पहले कथित असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी गैंग ने अनावश्यक रायता फैलाया । उसके बाद कभी जेएनयू, जामिया, अलीगढ़ के विद्यार्थियों को भड़काकर, कभी सीएए के नाम पर मुसलमानों में पहले से व्याप्त कट्टरता एवं धर्मांधता को हवा देकर, कभी हाथरस जैसी निंदनीय आपराधिक घटनाओं पर दलितों को उकसाकर तो अब कृषि-बिल के विरोध के नाम पर पॉलिटिकली मोटिवेटेड किसानों का इस्तेमाल कर मोदी-विरोधी अपने पुराने एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं। ये वही लोग हैं, जो 2014 में मोदी जी के सत्तारूढ़ होने से पहले से उन पर हमला कर रहे हैं। ये कभी फासिस्ट शक्ति के नाम पर, कभी लोकतंत्र को बचाने के नाम पर, कभी विद्यार्थियों के नाम पर, कभी दलितों के नाम पर तो कभी किसानों के नाम पर चेहरे बदल-बदलकर सामने आ रहे हैं। लोग वही हैं, सिर्फ मुखौटा अलग है। और मोदी जी की बढ़ती ताक़त और लोकप्रियता को देखते हुए वे ऐसे छटपटा रहे हैं जैसे छिपकली की कटी हुई पूँछ छटपटाती है। इनकी छटपटाहट की असली वजह इनकी घटती ताक़त है, उखड़ती जड़ें हैं, सिमटता-दरकता आधार है।
पहले बिहार विधानसभा चुनाव, फिर हैदराबाद म्युनिसिपल चुनाव में ऐतिहासिक जीत, फिर गोवा के स्थानीय निकाय चुनावों में शानदार जीत, फिर असम के स्वायत्त बोडोलैंड चुनाव में असाधारण जीत, फिर केरल की पलक्कड़ नगरपालिका पर हुई जीत, और अब जम्मू-कश्मीर में आज़ादी के बाद पहली बार हुए डीडीसी चुनाव में भाजपा का अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन, सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उसका निरंतर विजयी अभियान- सब कुछ मोदी विरोधियों को चिढ़ा रहा है, वे जल-भुन-कुढ़ रहे हैं कि कहाँ जाएँ, क्या करें! और इधर आम, निष्पक्ष जनता है जो मोदी-विरोधियों के तमाम प्रयासों के बावजूद उन पर प्यार लुटाने में कोई कमी नहीं दिखा रही।
कश्मीर का ही चुनाव लें तो कहाँ कहा जा रहा था कि घाटी से धारा 370 और अनुच्छेद 35 A हटाया गया तो ख़ून की नदियाँ बहेंगीं, ऐसा कुछ तो हुआ नहीं उलटे पत्थरबाज़ी बीते दिनों की बात हो गई। बड़े पैमाने पर आतंकवाद और आतंकवादियों का सफ़ाया हुआ। फिर कहा जाने लगा कि पुलिस-प्रशासन और सेना के पहरे में कब तक शांति बनाए रखी जा सकेगी? फिर कहा जाने लगा कि लोकतंत्र की हत्या की जा रही है? और अब जब भाजपा वहाँ सबसे बड़े दल और पहली बार घाटी में भी 3 सीटें जीतने में सफल रही, तब कहा जा रहा है कि भाजपा ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया है।
मत भूलिए कि चाहे वह अब्दुल्ला परिवार हो या मुफ़्ती या कोई अन्य रसूखदार- इन्हें घाटी के अवाम के हितों को दरकिनार केवल अपना खज़ाना भरा है। दशकों से सत्ता-संसाधन पर कुंडली मारे बैठे इन घरानों और रसूखदारों को अब वहाँ की जनता ने ही पहचानना और नकारना शुरू कर दिया है। कहाँ महबूबा कह रही थी कि घाटी में तिरंगे को हाथ तक लगाने वाला कोई नहीं मिलेगा और कहाँ भाजपा जीती और क्या ख़ूब जीती! डल झील में हुई शिकारा रैली में भाजपा कार्यकर्त्ताओं ने डंके की चोट पर तिरंगा लहराया। पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद, अलगाववाद को नकार कर घाटी के अमनपसंद नौजवानों ने गोली-तंत्र की जगह जनतंत्र में भरोसा जताया है और यह मुहर है कि वहाँ की जनता धारा 370 और अनुच्छेद 35 A को हटाए जाने से खुश है और विकास की नई इबारत लिखने को तैयार है। घाटी में उम्मीदों का कमल खिलना एक नए युग की शरुआत है।
प्रणय कुमार
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