कोई विचारधारा जब खुद के अतिरिक्त किसी और के अस्तित्व को स्वीकार नहीं कर पाती है तो उसका हिंसक हो जाना ही उसकी अंतिम परिणति होती है. वामपंथ के झंडे तले समय समय पर उगने वाली दर्जनों विचारधाराओं में यह दोष व्याप्त रहा है. वे अपने नाकारा सिद्ध हो चुके सिद्धांतों की आड़ लेकर सबको गलत घोषित करती हैं और एक सीमा के बाद हिंसा के माध्यम से अपने विरुद्ध उठने वाली आलोचना के हर आवाज को जड़ से समाप्त करने निकल पड़ती हैं.