बिहार में सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक सुर में जाति के आधार पर जनगणना कराने को लेकर सहमत है. जिसके लिए बिहार सरकार 500 करोड़ खर्च करने जा रही है. लेकिन जहां सरकार एक तरफ जातीय गनगणना के लिए कोरोड़ों रुपये खर्च करने जा रही है उसी बीच राज्य के लोगों की आर्थिक स्थिति कैसी है , कितने लोग कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं, कितने लोग भुखमरी के कगार पर हैं क्या सरकार ने इस स्थिति का जायजा लेना उचित समझा ?

दरअसल जातीय गनगणना के शोर में समस्तीपुर के परिवार की झकझोरने वाली खबर शायद कहीं न कहीं दब गई. बिहार के समस्तीपुर के एक गांव मऊ में एक पूरा परिवार फांसी के फंदे पर लटक गया. मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक जिस परिवार ने फांसी लगाकर अपनी जिंदगी ख़त्म कर ली वो एक ब्राह्मण परिवार था। मरने वालों में पति-पत्नी, दादी और 2 बच्चे थे. मनोज झा ऑटो चलाकर और खैनी बेचकर अपने परिवार का पेट पालते थे। ये सोचकर भी मन सहम जाता है कि अपने मासूमों को किस तरह मजबूर बाप ने गले में फंदा डाला होगा। लेकिन सड़ी हुई सिस्टम को शर्म कहां आती है. ?

मनोज झा के लिए ऑटो चलाकर 5 सदस्यों के परिवार को पालना मुश्किल हो रहा था, ऐसे में उन्होंने दूसरे लोगों से 10 लाख का कर्ज लिया, कर्ज ले तो लिया था लेकिन लौटाए कहां से ? कुछ दिनों बाद कर्ज देने वाले घर पहुंचने लगे . रोज-रोज की बेइज्जती और परिवार का भूखा पेट यह सब कुछ मनोज बर्दाश्त नहीं कर सका और पूरे परिवार के साथ फांसी के फंदे पर झूल गया. यह पूरा परिवार जाति से ब्राह्मण था। परिवार के ऊपर सवर्ण होने का ठप्पा लगा था। जिसकी वजह से परिवार को सरकारी सुविधाएं नहीं मिलती थी। लेकिन इस परिवार के लिए ब्राह्मण कुल में पैदा होना मानो उसके लिए श्राप बन गया हो।

यह है ब्राह्मणों की हालत जहां वामपंथी, बुद्धिजीवी और अर्बन नक्सल जिस ब्राह्मण की दिन-रात आलोचना करते हैं. ये सभी को मालूम है कि ब्राह्मणों को इस देश में कोई आरक्षण नहीं मिलता। ना ही नौकरी में ना ही शिक्षण संस्थानों में और हां ब्राह्मण ‘विक्टिम कार्ड’ भी नहीं खेल सकता क्योंकि वो ब्राह्मण है।

फ्रांस के पत्रकार फ्रेंन्कॉइस गोटियर ने 2007 में सर्वे रिपोर्ट जारी की थी। उसके मुताबिक आज आपको किसी भी सरकारी ऑफ़िस में ब्राह्मण टॉयलेट साफ करते हुए मिल जाएंगे। उस दौरान दिल्ली में 50 सुलभ शौचालय थे, इन सभी की साफ-सफाई और देख-रेख का काम ब्राह्मण ही करते थे। इतना ही नहीं दिल्ली में 50 फीसदी रिक्शाचालक ब्राह्मण हैं। आंध्र-प्रदेश में घरों में काम करने वालों में 75 फीसदी आबादी ब्राह्मणों की है। इन आंकड़ों से समझिए की ब्राह्मणों की स्थिति दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही है बावजूद इसके ब्राह्मणों के खिलाफ दिन-रात नैरेटिव सेट किया जाता है।

आखिर में सवाल ये कि बिहार की नीतीश सरकार जातीय जनगणना के नाम पर जो पैसे पानी की तरह बहाने जा रही है उन पैसों का इस्तेमाल सूबे की आर्थिक व्यवस्था, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य के सुधार के लिए क्यों नहीं किया गया. आज भी चाहे वो सरकारी अस्पताल हो या फिर सरकारी स्कूल पूरी तरह से यहां की व्यवस्था चौपट है. स्कूलों में मास्टर साहब बच्चों से पंखा हंकवाते हैं तो अस्पतालों में मोबाइल की रोशनी में बच्चे की डिलवरी होती है. ये तो मात्र दो उदाहरण है बिहार के फिसड्डी राज्य होने के बदइंतजामी की तो भरमार है.

बिहार में 1931 के बाद फिर जातीय जनगणना होगी लेकिन जातीय जनगणना से पहले अलग-अलग जाति के लोगों की हालत भी देख लेते नीतीश बाबू तो बेहतर होता शायद अगले चुनाव में वोटों के लिए ज्यादा मेहनत करने की जरुरत ही नहीं पड़ती दरअसल आर्थिक रूप से पिछड़े लोग चाहे वो किसी भी जाति के हैं वे अपनी जिंदगी जी नही रहें बल्कि ढो रहे हैं. कुछ कीजिए नीतीश कुमार जी…

 

 

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