हाथों में भगवद्गीता लिए हुए जब उस 18 वर्ष के युवा को 11 अगस्त 1908 को फांसी दी जा रही थी तब उसकी आँखों में ना तो मौत का भय था और ना ही ललाट पर चिंता की लकीरें।
क्योंकि जो महान सेवा उस 18 वर्ष के साधक ने मां भारती के लिए की थी उसमें ना तो भय था और ना ही चिंता, उसमें था मात्र एक गर्वित स्वाभिमानी अहसास जिसे हर एक सच्चा भारतीय महसूस कर पा रहा था।
जी हाँ, हम इस लेख की पहली कड़ी में बात कर रहे है महान स्वतंत्रता सेनानी एवं सबसे कम उम्र के क्रांतिकारी श्री खुदीराम बोस की, जिन्होंने मात्र 18 वर्ष की अल्पायु में इस देश के लिए अपने प्राणों का विसर्जन कर दिया।

पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले से सम्बन्ध रखने वाले खुदीराम बोस बचपन से ही क्रांति का जज्बा रखते थे, स्कूल के दिनों में भी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध नारे लगाते थे यही कारण था कि नौंवी कक्षा के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़कर अपना जीवन पूरी तरह राष्ट्र के लिए समर्पित कर दिया।
अपनी राष्ट्रभक्ति से खुदीराम बोस ने जल्द ही सबको प्रभावित कर लिया और इसी कारण उन्हें प्रफुल्ल चाकी के साथ उस समय के क्रूर जज किंग्सफोर्ड को मारने की अहम जिम्मेदारी दी गई।
प्रफुल्ल चाकी एवं खुदीराम बोस ने किंग्सफोर्ड को बम से उड़ाने की योजना बनाई लेकिन दुर्भाग्य की बात ये रही कि जिस बग्घी पर इन्होंने बम फेंका उसमें किंग्सफोर्ड मौजूद नही था बल्कि एक दूसरे अंग्रेज अधिकारी की पत्नी और बेटी की मौत हो गई।
इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस के पीछे पड़ गयी।
स्वाभिमानी प्रफुल्ल चाकी स्वयं को अंग्रेजों के हाथों नही पकड़वाना चाहते थे इसलिए उन्होंने खुद को गोली मार ली जबकि खुदीराम बोस अंग्रेजों की पकड़ में आ गए।
जेल में खुदीराम बोस को कठिन यातनाएं दी गयी, उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया लेकिन उन्होंने अपने संगठन एवं अन्य साथियों के बारे में एक शब्द भी नही बताया, इसी कारण कोई ठोस गवाह ना होने के बावजूद भी अंततः उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई।
मात्र 18 वर्ष की आयु में जहां आज का युवा अपनी ज़िंदगी का कैरियर बनाने की सोचने लगता है वहां खुदीराम बोस जैसे भारत माँ के वीर सपूत ने अपनी ज़िंदगी ही माँ भारती के लिए समर्पित कर दी।
नमन है ऐसे वीर राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व को जिन्होंने अपना जीवन देकर इस राष्ट्र को सुरक्षित रखा।
जय हिंद ????
वन्देमातरम ????

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