(newspremi dot com, गुड मॉर्निंग एक्सक्लूसिव: मंगलवार, २३ फरवरी २०२१)
ठीक एक साल पहले, २३ फरवरी को दोपहर में ईशान्य दिल्ली में दंगे शुरू हो गए थे. तीन दिन तक चले इन दंगों में कम से कम ५३ लोगों की जानें गईं और करोडों रुपए की सरकारी तथा जनता की संपत्ति नष्ट हो गई. घर लूटे गए, दुकानें लूटी गईं, स्कूलों की इमारतें तहसनहस हुईं, जला दी गईं.
२३ से २५ फरवरी २०२० तक तीन दिनों के दौरान हुए दंगे पूर्वनियोजित थे. टनों एसिड पाउच, ईंट पत्थर और पेट्रोल के जत्थे पिछले कुछ सप्ताह से उस इलाके में जमा किए गए थे. इन दंगों को दंगा कहने के बजाय जातीय विनाश की घटना के रूप में पहचाना जाना चाहिए. सांप्रदायिक दंगों में दो कौमें आमने सामने लड रही होती हैं. यहां एक ही कौम दूसरी कौम का कत्ल कर रही थी, एक ही कौम द्वारा दूसरी कौम की संपत्ति लूटी जा रही थी.
दिल्ली के ये दंगे १५ दिसंबर २०१९ से शाहीनबाग में शुरू हुए सी.ए.ए. विरोधी प्रदर्शनों की चरमसीमा थे. सिटिजन अमेंडमेंट ऐक्ट (सी.ए.ए.) १२ दिसंबर २०१९ को भारत सरकार द्वारा लागू किया गया. भारत से बाहर बसनेवाले हिंदू- पारसी-सिख-इसाई-बौद्धों को देश छोडकर (उस देश की अत्याचारी नीतियों से मुक्त होने के लिए) भारत आकर बसना हो तो इन शरणार्थियों को भारत की नागरिकता (सिटिजनशिप) पाने में सरलता हो, इस उद्देश्य से यह कानून बनाया गया. बांग्लादेश या म्यांमार से भारत में घुसे मुस्लिम/ रोहिंग्या शरणार्थी'यों को ऐसा लगा कि अब उनकी खैर नहीं है- भारत सरकार अब उन्हें खोज खोज कर उन्हें देश से निकाल बाहर करेगी. भारत के अनेक विभाजनकारी मुस्लिम नेता और अर्बन नक्सलवादी माने जाने वाले अराजकतावादियों ने इस ऐक्ट का विरोध किया और ऐक्ट को अमल में लाए जाने के तीन दिन बाद दिल्ली के शाहीनबाग में
शांतिपूर्ण’ प्रदर्शन शुरू किया. उन्होने भारत के १५ करोड से अधिक मुस्लिम नागरिकों को उकसाया कि सीएए के कारण तुम्हारी भारतीय नागरिकता छीन ली जाएगी और तुम्हें भारत छोडने की नौबत आ जाएगी. असल में सीएए में कहीं भी भारत में रहनेवाले मुस्लिमों का (फॉर दैट मैटर मुसलमानों का ही) कोई उल्लेख नहीं है. सीएए का भारतीय नागरिक के नाते भारत में रहने वाले मुसलमानों के साथ कोई लेना देना नहीं है. ये बात सरकार ने खूब बलपूर्वक कही फिर भी उसे अनसुना कर दिया गया. अफवाह द्वारा अपप्रचार को किस हद तक फैलाया जा सकता है उसका ये क्लासिक उदाहरण था. भारत को अस्थिर करने के लिए यह एक हाथ आया मौका था. यह मौका विघटनकारी और देशद्रोही २०१९ में मोदी के दोबारा प्रधान मंत्री बनने पर बार बार खोज रहे थे. पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए वाली पुरानी कहावत की तरह मोदी जिन्हें आंखों में किरकिरी की तरह चुभते हैं लेकिन भारतीय जनता का प्रचंड समर्थन हासिल करनेवाले मोदी का बाल तक बांका नहीं कर सकने की स्थिति वाले लोग मोदी सरकार को अस्थिर करने के आशय से देश में सिविल वॉर