निःसंदेह योग एवं आयुर्वेद को देश-दुनिया तक पहुँचाने में स्वामी रामदेव का योगदान अतुल्य एवं स्तुत्य है। उन्होंने योग और आयुर्वेद को गुफाओं-कंदराओं, शास्त्र-संस्थाओं से बाहर निकाल जन-जन तक पहुँचाने का अभूतपूर्व कार्य किया। इससे आम जन के धन और स्वास्थ्य की रक्षा हुई। उनके कार्यक्रमों को देख-सुन, उनके शिविरों में प्रशिक्षण पा लाखों-करोड़ों लोग लाभान्वित हुए हैं। उनके प्रयासों से योग-प्राणायाम, ध्यान-धारणा-प्रत्याहार जैसी गंभीर एवं पारिभाषिक शब्दावलियों, जटिल प्रक्रियाओं को भी आम लोग अब समझने लगे हैं। इन्हें अपने जीवन में उतारने लगे हैं। यह उनके प्रयासों का ही सुखद परिणाम है कि योग-प्राणायाम-आयुर्वेद को सर्वसाधारण एक जीवन-शैली की तरह अपनाने लगा है। कुल मिलाकर स्वास्थ्य के प्रति व्यापक जन-जागरुकता लाने का असाध्य-असाधारण कार्य स्वामी रामदेव द्वारा धरातल पर सच-सजीव-साकार किया गया है। योग जिसे आध्यात्मिक जगत की गुह्य विषयवस्तु समझा जाता रहा, उसे दैनिक व व्यावहारिक जीवन का अंग बनाने का श्रेय उन्हें निश्चित मिलना चाहिए।


अभी हाल ही में एक कार्यक्रम के दौरान डॉक्टर्स पर उनके द्वारा की गई टिप्पणी को लेकर बहुत हल्ला-हंगामा मचा। वह टिप्पणी उनके व्यक्तित्व-कर्तृत्व एवं प्रसिद्धि-प्रतिष्ठा से मेल नहीं खाती थी। इसमें कोई दो राय नहीं कि उनकी उस टिप्पणी से परे ऐसे असंख्य चिकित्सक हैं, जिन्होंने इस कोरोना-काल में सेवा-समर्पण-कर्त्तव्यनिष्ठा की अद्भुत मिसाल पेश की। वे सचमुच मनुष्यता के ऐसे गौरव-ध्वज रहे, जिन्होंने संक्रमित मरीज़ों के उपचार के लिए अपना और अपने परिजनों का जीवन दाँव पर लगा दिया। अपना सलीब अपने ही कंधों उठा उन्होंने निश्चित ही अग्रिम पंक्ति के योद्धा जैसी भूमिका निभाई। इस देश का मन और मिज़ाज, सोच-संस्कार ऐसा है कि तमाम कमियों के बावजूद यहाँ पेशा (प्रोफेसन) को सेवा और सेवा को धर्म मानने वाले लोगों की कमी नहीं।

  
परंतु अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस के महत्त्वपूर्ण अवसर पर एलोपैथी चिकित्सा-पद्धत्ति और उसकी दिशा-दशा को लेकर स्वामी रामदेव द्वारा उठाए गए कतिपय प्रश्नों पर विचार करना समयोचित होगा? वे प्रश्न नितांत निरर्थक एवं आधारहीन नहीं हैं। देश के हर संवेदनशील एवं सरोकारधर्मी व्यक्ति के मन में यह चिंता प्रमुख रूप से उठती-घिरती रही है कि आधुनिक चिकित्सा-सुविधा बहुत महँगी है, आम जन के पहुँच से कोसों दूर है और कहीं जो वह किसी निजी अस्पताल के फेर में फँस गया तो उसके पसीने से अर्जित जीवन भर की गाढ़ी कमाई एक बार में ही लुट-खप जाती है। उसे संतोषजनक उपचार व परिणाम नहीं मिल पाता। पारदर्शिता और प्रामाणिकता का वहाँ प्रायः अभाव देखने को मिलता है। निजी अस्पतालों के महँगे उपचारों से गुज़रने के बाद मरीज़ और उनके परिजन खुद को लुटा-ठगा महसूस करते हैं। बल्कि कई बार तो वे मरीज़ों और उनके परिजनों से सहज मानवीय व्यवहार भी नहीं करते। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान ऐसे अनेक अनुभवों-दृष्टांतों ने इसे भोगने-देखने-सुनने वालों के मन-मस्तिष्क को बुरी तरह प्रभावित और व्यथित किया। ऐसे लूट-तंत्र या संगठित स्वास्थ्य-बाज़ार के चंगुल से मुक्ति पाने में योग-आसन-प्राणायाम, नियमित दिनचर्या, संतुलित आहार-विचार और आयुर्वेद एक बेहतर एवं सहायक विकल्प बनकर सामने आया है।

