउंटेंट की सलाह लेने का समय आ गया है.
(शेष कल)
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