जैसी – गृहयुद्ध जैसी परिस्थिति का निर्माण करेंगे- देश के लोगों को आपस में लडाकर मारने के षड्यंत्र रचेंगे, ऐेसा पूर्वानुमान २०१९ के चुनाव का मतदान चल ही रहा था, उसी दौरान इस लेखक ने एक लेख में लगाया था. बाद के दिनों में वह लेख खूब वायरल हुआ था. कृषि कानू्न के विरोध के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है वह भी इसी रणनीति का हिस्सा है: देश में किसी भी बहाने से सिविल वॉर जैसी परिस्थिति पैदा करके मोदी को अस्थिर किया जाय. बनावटी कृषि आंदोलन के नेता बने राकेश टिकैत के मुंह से कल निकल ही गया: `लोग संगठित हो गए तो सरकार उलट सकते हैं’ जिसका अर्थ ये है कि कृषि कानूनों का विरोध तो केवल एक बहाना है. अजेंडा तो मोदी को हटाकर राहुल पगलवा को पीएम बनाने का है क्योंकि ये लोग जानते हैं कि २०२४ के चुनाव में मोदी को हराना असंभव है.
साठ साल के कांग्रेसी शासन का पाप धोना छोड मोदी अपनी कुर्सी बचाने में व्यस्त हो जाएं और देश को प्रगति की राह पर ले जानेवाली योजनाएं पटरी से उतर जाएं और कांग्रेस, कांग्रेसी तथा केजरीवाल, उद्धव, ममता इत्यादि जैसे लोग, उनके चमचे फिर एक बार इस देश को लूटना शुरू कर दें, ऐसे षड्यंत्र शाहीनबाग में सीएए के विरोध के रूप में और अभी कृषि कानून के विरोध में सिंघू बॉर्डर पर हो रहे प्रदर्शनों के रूप में होते ही रहेंगे. इस बात को समझना होगा और देश विरोधी तत्वों की कलई खोलकर उनके द्वारा हो रहे अपप्रचार के बहाव में बह जाने के बजाय शांत चित्त से सोचना है कि ये षड्यंत्र रच कौन रहा है, किस लिए रच रहा है और यदि गलती से भी उन्हें इसमें सफलता मिल गई तो इस देश का भविष्य होगा.
हिंदुओं की जागृति और नई टेक्नोलॉजी का आविष्कार. इन दोनों का एक साथ अनुभव इन दिनों हम कर रहे हैं.
२०२० में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प पहली बार भारत के दौरे पर आनेवाले थे. दौरे की तारीख, जो पहले से घोषित थी वह २४ और २५ फरवरी थी. दिल्ली के दंगे शुरू हुए २३ फरवरी दोपहर को और २४-२५ फरवरी को ये दंगे अपने चरम पर पहुंच गए. भारत और अमेरिका सहित दुनिया भर के वामपंथियों का नरेंद्र मोदी की नीतियों से घोर विरोध है और डोनाल्ड ट्रम्प के साथ भी इन वामपंथियों की वैश्विक लॉबी का ३६ का आंकडा है. ये दोनों राष्ट्र प्रमुख एक दूसरे के कितने करीब हैं, इसका अंदाजा ह्यूस्टन में २२ सितंबर २०१९ को आयोजित हाउडी मोदी' के भव्य स्वागत कार्यक्रम से दुनिया समझ चुकी थी और उससे भी दुगुने बडे स्तर पर मोटेरा स्टेडियम के
नमस्ते ट्रम्प’ कार्यक्रम में २४ फरवरी को आयोजित होने जा रहा था. दुनिया के दो शक्तिशाली देशों के राष्ट्र प्रमुखों की मित्रता से हट कर, अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान भारत में चल रहे (कृत्रिम रूप से खडा किए गए) `जनता के असंतोष’ की तरफ आकर्षित हो इसके लिए दिल्ली के इन पूर्वनियोजित दंगों की तारीखें याद रखना जरूरी है.