 
पर इनके विकल्प बनकर उभरने और सर्व स्वीकृति पाने की राह में कुछ ठोस अड़चनें हैं। दरअसल इस देश में अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ एक बड़ा वर्ग है, जिसे अपनी भाषा, अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा, पुरातन ज्ञान-विज्ञान की शाखा-प्रशाखा, अपने शास्त्र, अपने अतीत, अपने गौरव, अपने मान-बिंदुओं, अपने महापुरुषों-मनीषियों से घृणा की सीमा तक चिढ़ है। वे हर क्षण उन्हें कोसने-धिक्कारने, ग़लत सिद्ध करने की ताक में रहते हैं। ऐसी सोच को सींचने-परिपोषित करने में धार्मिक-वैचारिक- राजनीतिक-वैदेशिक सत्ताओं-अधिष्ठानों की भी सक्रिय भूमिका रही है। उनमें यह घृणा इस सीमा तक है कि वे अपने होने यानी अपने पुरखों-पूर्वजों तक को मानने-स्वीकार करने को तैयार नहीं! उन्हें अपने प्रतीक, अपनी पहचान, अपनी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता तक से चिढ़ है। यही कारण है कि बाबा रामदेव, सदगुरु जग्गी वासुदेव, श्री श्री रविशंकर से लेकर कांची कामकोटि के शंकराचार्य जैसे अनेक संत-योगी उनके निशाने पर आते रहे। ये उनके लिए केवल नाम हैं, उनका असली मक़सद उन्हें निशाने पर लेकर उनकी पहल, पहचान, प्रयास, प्रभाव व परिणाम को कुंद करना है। और तो और वे तमाम देवी-देवताओं एवं सनातन प्रेरणा-पुरुषों तक को अनुचित संदर्भों-विवादों में घसीटने से नहीं चूकते। उनका मानसिक अनुकूलन एक निश्चित दिशा में सोचने के लिए कर दिया गया है।

उनके मतानुसार भारत में जो कुछ शुभ-सुंदर-श्रेष्ठ है, सब पश्चिम से आया हुआ है। मानव सभ्यता एवं आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को भारत की कोई महत्त्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय देन नहीं। उनकी दृष्टि में पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण है। वेश-भूषा-पहनावे जैसे व्यक्तित्व के बाह्य आवरण से वे व्यक्तियों के ज्ञान-अनुभव-गहराई-महत्त्व की थाह लेते-लगाते हैं। सनातन दर्शन एवं पूजा-पद्धत्ति उनकी दृष्टि में कालबाह्य आचार-विचार एवं अंधविश्वास हैं, भगवान के विग्रह पर फूल-जल-दुग्ध-प्रसाद-नैवेद्य का दान व अर्पण पोंगापंथ है, त्योहार उनके लिए सामाजिक कुप्रथा या सार्वजनिक दिखावा है, मंदिर-दर्शन मन का रंजन या मात्र पर्यटन तो पवित्र गंगा-स्नान एवं कुंभ का आयोजन महामारी को आमंत्रण है। चेहरे और संदर्भ बदलते रहते हैं पर भारत और भारतीयता को पल्लवित-पोषित-संरक्षित करने वाले हर प्रयास, हर व्यक्ति और हर मुद्दे पर उनका हमला अविराम ज़ारी रहता है।

ऐसे रीढ़विहीन-हमलावर लोगों की असली समस्या भारत की ऋषि-परंपरा एवं गैरिक वस्त्र है। उन्हें मूलतः आपत्ति भारतीय ज्ञान-विज्ञान-परंपरा से है। वे बहती गंगा में हाथ धोना चाहते हैं और कुछ दिनों पूर्व स्वामी रामदेव द्वारा दिए गए वक्तव्य को आधार बनाकर उनकी विश्वसनीयता को येन-केन-प्रकारेण ठेस पहुँचाना चाहते हैं। वे हर उस व्यक्ति की सार्वजनिक छवि, विश्वव्यापी विश्वसनीयता और अंतरराष्ट्रीय अपील को ध्वस्त करना चाहते हैं जो भारत और भारतीयता के पक्ष में दृढ़ता एवं तार्किकता से खड़े हैं। वस्तुतः ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों-वर्गों-संस्थाओं-संगठनों की वास्तविक लड़ाई भारत और भारतीयता, उसके पुरातन ज्ञान-विज्ञान, शास्त्रों एवं जीवन-मूल्यों से है, जिसके रहते उन्हें अपने फलने-फूलने  के आसार नहीं दीखते। कोई आश्चर्य नहीं कि वे योग एवं आयुर्वेद तथा भारत एवं भारतीयता को पुनर्जीवन प्रदान करने वाले प्रतिनिधि व्यक्तित्वों पर हमलावर होने का एक मौका नहीं चूकते! पर समय ऐसे हमलावरों को छोड़कर आगे बढ़ चला है।

इक्कीसवीं सदी भारतीय ज्ञान-विज्ञान-विचार-परंपरा की सदी है। कम-से कम 21 जून को मनाया जाने वाला अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस और उसे मिलने वाला विश्व-बिरादरी का व्यापक जन-समर्थन यही संकेत और संदेश देता है। योग और आयुर्वेद निर्विकल्प हैं, वे अब केवल वैकल्पिक नहीं, मुख्य चिकित्सा-पद्धत्ति बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर हैं।


प्रणय कुमार

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