*देश में घृणा कौन फैला रहा है?*
_-बलबीर पुंज_
गत 10 अक्टूबर को सर्वोच्च न्यायालय ने ‘हेट स्पीच’ संबंधित एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कड़ी टिप्पणी की। उसके अनुसार, “देश का माहौल द्वेषपूर्ण भाषणों के कारण खराब हो रहा है… इसपर नकेल कसने की आवश्यकता है।” इससे पहले 21 सितंबर को भी शीर्ष अदालत ने ऐसा ही विचार प्रस्तुत किया था। यक्ष प्रश्न है कि आखिर देश में घृणा कौन फैला रहा है? वामपंथियों, स्वयंभू उदारवादियों और स्वघोषित सेकुलरवादियों के साथ मुस्लिम समाज का एक वर्ग, विदेशों में अपने मानसबंधुओं के साथ मिलकर एक विकृत विमर्श को बार-बार गढ़ रहा है कि भारत में घृणा, वैमनस्य और हिंदू-मुस्लिम तनाव मई 2014 के बाद से बढ़ा है। क्या ऐसा है? क्या उससे पहले सब ठीक था?
नूपुर शर्मा मामले में क्या हुआ था? उपरोक्त कुनबे ने कई मिनटों की टीवी बहस में से मात्र कुछ सेकंड का वीडियो निकालकर, पहले उसे सोशल मीडिया पर वायरल किया और फिर जो कुछ उसमें नूपुर ने कहा, उसकी प्रमाणिकता की जांच या उसपर वाद-विवाद किए बिना नूपुर को राजनीतिक-वैचारिक घृणा के कारण ‘ईशनिंदा’ का ‘वैश्विक अपराधी’ बना दिया। तब नूपुर को मौत के घाट उतारने और बलात्कार की धमकियां मिलने लगी। विडंबना देखिए कि जो विषाक्त समूह ‘मानवीय आधार’ पर बिलकिस बानो मामले में दोषियों को न्यायिक परिधि के भीतर मिली मुक्ति का विरोध कर रहा है, उनमें से अधिकांश नूपुर को मिल रही दुष्कर्म आदि की धमकियों पर चुप क्यों थे? क्या यह घृणा नहीं?
वाम-उदारवादियों ने मीडिया (सोशल मीडिया सहित) में अपने रूग्ण विचारों से नूपुर आदि के खिलाफ जो विद्वेषपूर्ण विमर्श बनाया, उसने विश्व में भारत की समरस छवि कलंकित तो की ही, साथ ही आक्रोशित मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने सड़कों पर हिंसक प्रदर्शन करते हुए “गुस्ताख-ए-रसूल की एक ही सजा, सर तन से जुदा” जैसे मजहबी नारे लगाकर नूपुर समर्थक कन्हैयालाल और उमेश की नृशंस हत्या तक कर दी। यह नारा कोई जुमला नहीं, अपितु मजहबी दायित्व है। सोचिए, जब नूपुर का पक्ष लेने वालों को यूं मारा जा रहा है, तो अंदाजा लगाना कठिन नहीं कि स्वयं नूपुर किस संकट से दो-चार है। नूपुर विरोधी घृणा को किसने फैलाया? नूपुर के प्राणों पर आया खतरा इसलिए भी भयावह है, क्योंकि दुनिया के सबसे समृद्ध, शक्तिशाली और सुरक्षित देशों में से एक अमेरिका में भी 34 वर्षों से ‘ईशनिंदा’ के ‘अपराधी’ लेखक-उपन्यासकार सलमान रुश्दी पर 12 अगस्त 2022 को जिहादी द्वारा चाकू से हमला हो गया था।
क्या यह भी सच नहीं कि नूपुर ने करोड़ों हिंदुओं के आस्थावान शिवलिंग के उपहास की प्रतिक्रियास्वरूप ‘अमर्यादित’ टिप्पणी की थी? हिंदू आस्था से खिलवाड़ करना क्या घृणा नहीं? अभी दिल्ली में क्या हुआ? दशहरे (5 अक्टूबर) पर दिल्ली स्थित अंबेडकर भवन में एक कार्यक्रम का आयोजन हुआ, जहां आम आदमी पार्टी (आप) के विधायक राजेंद्र पाल गौतम, दिल्ली सरकार में मंत्री के रूप में शामिल हुए। दावा है कि इसमें लगभग 10 हजार हिंदुओं का मतांतरित किया गया था। वायरल वीडियो में गौतम सहित कई लोग हिंदू विरोधी शपथ लेते दिख रहे थे, जिसमें कहा जा रहा था, “मैं हिंदू धर्म के देवी देवताओं ब्रह्मा, विष्णु, महेश, श्रीराम और श्रीकृष्ण को भगवान नहीं मानूंगा, न ही उनकी पूजा करूंगा। मुझे राम और कृष्ण में कोई विश्वास नहीं, जिन्हें भगवान का अवतार माना जाता है।” क्या यह ‘हिंदूफोबिया’ नहीं? जो समूह नूपुर-नवीन-राजा आदि के विचारों को ‘हेट-स्पीच’ बता रहा है, वह राजेंद्र पाल गौतम द्वारा हिंदू देवी-देवताओं के अपमान को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ के चश्मे से क्यों देख रहा है?