हिंदुओं की जागृति और नई टेक्नोलॉजी का आविष्कार. इन दोनों का एक साथ अनुभव इन दिनों हम कर रहे हैं. हिंदू अधिक जागृत हुए इसीलिए उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इंटरनेट, सोशल मीडिया इत्यादि का अधिक लाभ लेकर अपनी बात को दुनिया तक पहुंचाना शुरू किया या इंटरनेट-सोशल मीडिया के आविष्कार के बाद हिंदुओं में अपनी बात दुनिया तक पहुंचाने की जागरूकता आ गई? पहले मुर्गी या पहले अंडा जैसे इस सवाल को देखें तो मूल मुद्दा छोडकर छोटे रास्ते पर निकलना होगा इसीलिए इसका जवाब छोडकर आगे बढते हैं.
गत वर्ष २३ से २५ फरवरी के दौरान दिल्ली दंगे हिंदुओं के कारण हुए और हिंदू ही इसके लिए जिम्मेदार हैं, ऐसा असत्य ल्युटियन्स मीडिया वाले अनेक वामपंथी टीवी चैनल्स चौबीसों घंटे सातों दिन प्रसारित करते रहे. इसके विपरीत रिपब्लिक वर्ल्ड और रिपब्लिक भारत जैसे राष्ट्रवादी टीवी चैनल्स ने अपने जोखिम पर रिपोर्टिंग करके दंगों में किसका हाथ था इसकी जांच करने का सफल प्रयास किया. केजरीवाल की आप' पार्टी के म्युनिसिपल काउंसिलर ताहिर हुसैन का नाम मुख्य षड्यंत्रकारी के रूप में सामने आया. इस समय वह और उसके साथी हत्या के आरोप में जेल में हैं. आइसिस (आई.एस.आई.एस.- इस्लामिक स्टेट इन सीरिया एंड इराक) के लिए विश्व स्तर पर रिक्रूटमेंट और ट्रेनिंग का काम करने का आरोप जिस पर है, ऐसा पीएफआई (पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया) नामक भारतस्थित आतंकी इस्लामिक संगठन द्वारा दिल्ली के दंगे कराए गए, यह बात सामने आई है.भारत सरकार की नेशनल इन्वेस्टिगेशन एजेंसी (एन.आई.ए.) की जांच में इस लिंक का खुलासा हुआ है. राष्ट्र प्रेमी मीडिया ने इस जानकारी को उचित परिप्रेक्ष्य में पूरी ताकत के साथ जनता तक पहुंचाया. इस तरफ दंगों की आग अभी ठंडी भी नहीं हुई थी, ऐसे समय में धधकती ज्वाला जैसी परिस्थिति में, २६ फरवरी को दोपहर के बाद भारत के नेशनल सिक्योरिटी एड्वाइजर अजित डोभाल ने दिल्ली के दंगाग्रस्त इलाकों का पैदल दौरा करने का साहस दिखा कर वहां की परिस्थितियों का खुद अनुमान लगाने का प्रयास किया और इसके माध्यम से दंगे के षड्यंत्रकारियों को संदेश दिया कि तुमसे कोई डरनेवाला नहीं है- भारत की सरकार अब वो नहीं है जो किसी जमाने में तुम्हारा बचाव करती थी, और इतना ही नहीं
इस देश के संसाधनों पर सबसे पहले अधिकार मुसलमानों का है’ ऐसा सार्वजनिक रूप से कहकर तुम्हारा दुलार करती थी.
