स्वतंत्रता की लड़ाई में अनेक युवा देशभक्तों के साथ साथ वरिष्ठ नागरिकों ने भी भाग लिया था, उन्हीं नामों में से एक नाम प्रमुख है – वीर कुँवर सिंह।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख श्रृंखला की बाईसवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे उन महान क्रांतिकारी के बारे में जिनके लिए ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने लिखा है कि,
“उस वृद्ध राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन-बान के साथ लड़ाई लड़ी। गनीमत था कि उस समय कुंवर सिंह करीब 80 वर्ष के थे। अगर वह जवान होते तो शायद अंग्रेजों को 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।”

वीर कुंवर सिंह का जन्म नवंबर 1777 में बिहार के जगदीशपुर गाँव में हुआ था। बचपन से ही वो घुड़सवारी, निशानेबाजी, तलवारबाजी आदि को सीखते सीखते उनमें दक्ष हो गए थे। उनकी रियासत ने अंग्रेजों के शासन के बावजूद अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा हुआ था, अपने दादा और पिता की मृत्यु के बाद ये जिम्मेदारी अब वीर कुंवर सिंह पर थी। कुंवर सिंह ने वर्ष 1827 में रियासत की जिम्मेदारी संभाली। उन दिनों ब्रिटिश हुकूमत का अत्याचार अपने चरम पर था।
सहृदय और लोकप्रिय वीर कुंवर सिंह का उनके बटाईदार बहुत सम्मान करते थे। वह अपने गांववासियों में लोकप्रिय थे, साथ ही अंग्रेजी हुकूमत में भी उनकी अच्छी पैठ थी। कई ब्रिटिश अधिकारी उनके मित्र रह चुके थे लेकिन इस दोस्ती के बावजूद भी कुंवर सिंह कभी अंग्रेजनिष्ठ नहीं बने।
बताया जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज के बाद भारत में वह दूसरे योद्धा थे, जिन्हें गोरिल्ला युद्ध नीति की जानकारी थी। अपनी इस नीति का उपयोग उन्होंने बार-बार अंग्रेजों को हराने के लिए किया।

जगदीशपुर के जंगलों में “बसुरिया बाबा” नाम से एक सिद्ध सन्त रहते थे। उन्होंने ही कुंवर सिंह के मन में देशभक्ति एवं स्वाधीनता की भावना उत्पन्न की थी। वीर कुंवर सिंह वर्ष 1845 – 46 में काफी सक्रिय रहे और गुप्त ढंग से ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ विद्रोह की योजना बनाते। उन्होंने बिहार के प्रसिद्ध ‘सोनपुर मेले’ को अपनी गुप्त बैठकों की योजना के लिए चुना।

वर्ष 1857 में जब भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत हुई तब वीर कुंवर सिंह की आयु 80 वर्ष थी लेकिन इस आयु में भी उन्होंने आरामदेह ठाठ बाठ को छोड़कर मातृभूमि के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध मुकाबला करने की ठानी। उनके दिल में देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने तुरंत अपनी शक्ति को एकजुट किया और अंग्रेजी सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला।
27 अप्रैल 1857 को दानापुर के सिपाहियों, भोजपुरी जवानों और अन्य साथियों के साथ मिलकर वीर कुंवर सिंह ने आरा नगर को अंग्रेजों से मुक्त कर दिया। इस तरह वीर कुंवर सिंह का अभियान आरा में जेल तोड़ कर कैदियों की मुक्ति तथा खजाने पर कब्जे से प्रारंभ हुआ।

वीर कुंवर सिंह ने दूसरा मोर्चा बीबीगंज में खोला, जहाँ 02 अगस्त 1857 को उन्होंने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। जब अंग्रेजी फौज ने पुनः आरा पर हमला कर कब्जा करने की कोशिश की तो बीबीगंज और बिहिया के जंगलों में घमासान लड़ाई हुई। बहादुर स्वतंत्रता सेनानी जगदीशपुर की ओर बढ़ गए तब अंग्रजों ने जगदीशपुर पर भयंकर गोलाबारी की। अंग्रेजों की निर्ममता देखिए कि घायलों को भी फांसी पर लटका दिया, महल और दुर्ग खंडहर कर दिए। 13 अगस्त 1857 को कुंवर सिंह की सेना अंग्रेजों से पराजित हो गयी। वीर कुंवर सिंह पराजित भले ही हुए हो लेकिन अंग्रेजों की सत्ता को खत्म करने का उनका जज्बा ज्यों का त्यों बना हुआ था।
सितंबर 1857 में वे रीवा की ओर निकल गए, वहाँ उनकी मुलाकत नाना साहब से हुई और वे अंग्रेजों के विरुद्ध एक और जंग करने के लिए बांदा से कालपी पहुंचे लेकिन लेकिन अंग्रेज सेनापति कॉलिन के हाथों तात्या टोपेजी की हार के बाद कुंवर सिंह कालपी नहीं गए और लखनऊ आ गए।

