काँग्रेस का वर्तमान संकट एवं वंशवाद…….
हिंदी सिनेमा का यह लोकप्रिय संवाद तो आपने सुना ही होगा- ” अब, तेरा क्या होगा रे कालिया!”’ उत्तर भी आप जानते ही हैं- ”सरदार, मैंने आपका नमक खाया है!” 


भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की राजनीति भी प्रायः इसी लोकप्रिय संवाद और दृश्य का अनुसरण करती प्रतीत होती है| बीते तीन दिनों से देश-विदेश की मीडिया काँग्रेस के भावी अध्यक्ष पर माथापच्ची कर रही थी, संभावित नामों और चेहरों के कयास लगा रही थी, परंतु अंततः जो परिणाम निकला उसने समाज एवं देश को भले हतप्रभ किया हो, पर  काँग्रेस पार्टी के लिए यह कोई आश्चर्यजनक एवं नई बात नहीं है| उसकी रीति-नीति एवं कार्य-संस्कृति परिवार विशेष की आस-पास सिमटी रहती है| काँग्रेस के अधिकांश लोकप्रिय, अनुभवी एवं वरिष्ठ-से-वरिष्ठ नेता भी येन-केन-प्रकारेण गाँधी-परिवार के ‘शहजादे’  ‘शहज़ादी’ या ‘महारानी’ के समक्ष साष्टांग दंडवत की मुद्रा में या तो लोटते प्रतीत होते हैं या अंजुलि में गंगाजल अथवा मुख में दूब धारण कर इस वंश या परिवार के प्रति समर्पण एवं निष्ठा की दुहाई देते दृष्टिगोचर होते हैं| चाहे वे युवा हों या बुजुर्ग, धुरंधर हों या नौसिखिए, ज़्यादातर काँग्रेसी नेताओं की यही ख़्वाहिश होती है कि जैसे भी हो वे इस प्रथम परिवार के कृपा-पात्र बन जाएँ और उनकी राजनीतिक वैतरणी पार लग जाए| यही कारण है कि वे इस परिवार की शान में कसीदे पढ़ने का एक भी मौका अपने हाथ से नहीं जाने देते| और कहीं जो किसी ने थोड़ी-सी भी रीढ़ सीधी रखने की कोशिश की तो उसे दल से बाहर का रास्ता दिखाने या उनकी मिट्टी-पलीद करने में कोई कसर बाक़ी नहीं रखी जाती| ऐसा लगता है जैसे काँग्रेस के दिग्गजों के लिए लोकतंत्र का अभिप्राय ”जनता की, जनता के लिए तथा जनता द्वारा न होकर; परिवार की, परिवार के लिए तथा परिवार द्वारा है?” क्या ऐसे ही लोकतंत्र का सपना सँजोया था हमारे महापुरुषों-मनीषियों-स्वतंत्रता सेनानियों ने? यदि यही लोकतंत्र है तो फिर राजतंत्र में क्या बुराई थी? बल्कि राजतंत्र में भी पात्रता और योग्यता की कसौटी पर कसकर ही सामन्यतः ‘राजा’ और  ‘युवराज’ जैसे पदों पर किसी को अभिसिक्त किया जाता था| क्या यह उचित है कि अनुभव, संघर्ष, शुचिता, योग्यता, नैतिकता, प्रतिबद्धता, कर्त्तव्यपरायणता जैसे मूल्यों को तिलांजलि देकर अयोग्यता, अनैतिकता, चाटूकारिता, अवसरवादिता को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन दिया जाय?


एक ओर वंशवाद की विष-बेल को सींचने और परिपुष्ट करने के लिए नवोदित राजनीतिक प्रतिभाओं की भ्रूण-हत्या अनुचित है तो दूसरी ओर सत्ता के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता को खूँटी पर टाँगना भी न्यायोचित नहीं है| समर्पित-संघर्षशील-प्रतिबद्ध-परिपक्व कार्यकर्त्ताओं के अरमानों का गला घोंटकर चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होने वाले ”शहज़ादे-शहजादियों” को थाली में परोसकर सत्ता सौंप देना नितांत अलोकतांत्रिक एवं अधिनायकवादी चलन है| ज़रा कल्पना कीजिए, कल्पना कीजिए कि कोई वर्षानुवर्ष जी-तोड़ परिश्रम करे, निजी सुख-सुविधाओं एवं ऐशो-आराम को तिलांजलि देकर निर्दिष्ट-निर्धारित कर्त्तव्यों के निर्वहन को ही जीवन का एकमात्र ध्येय माने और मलाई कोई और चट कर जाय, क्या यह स्थिति किसी को स्वीकार्य होगी? सच तो यह है कि जिस प्रकार आग में तपकर ही सोना कुंदन बनता है, शिल्पकार के छेनी और हथौड़े की चोट सहकर ही अनगढ़ पत्थर सजीव और मूर्त्तिमान हो उठता है, उसी प्रकार संघर्षों की रपटीली राहों पर चलकर ही कोई नेतृत्व सर्वमान्य और महान बनता है| अयोग्य एवं आरोपित नेतृत्व को हृदय से न तो जनता स्वीकार करती है, न कार्यकर्त्ता, न नेता| चाटूकारों और अवसरवादियों की भीड़ और उनकी विरुदावलियाँ किसी नेतृत्व के अहं को भले सेंक दे दे, पर इनसे वे सर्वस्वीकृत, सार्वकालिक, और महान नहीं बनते|