हिंदू कितने अत्याचारी हैं, ऐसे गढे हुए किस्सों, अफवाहों को हकीकत बनाकर वामपंथी मीडिया के साथ मिलीभगत करके हम तक पहुंचाया जाता है और हमारा ब्रेनवॉश किया जाता है.
दिल्ली के दंगे देश के पहले दंगे नहीं थे. आजादी से पहले और आजादी के बाद के वर्षों में भारत में सांप्रदायिक दंगे होते रहे हैं. एक सामान्य सोच ये है कि भारत में होनेवाले सांप्रदायिक दंगों में बहुसंख्यक हिंदुओं की गलती होती है और अल्पसंख्यक मुसलमान विक्टिम होते हैं. ऐसा पर्सेप्शन बनने का कारण क्या है? इन दंगों की रिपोर्टिंग करनेवाला वामपंथी मीडिया तथा इस प्रकार की घटनाओं का डॉक्युमेंटेशन करनेवाली तीस्ता सेतलवाड जैसी ऐक्टिविस्ट्स द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं की ओर से एक नैरेटिव खडा किया जाता है जिसमें अर्धसत्य तथा अति की भरमार होती है. मुसलमानों की गलती वाली घटनाओं को ढंककर (और कभी उसे जस्टीफाय करके) मुसलमान किस तरह से दंगों का शिकार बने और तबाह हुए ऐसी अतिशयोक्ति भरी, अर्ध सत्य और पूरी तरह से सत्य से पृथक `हकीकतों’ तथा उपजाए गए साक्ष्यों को आप तक पहुंचाने में इन लोगों का ईको सिस्टम तथा इस ईकोसिस्टम के एको चैम्बर्स दिन रात लगे रहते हैं. चारों दिशाओं से वही की वही बात आपके कानों से टकराने लगती है इसीलिए आप मानने लगते हैं कि इस देश में अल्पसंख्यकों पर जुल्म हो रहा है. हिंदुओं को कहां कैसे नुकसान हुआ, हिंदुओं ने इन दंगों को शुरू नहीं किया और जब मौत सामने दिखी तब सेल्फ डिफेंस में कदम उठाया गया जैसी तमाम सच्चाइयों को इस नैरेटिव में दबा दिया जाता है. इतना ही नहीं, हिंदू कितने अत्याचारी हैं, ऐसे गढे हुए किस्सों, अफवाहों को हकीकत बनाकर वामपंथी मीडिया के साथ मिलीभगत करके हम तक पहुंचाया जाता है और हमारा ब्रेनवॉश किया जाता है. २००२ के गोधरा हिंदू हत्याकांड के बाद ऐसे कई दंगे मीडिया द्वारा रचे गए हैं. उसमें पत्रकार शेखर गुप्ता की बदमाशी का नमूना यदि आप भूल गए हों तो समय आने पर पुन:प्रकाशित करेंगे.
इंटरनेट, सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण हिंदुओं की बात हम तक पहुंचने लगी है. देश विरोधी तत्व दंगों के समय जो नैरेटिव खडा करते हैं, उनका खंडन करने के लिए, उनका झूठ बाहर लाने के लिए देश प्रेमियों को मेहनत करनी पडेगी और सजगता अब प्रत्यक्ष रूप से बाहर आ रही है और सजगता को अमल में लाने के सफल प्रयास भी शुरू हुए हैं. दंगे किस तरह से हुए, असल में कौन विक्टिम हुआ और षड्यंत्रकारियों की कडियां कहां तक पहुंची हैं, इन तमाम बातों का डॉक्युमेंटेशन करने की मेहनत भारत की आज की नहीं आनेवाली पीढियों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, यह बात अब स्वीकार की जा रही है. बीसेक वर्ष पहले २००२ में या तीसेक वर्ष पहले १९९३ में यही बात कुछ लोगों द्वारा ढोल ताशे पीटकर कही गई थी तो भी उस समय न तो ऐसी व्यापक जागरूकता थी और न ही सुविधाएं थीं.
