आजकल एक भदा चलन चला है जिसमें कुछ कथित इतिहासकार और उनके चेले चपाटे हमारे महापुरुषों को झठ से सेकुलर बता देते हैं, चाहे यह महाराणा प्रताप के लिए हो या छत्रपति शिवाजी राजे के लिए हो।
आजकल तो यह तक दावा किया जा रहा है कि शिवाजी महाराज इतने सेकुलर थे कि उनके प्रशासनिक अधिकारियों में 40% मुसलमान में थे। परंतु वास्तविकता इसके उलट है शिवाजी महाराज की पुरी प्राशासनिक ईकाई में केवल 3 मुसलमान थे।
शिवाजी महाराज ने जो किसी विवशता के चलते धर्म के मार्ग से पथभ्रष्ट होकर म्लेच्छ हो गए थे, उनको पुनः धर्म के मार्ग पर लाया। उन्होंने फारसी के स्थान पर पुनः संस्कृत भाषा को प्रभावी ढंग से लागू किया

यहां में राजा छत्रसाल और राजे मध्य हुए संवाद का जो वर्णन राजा छत्रसाल के राज कवि गोरे लाल तिवारी ने अपनी पुस्तक “छत्र प्रकाश” में किया है उसका वर्णन करता हूं।

एक दिन शिकार पर जाने का बहाना बनाकर छत्रसाल मुगल सेना से निकल भागे और अपनी पत्नी देवकुँवर के साथ शिवाजी से भेंट हेतु दक्षिण की ओर चल पड़े। भीमा नदी पार कर उन्होंने शिवाजी से भेंट की। शिवाजी से छत्रसाल की यह भेंट 1667 ई. के अन्तिम महीनों में हुई। गोरे लाल तिवारी ने
इस भेंट के सम्बन्ध में लिखा है,

हिन्दु धर्म की रक्षा और हिन्दु स्वातन्त्र्य का बीड़ा उठाने वाले ये दोनों वीर एक-दूसरे को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। इसके पहले दोनों ने एक-दूसरे की कीर्ति सुनी थी और दोनों के हृदयों में परस्पर मिलने की उत्कण्ठा हो रही थी। उनकी इच्छा पूर्ण हुई और मिलने में उन दोनों को जो आनन्द हुआ उसे कहना असम्भव है। . . . शिवाजी छत्रसाल की वीरता और चातुर्य को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। छत्रसाल की स्वातन्त्र्यप्रियता, अद्वितीय स्वधर्माभिमान और अप्रतिम साहस देखकर शिवाजी महाराज की छाती गदगद हो गई। उन्होंने छत्रसाल का प्रेम के साथ आलिंगन किया।” छत्रसाल कुछ दिन तक शिवाजी के पास पूना में ही रहे। उन्होंने वहाँ रहकर शिवाजी के युद्ध-कौशल, उनकी कूटनीति एवं शासन संगठन की प्रारम्भिक
जानकारी प्राप्त की। छत्रसाल चाहते थे कि वे शिवाजी के साथ रहकर मराठों को स्वाधीनता संग्राम में योगदान दें। शिवाजी इसके लिए तैयार नहीं हुए। तब छत्रसाल ने शिवाजी से कहा कि

“जिस प्रकार हो पूर्ण प्रतिज्ञा
हो निज देश स्वतन्त्र
सब प्रकार से मुझे दीजिए
वही एक गुरु-मन्त्र”

छत्रसाल के इस प्रकार के आग्रह पर गुरु-मन्त्र के रूप में शिवाजी ने छत्रसाल को परामर्श दिया कि वह बुन्देलखण्ड लौटकर मुगलों के विरुद्ध स्वतन्त्रता संघर्ष करें। लाल कवि ने शिवाजी द्वारा छत्रसाल को दिए गए परामर्श को इन पंक्तियों में व्यक्त किया है –

