आखिरकार माननीय सर्वोच्च न्यायालय को भी वो निर्णय लेना पड़ा जो उसे न चाहते हुए भी विवश होकर लेना पड़ा। संसद द्वारा पारित क़ानून के विरोध में कुछ लोग , राजधानी दिल्ली को घेर कर सिर्फ और सिर्फ अपनी माँग पर अपनी एक ज़िद पर अड़ कर बैठ गए हैं कि – इन कानूनों को सरकार वापस ले क्यूंकि उन्हें आशंका है कि इससे बड़े व्यापारिक घराने किसानों की जमीन छीन लेंगे।

अब इन सबके बीच अदालत का क्या और कितना काम ?? संसद में पूरी चर्चा और विमर्श के बाद पिछले दो दशक से सारा आकलन विश्लेषण करने के बाद कोई क़ानून पारित होता है। क़ानून के प्रभाव -दुष्प्रभाव ,परिणाम आदि के दिखने सामने आने से पहले ही उसका विरोध शुरू हो जाता है। दोनों पक्ष अदालत का रुख करते हैं।

अदालत बार बार दोनों पक्षों को आपस में बैठ कर बातचीत से इस सारे मसले को सुलझाने के लिए कहती है , लेकिन वो तो सरकार भी न सिर्फ कह रही थी बल्कि खुद आज तक बार बार ,बुलाकर उनसे विमर्श और वार्तालाप करके उनकी सारी आशंकाओं को दूर करने का प्रयास करती रही है , किन्तु यदि समस्या ही -क़ानून नहीं बल्कि उसे बनाने वाली सरकार हो तो फिर यही होता है जो अब तक होता आ रहा है।

न्यायपालिका के पास सारी पंचायत करने का समय भी नहीं है और उसे करना भी नहीं चाहिए। अदालतें कानून की व्याख्या के लिए बनी हैं खुद क़ानून बनाने के लिए नहीं। यही कारण है कि अदालत के निर्देश पर चार सम्बंधित विशेषज्ञों को ये जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे ही दोनों पक्षों के विरोध को समझ कर कोई बीच का रास्ता निकाल कर ये गतिरोध ख़त्म करने में अदालत ,सरकार और किसानों की सहायता करें।

लेकिन जिन्हें , प्रचंड बहुमत से चुनी गई सरकार पर भरोसा नहीं , नरेंद्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री जिन पर आज दुनिया विश्वास जता रही है उन पर कोई यकीन नहीं , उनके साथ बैठ कर लगातार बातचीत और विमर्श करने वाले मंत्री और अधिकारियों पर भी कोई भरोसा नहीं है तो फिर उन्हें अदालत पर और अदालत की बनाई किसी भी समिति पर भरोसा क्यूँ हो ??

अगले दस दिनों के अंदर ये समिति अपनी पहली बैठक करने की घोषणा कर चुकी है उधर आंदोलनकारियों ने भी घोषणा की है -26 जनवरी ,गणतंत्र दिवस के दिन ट्रैक्टर रैली निकाल कर देश दुनिया में भारत का नाम और छवि नीचा दिखाने का प्रयास करेंगे। विकास और ख़ुशहाली के प्रतीक त्यौहारों पर किसान बिल को जलाकर जाने कौन से घरों में उजाला करने की घोषणा की गई है।

असल में किसी भी आम भीड़ की तरह एकत्र हुए इन प्रदर्शनकारियों का न तो कोई नेतृत्व है और न ही समस्या पर बात करने के लिए , समाधान का प्रस्ताव देने के लिए ही विशेष व्यक्ति या समूह हैं। यही कारण है कि पिछले लगभग 50 दिनों से सड़क पर होने के बावजूद भी इनके साथ न तो पूरे देश के किसान हैं और न ही उनकी संवेदना।

इस नई पहल से जहां किसान खुद अपने ही फैलाए जाल में उलझ कर रह गए हैं वहीँ बीच बचाव करने उपस्थित न्यायपालिका को भी अब सारी वस्तुस्थिति का पता खुद चल जाएगा। रही बात सरकार और आम लोगों की तो वे दोनों निरंतर एक दूसरे पर भरोसा जताते हुए कोरोना के आखिरी लड़ाई लड़ने में लगे हुए हैं, ये विरोध , ये प्रदर्शन , सड़क बंदी आदि तो अब इस देश को आगे के सालों में भी बहुत देखने हैं अभी।

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