गुजरात में १९६९ के, १९८५ के, १९९२ के (सूरत में) और २००६ (वडोदरा) के दंगों के समय भी अल्पसंख्यक लाचार तथा बहुसंख्यक खूनी का नैरेटिव खडा किया गया.
अब सबकुछ बदल रहा है. इस बदलाव का ये परिणाम आया कि २०२० के दिल्ली दंगों की घटनाओं का डॉक्युमेंटेशन हुआ और वह भी एक नहीं दो दो देशप्रेमी संगठनों द्वारा हुआ.
सबसे पहले ऑपइंडिया' की हिन्दी एडिटर नुपूर जे. शर्मा ने इन तीन दिनों के घटनाक्रम का तथा उसके बाद की प्रतिक्रिया/ पुलिस कार्रवाई का दस्तावेजीकरण करके एक पुस्तक लिखी:
ऐन ऑपइंडिया रिपोर्ट ऑन दिल्ली एंटी-हिंदू रायट्स २०२०’. इस पुस्तक का प्रिंट एडिशन करने के बजाय उसे सीधे अमेजॉन-किंडल पर ई-बुक के रूप में प्रकाशित किया गया. आप सभी जानते हैं कि बुक पब्लिशिंग की दुनिया में वामपंथी ईकोसिस्टम का एकछत्र राज चलता है और अमेजॉन जैसी ऑनलाइन शॉपिंग साइट के प्रकाशन विभाग में भी ऐसी मानसिकता के साथ मेल खानेवाले लोग भरे पडे हैं, जो भारत से ही कमाई करके भारत विरोधी मानसिकता के लोगों को प्रमोट करते हैं और राष्ट्रप्रेमियों को परेशान करते रहते हैं. नुपूर जे. शर्मा की पुस्तक के खिलाफ शुरूआत में अमेजॉन किंडल के कर्ताधर्ताओं ने आपत्ति उठाई, कवर पेज बदलने को कहा, लेकिन अंत में टफ फाइट करने के बाद कुछ ही दिनों में पुस्तक को किंडल पर जगह मिल गई और तुरंत बेस्ट सेलर बन गई.
दूसरी किताब मोनिका अरोरा और उनकी टीम ने तैयार की जिसका शीर्षक है:दिल्ली रायट्स २०२०: द अनटोल्ड स्टोरी'. यह पुस्तक ओरिजिनली ब्लूम्सबरी नामक विशाल अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन संस्था ने प्रकाशित करने का कॉन्ट्रैक्ट लिया था. लेकिन उसके ऑनलाइन प्रकाशन समारोह से कुछ ही दिन पहले ब्लूम्सबरी ने हथियार डाल दिए. बिलकुल अंतिम क्षण में इस प्रकाशन संस्थान ने आपत्तियां उठाईं जिसके मूल में इस प्रकाशन संस्थान के साथ जुडे नामचीन सेकुलर लेखकों की टोली थी. हैरी पॉटर जैसी श्रृंखला जैसी अनेक बेस्ट सेलर पुस्तकों की इस प्रकाशन संस्था ने जैसे ही इस पुस्तक का प्रकाशन रोका कि तुरंत ही
गरुड प्रकाशन’ नामक राष्ट्रवादी प्रकाशन संस्था ने इस पुस्तक का प्रकाशन करने के हक प्राप्त कर गहले ग्राहक पंजीकरण शुरू किया और देखते देखते हजारों प्रतियों का ऑर्डर पाकर कीर्तिमान समय में उसका प्रकाशन करके खूब सारे पाठकों के दिल में जगह बनाई. इस पुस्तक के प्रिंट एडिशन के अलावा किंडल पर ई-बुक भी उपलब्ध है. कुछ समय पहले उसका सुंदर हिंदी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है और थोडे ही समय में गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित होने जा रहा है.
