1947 की आज़ादी से 22 वर्ष पूर्व एक घटना ऐसी हुई थी जिसने भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के साथ ब्रिटेन की महारानी के सिंहासन को भी हिला दिया था। वो घटना थी 09 अगस्त 1925 को घटित ऐतिहासिक काकोरी कांड।
लेकिन क्या आपको पता है काकोरी कांड के मास्टरमाइंड कौनसे क्रांतिकारी थे ?
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की अठारहवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे उसी महान क्रांतिकारी के बारे में जिनके बिना काकोरी कांड कभी नही होता। वो क्रांतिकारी है – शचीन्द्रनाथ सान्याल।

शचीन दा का जन्म 03 अप्रैल 1893 को उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था। क्रांति की ज्वाला बचपन से ही दिल मे धधक रही थी और यही कारण था कि जैसे ही थोड़े समझदार हुए तो वर्ष 1908 में मात्र 15 वर्ष की आयु में काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन कर दिया।
वर्ष 1913 में शचीन दा की मुलाकात एक और प्रसिद्ध क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से हुई।
ये शचीन दा की मेहनत ही थी कि 1920 के दशक में काशी उत्तर भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों का प्रमुख केंद्र बन गया।

वर्ष 1915 में शचीन दा पहली बार बनारस कांसीप्रेंसी में शामिल हुए, जिसमें उन्होंने एक सिक्ख रेजिमेंट द्वारा शुरू किए आंदोलन में भाग लिया। इस आंदोलन में भाग लेने के कारण शचीन दा को आजीवन कालापानी की सजा दी गयी और उनकी संपत्ति को ब्रिटिश सरकार ने जब्त कर लिया। प्रथम विश्व युद्धोपरांत शाही घोषणा के परिणामस्वरूप फरवरी 1920 में अन्य क्रांतिकारियों के साथ शचींद्रनाथ भी रिहा कर दिए।

इसी बीच गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत कर दी थी जिस कारण क्रांतिकारियों ने अपना कार्य कुछ समय के लिए स्थगित कर दिया, लेकिन चौरा चौरी जनाक्रोश के कारण गांधी के द्वारा आंदोलन वापिस लेने के निर्णय ने देश के सारे युवा क्रांतिकारियों में निराशा उत्पन्न कर दी।
शचीन दा भी उनमें एक ही थे जो खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे।

ऐसे में शचीन दा ने पुनः क्रांतिकारी संगठन का कार्य शुरू कर दिया। 1923 के प्रारंभ में रावलपिंडी से लेकर दानापुर तक लगभग 25 केंद्रों की उन्होंने स्थापना कर ली थी। इस दौरान शचीन दा का लाहौर में तिलक स्कूल ऑफ पॉलिटिक्स के कुछ छात्रों से संपर्क हुआ, इन छात्रों में सरदार भगत सिंह भी थे। भगतसिंह को उन्होंने दल में शामिल कर लिया और उन्हें संगठन के कार्य हेतु कानपुर भेज दिया। इसी समय उन्होंने कलकत्ता से जतींद्रदास को चुन लिया। ये वही जतिन दा है, जिन्होंने लाहौर षड्यंत्र केस में 63 दिन की भूख हड़ताल कर अपने जीवन का बलिदान कर दिया।

इसके कुछ दिनों बाद शचीन दा ने क्रांतिकारी संगठन का नाम बदलकर “हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” कर दिया और इस संगठन का मुख्य उद्देश्य था – सुसंगठित और सशस्त्र क्रांति द्वारा भारतीय लोकतंत्र संघ की स्थापना करना।
साथ ही विदेशों में कार्य कर रहे भारतीय क्रांतिकारी संगठनों से सम्पर्क रखना एवं क्रांतिकारी साहित्य का सृजन करना भी इन्होंने अपने लक्ष्य बनाए।

शचीन दा के द्वारा लिखी गयी पुस्तक

काकोरी योजना का ब्लू प्रिंट काशी में चंद्रशेखर आजाद और राजेन्द्र लाहिड़ी के साथ मिलकर शचीन दा ने ही तैयार किया था। शचीन दा की योजना के अनुसार ही 09 अगस्त 1925 को ऐतिहासिक काकोरी कांड को अंजाम दिया गया था। इस घटना से ब्रिटिश सरकार बुरी तरह तिलमिला गयी थी और उसने अपनी सारी शक्ति इस कांड के क्रांतिकारियों को पकड़ने में लगा दी।
संगठन के प्रमुख नेता के रूप में शचीन दा भी पकड़े गए और उन्हें आजीवन कालापानी की सजा दी गई, ये उनके जीवन की दूसरी कालापानी की सजा थी।

वर्ष 1937 में संयुक्त प्रदेश (उत्तरप्रदेश) में कांग्रेस मंत्रिमंडल की स्थापना के बाद अन्य क्रांतिकारियों के साथ शचीन दा भी रिहा कर दिए गए।
शचीन्द्रनाथ जी ने देश के लिए अपने जीवन के 20 साल ब्रिटिश जेलों में गुजार दिए। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान भी उनको “डिफेंस ऑफ इंडिया रुल्ज” के तहत गिरफ्तार कर जेल भेजा गया और दो बार उन्हें कालापानी की सजा भी दी गई।

इण्टर कॉलेज काशी में स्मृति स्मारक

जीवन के आखिरी दिनों में भी शचीन दा राजनीतिक रूप से नजरबंद ही रहे, शचीन दा क्षय रोग से भी पीड़ित हो गए और 07 फरवरी 1942 को गोरखपुर में इस महान क्रांतिकारी की गुमनामी में मृत्यु हो गई।
अफसोस की बात ये है कि जिस क्रांतिकारी ने अपना पूरा जीवन राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया, कुछ वामपंथी इतिहासकारों की वजह से वो अपने ही देश में गुमनाम हो गए।
भारत माँ के इस महान सपूत को हमारा शत् शत् नमन।
जय हिंद
????

DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.