यदि हिंदुओं की भावना आहत करने पर राजेंद्र पाल गौतम के खिलाफ कोई गंभीर प्रतिक्रिया हुई, तो क्या इसके लिए वाम-उदारवादी-जिहादी समूह वैसे ही ‘आप’ और राजेंद्र को दोषी ठहराएंगे, जैसा नूपुर शर्मा को मुस्लिम समाज के हिंसक प्रदर्शनों और क्रूर उदयपुर-अमरावती हत्याकांड के लिए ठहराया गया था? 2015 के मोहम्मद अखलाक मामले में क्या हुआ था? दिल्ली के निकट दादरी में गौहत्या से आहत होकर हिंदुओं की भीड़ ने अखलाक की पिटाई कर दी थी, जिसमें उसकी मौत हो गई। इस प्रतिक्रिया पर वाम-उदारवादियों ने अपने हिंदू-विरोधी चिंतन के अनुरूप, हिंदुओं और उनकी मान्यताओं-परंपराओं का दानवीकरण कर दिया। विमर्श बनाया गया, “एक पशु के लिए मनुष्य को मार दिया।” ऐसा कहने वाले इसी वर्ष सितंबर की उस घटना पर क्यों चुप है, जिसमें दो निहंगों ने अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर के निकट तंबाकू का सेवन कर रहे व्यक्ति की हत्या कर दी थी? ऐसा ही मौनव्रत 15 अक्टूबर 2021 को हरियाणा-दिल्ली की सिंघु सीमा पर भी देखने को मिला था, जब बेअदबी का आरोप लगाकर निहंगों ने एक दलित को घंटों अमानवीय यातना देकर मार डाला था। क्या ऐसे दोहरे मापदंडों से समाज घृणा मुक्त हो सकता है?
इसी वर्ष 20 मार्च को उत्तरप्रदेश में बाबर अली को मुस्लिम पट्टीदारों इसलिए पीट-पीटकर मार डाला था, क्योंकि उसने विधानसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड विजय पर मिठाई बांटने और जय श्रीराम का नारा लगाने का ‘महाअपराध’ किया था। क्या वाम-उदारवादियों में बाबर अली के लिए वैसे सहानुभूति दिखी, जैसे अखलाक, जुनैद, पहलु आदि मुस्लिमों की निंदनीय हत्याओं में प्रत्यक्ष हुई थी? ऐसे दर्जनों उदाहरण है।
वास्तव में, घृणा पर दोहरा मापदंड, वाम-उदारवादियों का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से वैचारिक और राजनीतिक घृणा-अपृश्यता का एक सूक्ष्म अंश है, जिसका अन्य प्रमाण— आप गुजरात ईकाई के अध्यक्ष गोपाल इटालिया द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी वृद्ध मां के लिए अपशब्दों का उपयोग करना भी है। सच तो यह है कि भारत में ‘घृणा’ की जड़े 1410 वर्ष पुरानी है, जिसमें एकेश्वरवादी दर्शन और कालांतर में वामपंथ ने भारतीय समाज में बहुलतावाद, सौहार्द और पंथनिरपेक्षता रूपी जीवनमूल्यों को दूषित कर दिया। इसी संकीर्ण चिंतन को उन राजनीतिज्ञों-बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त है, जिन्होंने कश्मीर में हिंदुओं का नरसंहार-पलायन पर चुप्पी साधे रखी, तो मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के अस्तित्व को नकारकर और अपने कार्यकर्ताओं को विरोध जताने हेतु सरेआम गौहत्या तक के लिए प्रेरित किया है। इस पृष्ठभूमि में क्या ‘हेट-स्पीच’ थम सकती है?
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।
संपर्क:- punjbalbir@gmail.com
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.