दंगे, प्रदर्शन तथा देश के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करनेवाली तमाम घटनाएं जब होती हैं तब उन घटनाओं का दस्तावेजीकरण कर लेना चाहिए, वामपंथी मीडिया के भरोसे या तीस्ता सेतलवाड के भरोसे न रहें, अन्यथा वे पूरा नैरेटिव ही बदल देंगे और ऐसा माहौल खडा करेंगे जिसमें ये घटनाएं हम उनके चश्मे से देखने लगेंगे. यह बात जनवरी १९९३ में बाबरी ध्वंस की पहली मासिक तिथि के बाद हुए मुंबई के सांप्रदायिक दंगों के समय देखी गई थी. २७ फरवरी २००२ के बाद गुजरात में भी देखी है. बिलकुल पिछले साल बैंगलोर में ११-१२ अगस्त को हुए दंगों में भी देखी है. हर समय मुस्लिम को बेचारे और हिंदू को आक्रमणकारी के रूप में चित्रित करने की कोशिश हुई.
गुजरात में १९६९ के, १९८५ के, १९९२ के (सूरत में) और २००६ (वडोदरा) के दंगों के समय भी अल्पसंख्यक लाचार तथा बहुसंख्यक खूनी का नैरेटिव खडा किया गया. देश में जहां भी दंगे हुए वहां हर जगह हिंदुओं की गलती थी और मुसलमानों का भोग लिया गया, ऐसा स्थापित करने का प्रयास हुआ. फिर चाहे वह रांची (१९६७) के दंगे हों या फिर मुरादाबाद (१९८०), नेल्ली (१९८३), भिवंडी (१९८४), मेरठ (१९९१), सीतामढी-बिहार (१९९२), कोयंबटूर (१९९७), मऊ-यूपी (२००५) के या इसके अलावा अनेक दंगे हों. अधिकांश मामलों में देशद्रोही तत्वों ने जो नैरेटिव खडा किया वही नैरेटिव उनके द्वारा पाले गए मीडिया-ईको सिस्टम द्वारा हम तक पहुंचते हैं. सत्य कभी बाहर आ भी जाता है तो उसे और गहराई तक दबा दिया जाता है जिससे हम खुद ही अपने ही लोगों पर थू थू करते रहते हैं. फिर सारी दुनिया में प्रचार होता रहता है कि भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं है, भारत का मुसलमान डरा हुआ है.
ऐसे कुप्रचारों की आंधी में नुपूर जे. शर्मा ने ऑपइंडिया द्वारा और मोनिका अरोरा ने गरूड प्रकाशन द्वारा जो नेत्रदीपक काम किया उसे दिल्ली दंगों की पहली बरसी के मौके पर याद करने के आशय से इतना कुछ लिखा है. अपना इतिहास हमें अपनी दृष्टि से देखना-सीखना-स्वीकारना चाहिए. देशद्रोही वामपंथी सेकुलरों के ईकोसिस्टम को दम लगा के हैशा, जोर लगा के हैशा, पैर जमा के हैशा करके उसका ध्वंस करने का काम जारी रखें, ऐसा संकल्प आज लेना चाहिए.
अभी भी देर नहीं हुई है. २०२४ के चुनाव में मोदी को वोट दे आएंगे और देशप्रेम व्यक्त हो गया और मतदान से लौटने के बाद आकर अन्य पांच साल तक हर दिन आराम से बेडरूम में जाकर सो जाने की मानसिकता रखकर बेध्यान होकर जीना न सीखें. यह चेतावनी का सायरन है. चौकन्ना रहना होगा. हर दिन. चौबीसों घंटे, सातों दिन. गणवेश पहन कर सरहद पर पहरा देनेवाले जवानों को सौ सौ सलाम तो है ही. देश के आंतरिक दुश्मनों के सामने लड रही नुपूर जे. शर्मा और मोनिका अरोरा जैसे कलम के सिपाहियों को भी आज के दिन सलाम.
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