लखनऊ में शांति नही थी इसलिए कुंवर सिंह ने आजमगढ़ की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने आज़ादी की इस आग को बराबर जलाए रखा। उन्होंने आंदोलन को और मजबूती देने के लिए मिर्जापुर, बनारस, अयोध्या, लखनऊ, फैजाबाद, रीवा, बांदा, कालपी, गाजीपुर, बांसडीह, सिकंदरपुर, मनियर और बलिया समेत कई अन्य जगहों का दौरा किया। वहां उन्होंने नए साथियों को संगठित किया और उन्हें अंग्रेजों का सामना करने के लिए प्रेरित किया।

वीर कुंवर सिंह की वीरता की कीर्ति पूरे उत्तर भारत में फैल गयी थी। कुंवर सिंह की इस विजय यात्रा से अंग्रेजों के होश उड़ गए थे। ब्रिटिश सरकार के लिए वीर कुंवर आंख की किरकिरी बन गए थे, जिसे निकाल बाहर फेंकना उनके अस्तित्व के लिए बेहद ज़रूरी था। अंग्रेजों ने अपनी सैन्य शक्ति बढाई, कुछ भारतीयों को पैसे का लालच देकर अपने साथ मिला लिया। फिर भी उनके लिए वीर कुंवर से छुटकारा पाना आसान नहीं रहा। कहते हैं कि अपनी अनोखी युद्ध नीति से वीर कुंवर सिंह ने 7 बार अंग्रेजों को हराया था।

आजमगढ़ में भी कुंवर सिंह ने अंग्रेजों को करारी शिकस्त दी, हालांकि हर बार हारने के बाद अंग्रेज़ी हुकूमत दोबारा अपनी पूरी ताक़त से हमला करके अपना कब्ज़ा वापिस ले लेती थी, पर उनके दिल में वीर कुंवर का डर बैठ चुका था। अधिकारी जल्द से जल्द उनसे छुटकारा पाना चाहते थे।
आजमगढ़ युद्ध के बाद कुंवर सिंह 20 अप्रैल 1858 को गाजीपुर के मन्नोहर गांव पहुंचे। वहाँ से वह आगे बढ़ते हुए वे 22 अप्रैल को गंगा नदी के मार्ग से जगदीशपुर के लिए रवाना हो गये। इस सफर में उनके साथ कुछ साथी भी थे, लेकिन इस बात की खबर किसी देशद्रोही ने अंग्रेजों तक पहुंचा दी।

ब्रिटिश सेना ने इस मौके का फायदा उठाते हुए रात के अंधेरे में नदी में ही उन पर गोलियां बरसाना शुरू कर दिया। अंग्रेजों की तुलना में उनके सिपाही कम थे लेकिन वीर कुंवर तनिक भी भयभीत नहीं हुए। उन्होंने अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का मुकाबला किया। इस मुठभेड़ में एक गोली उनके बाएं हाथ में आकर लगी, लेकिन उनकी तलवार नहीं रुकी। कुछ समय पश्चात जब उन्हें लगा कि गोली का जहर पूरे शरीर में फ़ैल रहा है तो उन्होंने भावपूर्ण नेत्रों से गंगा मैया की ओर देखा और अपने बाएं हाथ को काटकर गंगा मैया को समर्पित कर दिया। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में कहा,
“हे गंगा मैया ! अपने प्यारे की यह अकिंचन भेंट स्वीकार करो।”
हाथ कट जाने के बावजूद भी वह लड़ते रहे और जगदीशपुर पहुंच गए, लेकिन तब तक जहर उनके शरीर में फ़ैल चुका था और उनकी तबियत काफी नाजुक हो गई थी। उनका उपचार किया गया और उन्हें सलाह दी गई कि अब वह युद्ध से दूर रहे।

लेकिन वीर कुंवर को अपनी रियासत अंग्रेजों से छुड़ानी थी और उन्होंने अपने जीवन के अंतिम युद्ध का बिगुल बजाया। 80 वर्ष के ये वीर यौद्धा भीष्म पितामह की तरह लड़ते रहे, कुंवर सिंह ने एक बार फिर हिम्मत जुटाई और जगदीशपुर में स्थित अपने किले को एक बार फिर अंग्रेजों से मुक्त करा लिया। इस रणबांकुरे ने जगदीशपुर किले से अंग्रेजों का ‘यूनियन जैक नाम का झंडा उतार कर ही दम लिया। उनकी वीरता के आगे एक बार फिर अंग्रेजों ने घुटने टेके और जगदीशपुर फिर से उनका हो गया।

इस विजय का जश्न वीर कुंवर सिंह अधिक दिनों तक नही मना सके क्योंकि अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों के कब्ज़े से आज़ाद कराने के तीन दिन बाद 26 अप्रैल 1858 को कुंवर साहब वीरगति को प्राप्त हो गए।
बिहार के प्रसिद्ध कवि मनोरंजन सिंह प्रसाद ने इसलिए लिखा है,
“था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था।
सब कहते हैं, कुंवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था।।”

भारत माँ के महान सपूत, वीर सेनानायक, अदम्य साहस के प्रतीक वीर कुंवर सिंह जी को शत् शत् नमन।
जय हिंद
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वीर कुंवर सिंह”

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