तृणमूल का पत्तन : क्षेत्रवाद पर भारी पड़ता भाजपा का राष्ट्रवाद

अभी कुछ समय पूर्व लोकसभा चुनावों से ठीक पहले जब तृणमूल की अगुआ ममता बनर्जी ने एक मंच पर देश भर के कुल 22 विरोधियों को खड़ा किया था तो उस समय उनके साथ खड़े सभी 22 अपने आपको कम से कम प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी से अधिक योग्य तो जरूर ही मानते थे। तो उन कुल 22 प्रधानमंत्रियों की भी प्रधानी करने वाली ममता बनर्जी ने बहुत जल्दी ही अपनी नकारात्मकता के कारण आज अपने ही राज्य से हाशिये पर जाने को तैयार बैठी हैं।
गाँधी परिवार की छत्र छाया में राष्ट्रीय पार्टी से एक क्षेत्रीय पार्टी में बदलती हुई कांग्रेस ने अपने बीते जमाने में धीरे धीरे हर राज्य में क्षेत्रीय दलों को स्थानीय विकास नहीं बल्कि लोकल उगाही तंत्र के रुप में विकसित किया। नतीज़ा हर राज्य के पास उस राज्य का पूरा सत्यासनाश करने के लिए उसका क्षेत्रीय दाल हो गया जिसे राष्ट्रीय दल और राष्ट्रीय विकास से कोई लेना नहीं नहीं था।
पिछले कुछ वर्षों में ममता सरकार ने केंद्र की भाजपा और उससे भी अधिक मोदी , शाह आदि से द्वेष के कारण सनातन और हिन्दू समाज के प्रति उपेक्षापूर्ण और अपमानजनक व्यवहार व नीति अपनाई अब उसके भुगतान करने का समय आते ही तृणमूल सुप्रीमो के सुर और तेवर दोनों ही बदले हुए हैं। सत्ता में बने रहने के लिए जब कोई स्वार्थवश किसी विशेष के साथ पक्षपात पूर्ण होकर नीतियां और नियमों का निर्धारण करता है तो फिर ऐसी सरकारों को बहुत जल्दी ही सत्ता च्युत भी होना पड़ता है।
ममता सरकार ने तो राज्य के लिए केंद्र की तरफ से जारी की गई बहुत ही कल्याणकारी योजनाओं को लागू करने से सिर्फ इसलिए मना कर दिया क्यूंकि उन्हें केंद्र की भाजपा सरकार से नफरत है। लेकिन वे यहीं भूल गईं की अब भारत एक हो रहा है , राष्ट्रवाद का शंखनाद हो चुका है अब उसके आगे ये तृण मूल की अब कोई बिसात नहीं बचने वाली है।
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