ध्यान से पढ़ना तुर्कों‌ को लेकर शिवाजी के क्या विचार थे-

“सिवा किसा सुनि कै कही, तुम छत्री सिरताज ।
जीत आपनी भूम कौ, करौ देश को राज ।।
करो देश को राज छतारे हम तुम तें कबहुँ नहिं न्यारे ।
दौरि देस मुगलन को मारो, दबाटि दिली के दल संहारौ।।
तुरकन की परतीत न मानौ, तुम केहरि तुरकन गज जानौ ।
तुरकन में न विवेक विलोक्यो मिलन गए हमको उन रोक्यो।।
हमको भई सहाइ भवानी। भय नहीं मुगलन की मन मानो।।
छल बल निकसी देश में आये। अब हम पै उमराई पठाये।।
हम तुरकनि पर कसी कृपानी। मारी करैंगै कीचक घानी।।
तुमहू जाइ देस दल जारो। तुरक मारि तरवारनि तारो।।
राखि हिये ब्रजनाथ को, हाथ लेउ करवार।
है रक्षा करिहै सदा, यह जानो निरधार।।
छत्रनि की यह वृत्त बनाई। सदा तेग की खाई कमाई।।
गाइ वेद विप्रन प्रतिपाले। घाउ एड़धारिन पर घाले।।
तैगधार में जो तन छूटै। तो रवि भेद मुकत सुख लुटै।।
जेतपत्र जो रन में पावे। तौ पुहुनी के नाथ कहावै।।
तुम हौ महावीर मरदानै । करिहौ भूमि भांग हम जाने ।।
जो इतही तुमकौं हम राखें । तौ सब सुजस हमारे भाई ।।
ताते जाई मुगल दल मारौ। सुनिये श्रवननि सुजस तिहौरो।।
यह कहि तेग मंगाई बंधाई। बीर बदन दूनी दुति आई।।”

अर्थात् हे पराक्रमी राजा, तुम अपने शत्रुओं का नाश करो और विजय प्राप्त करो। अपने देश पर अधिकार करके फिर उस पर अपना राज्य जमाओ। बादशाही सेना की परवाह मत करो। कपटी तुर्क लोगों का विश्वास न कर मुगलों का नाश करो।
जब तुम्हारे ऊपर मुगल लोग आक्रमण करेंगे तब मैं तुम्हारी सहायता करूँगा और तुम्हारा स्वतन्त्र होने का प्रण रखूगा। जब-जब मुगलों ने मुझसे युद्ध किया देवी भवानी ने मेरी सहायता की। देवी भवानी की कृपा से मैं मुगलों की विशाल शक्ति से बिल्कुल नहीं डरता। कपटी मुसलमानों के कई सरदार मेरे सहायक बनकर मेरे पास आए और उन्होंने धोखे से मेरे ऊपर कई वार करना चाहे परन्तु मैंने उन पर अपनी तलवार चलाकर उनका नाश किया। इसलिए तुम जल्दी अपने देश को
वापस जाओ। सेना तैयार करो और मुसलमानों को बुन्देलखण्ड से मार भगाओ, सदा अपने हाथ में नंगी तलवार लिए युद्ध के लिए तत्पर रहो। ईश्वर अवश्य ही तुम्हें विजय देगा। गौ-ब्राह्मणों का पालन करना, वेदों की रक्षा करना और समरभूमि में शौर्य दिखलाना ही क्षत्रियों का धर्म है। इसमें यदि मृत्यु हुई तो स्वर्ग
मिलता है और यदि विजय हुई राज्य और अमर कीर्ति मिलती है। इसलिए तुम अपने देश में जाकर विजय प्राप्त करो।”
शिवाजी द्वारा छत्रसाल को दिया गया यह उपदेश, गीता में कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश जैसा था। शिवाजी महाराज के इस उपदेशामृत का पान कर छत्रसाल का हृदय अदम्य उत्साह एवं हर्ष से भर गया। इसके बाद शिवाजी ने छत्रसाल को अपनी भवानी तलवार भेंट की और आशीर्वाद देकर विदा किया। तलवार भेंट के सम्बन्ध में छत्रप्रकाश में उल्लेख है कि

राखि हिऐ ब्रजनाथ को, हाथ लेऊ करवार
ये रक्षा करिहै सदा, यह जानौ निरधार

लालधर त्रिपाठी ने छत्रसाल को शिवाजी द्वारा “भवानी” तलवार प्रदान करने का उल्लेख इन शब्दों में किया है।

ध्यान भवानी का कर मन में
तुम कर में करवाल संभालो
बनकर के स्वाधीन, देश पर
तुम अपने अधिकार जमा लो।

जय शिव छत्रपति ?

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