 
यों तो सभी राजनीतिक दलों को वैचारिक निष्ठा, प्रतिभा, कार्यकुशलता आदि को अनिवार्यतः प्रश्रय एवं प्रोत्साहन देना चाहिए और वंशवाद एवं भाई-भतीजावाद जैसी प्रवृत्तियों को हतोत्साहित करना चाहिए| परंतु काँग्रेस को आज इसकी सर्वाधिक आवश्यकता है| अन्यथा इसका जनाधार सिमटते-सिमटते कहीं इसके कार्यकर्ताओं-नेताओं तक सीमित न रह जाए|


सच तो यह है कि वंशवाद के रथ पर आरूढ़ नेतृत्व अपने मूल चरित्र में अधिनायकवादी, तानाशाही, प्रतिगामी एवं यथास्थितिवादी विचारों एवं वृत्तियों का पोषक होता है, वह प्रगति, परिवर्तन एवं सुधारों का अवरोधक होता है| वह अधिकारों, अवसरों एवं सत्ता-संसाधनों को वंश विशेष तक सीमित रखने के कुचक्र रचता रहता है| वह सत्ता का विकेंद्रीकरण नहीं, केंद्रीकरण करना चाहता है| और यदि वह सत्ता का हस्तांतरण करता भी है तो उन दुर्बल-पराश्रित-जनाधारविहीन नेताओं को जो भविष्य में उसके लिए चुनौती न बने, हर हाल में सत्ता-केंद्रों एवं प्रतिष्ठानों पर उसका परोक्ष-प्रत्यक्ष नियंत्रण बना रहे और सत्तासीनों के निर्णयों-नीतियों की जिम्मेदारी व जवाबदेही से भी वह बचा रहे| उसका विश्वास सामूहिक सहमति में न होकर एकतरफ़ा-मनमाने निर्णयों के पृष्ठपोषण में होता है| असहमति और विरोध के हर सही स्वर को कुचल डालना वह अपना एकमेव नैतिक उत्तरदायित्व समझता है|


भारत में वंशवादी राजनीति के शिखर-परिवार ने अपने ही 23 वरिष्ठ नेताओं द्वारा लिखी गई चिट्ठी को जिस तल्ख़ी एवं तेवर से लिया है, उस पर जैसी तीखी प्रतिक्रियाएं दी हैं,उसने एक बार फिर ‘गाँधी-नेहरू” परिवार की विरासत सँभाले उत्तराधिकारियों की अलोकतांत्रिक-अधिनायकवादी सोच को उज़ागर किया है| काँग्रेस-नेतृत्व के लिए यह पत्र गंभीर एवं ईमानदार आत्ममूल्यांकन का अवसर होना चाहिए था| पर आत्ममूल्यांकन और आत्मविश्लेषण तो दूर उल्टे उसने अहंकार एवं अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने वरिष्ठ एवं अनुभवी नेताओं की नीयत और निष्ठा पर ही सवाल खड़े कर दिए| जबकि उनमें से कइयों ने वर्षों की राजनीतिक यात्रा में अनेक अवसरों पर काँग्रेस के संकटमोचक की भूमिका निभाई| जैसे स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के दो-तीन दशकों तक काँग्रेस का तत्कालीन नेतृत्व हर सवाल उठाने वालों को ‘विदेशी हाथों का खिलौना’ बताकर उनकी विश्वसनीयता को सन्देहास्पद बनाने की कुचेष्टा करता रहता था, वैसे ही विगत तीन दशकों से वह अपनी हर विफ़लता का ठीकरा संघ-भाजपा पर फोड़ने की असफल चेष्टा करता है| विचारणीय यह भी है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक समाज में भी न जाने किन विवशताओं के दबाव में काँग्रेस के तमाम वरिष्ठ, मँजे हुए, परिपक्व नेता भी ”आओ रानी हम ढोएँगे पालकी” वाली मुद्रा में परस्पर प्रतिस्पर्द्धी भाव से कतारबद्ध खड़े नज़र आते हैं| पता नहीं वे भारत के मन-मिज़ाज को पढ़ पाने में क्यों विफ़ल रहते हैं? भारत के मन-मिजाज़ को समझने में ‘सुशांत सिंह प्रकरण’ बहुत सहायक है| उनकी कथित आत्महत्या में फ़िल्म उद्योग में व्याप्त ‘भाई-भतीजावाद’ एवं ‘परिवारवाद’ की संदिग्ध भूमिका ने जिस प्रकार  जन-मन को क्षुब्ध एवं आंदोलित कर रखा है, वह उदाहरण है कि देश वंशवाद और परिवारवाद से कितना खिन्न एवं आक्रोशित है?


कई बार तमाम बुद्धिजीवी, पत्रकार, राजनीतिक विश्लेषक आदि निहित स्वार्थों एव वैचारिक पूर्वाग्रहों के कारण वंशवाद और परिवारवाद की न्यूनाधिक व्याप्ति सभी दलों में बताकर काँग्रेस को इस अपराध का एकमात्र दोषी न बताने-मानने का परिश्रमसाध्य प्रयास करते हैं| पर यहाँ वे यह बताना भूल जाते हैं कि काँग्रेस वंशवाद एवं परिवारवाद की गंगोत्री है|  क्षेत्रीय दलों में व्याप्त वंशवाद एवं परिवारवाद को खाद-पानी काँग्रेस से ही मिलता रहा है| बल्कि उनमें से कई तो उससे ही निकली शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं| काँग्रेस में अपना विकास अवरुद्ध जान उनमें से कइयों ने स्वतंत्र राह पकड़ी और कालांतर में सत्ता-शिखर पर बने रहने के लिए जातीय एवं क्षेत्रीय अस्मिता को उभारकर उन्होंने भी वंशवाद की विष-वल्लरी को परिपोषित एवं परिवर्द्धित करने का स्वार्थयुक्त-सुविधावादी विकल्प चुना| लोकतंत्र के उज्ज्वल भविष्य के लिए यह एक स्वस्थ-सकारात्मक संकेत है कि भाजपा फ़िलहाल इस रोग से अलिप्त है| उसके छिटपुट नेताओं की पृष्ठभूमि भले ही राजनीतिक हो, पर शीर्ष पदों पर होने वाली नियुक्ति में वहाँ आज भी वैचारिक प्रतिबद्धता, अनुभव एवं योग्यता को ही सर्वोच्च वरीयता दी जाती है| यही कारण है कि उसके अगले अध्यक्ष पद पर होने वाली नियुक्ति का पूर्वानुमान लगा पाना राजनीतिक पंडितों के लिए भी कठिन होता है|

 
लोकतंत्र में विपक्ष की बहुत सशक्त, महत्त्वपूर्ण एवं रचनात्मक भूमिका होती है| जन-भावनाओं एवं जन-सरोकारों की सशक्त अभिव्यक्ति के लिए विपक्ष का मज़बूत होना अत्यंत आवश्यक होता है| समय की माँग है कि काँग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र क़ायम हो और वह फिर से अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता प्राप्त करे| परंतु यह तब तक संभव होता नहीं दिखता, जब तक योग्य, सक्षम एवं अनुभवी नेता को काँग्रेस का नेतृत्व नहीं सौंपा जाता|

यह सर्वविदित है कि भ्रष्टाचार से लेकर तमाम आरोपों को झेल रहा गाँधी-नेहरू परिवार का तिलिस्म अब टूटता जा रहा है| हर गाँव-गली-घर में उन समर्थकों-बुजुर्गों का युग बीत चुका है जो काँग्रेस को कमोवेश आज़ादी दिलाने वाली पार्टी मानते रहे| आलम यह है कि हाल के चुनावों में इस सबसे पुरानी पार्टी को कई तहसीलों-गाँवों में पोलिंग एजेंट बनाने के लिए ख़ासा मशक्क़त करनी पड़ी| स्वास्थ्य एवं अन्यान्य कारणों से सोनिया गाँधी का प्रभाव अवसान की ओर है और राहुल गाँधी को अभी तक भारतीय राजनीति और लोकमानस ने गंभीरता से लेना प्रारंभ नहीं किया है| बीते दिनों के राजनीतिक घटनाक्रमों और आरोपों-प्रत्यारोपों में राजनीति के इन तमाम धुरंधरों ने क्या खोया, क्या पाया इस पर तमाम बहसें हो सकती हैं, मतभेद भी हो सकते हैं, परंतु एक बात तो तय है कि इन सबसे काँग्रेस की बची-खुची राजनीतिक साख़ पर भी आँच आई है|

  
यदि गंभीरता और गहनता से विचार करें तो यह वंशवाद, परिवारवाद एवं भाई-भतीजावाद ही भारतीय राजनीति में व्याप्त अनेकानेक बुराइयों की जननी है| लोकतांत्रिक एवं युवा भारत की प्रगति एवं समृद्धि के लिए यह आवश्यक है कि  वंशवाद, परिवारवाद एवं भाई-भतीजावाद जैसी इन बुराइयों को जड़-मूल समेत उखाड़ फेंका जाय एवं एक सच्चे-सुंदर-स्वस्थ-समाजोन्मुखी-सर्वसमावेशी लोकतंत्र की संकल्पना साकार हो|


प्रणय कुमार, राजस्थान

9588225950

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