वर्ष 1871 की एक शाम को 26 साल के एक लड़के को पत्र मिला कि उसकी माँ की तबीयत खराब है।
उसमें लिखा था कि, ‘वासु’ तुम शीघ्र ही घर आ जाओ, नहीं तो माँ के दर्शन भी शायद न हो सकेंगे।
अपने अंग्रेज अधिकारी के पास जब वासु छुट्टी मांगने गए तो उस अंग्रेज अधिकारी ने ना तो उन्हें छुट्टी दी बल्कि उन्हें अपमानित भी किया।
अगले दिन जब वासु जब घर पहुँचे तो उनकी माँ अपने प्यारे वासु को देखे बिना ही दुनिया को छोड़ गई।
इस बात का उनके मन पर गहरा आघात लगा और उसी दिन से उन्होंने अंग्रेजी शासन को समाप्त करने की प्रतिज्ञा ले ली।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख की सातवीं कड़ी में आज हम पढ़ेंगे भारत के प्रथम सशस्त्र क्रांतिकारी नायक के बारे में, जिनका नाम है वासु उर्फ वासुदेव बलवंत फड़के।

वासुदेव का जन्म 04 नवंबर 1845 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में हुआ था। वासुदेव बचपन से ही बड़े तेजस्वी और बहादुर थे। वर्ष 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में वो मात्र 12 वर्ष के ही थे लेकिन उनके मन में भी अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश था।
इसी आक्रोश को पूर्ण रूप मिला 1871 की घटना के बाद, इस घटना के बाद उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी भी छोड़ दी और पूरी ताकत के साथ अंग्रेजों का शासन उखाड़ फेंकने की तैयारी कर ली। उन पर सबसे अधिक प्रभाव महादेव गोविंद रानाडे जी का था।
देश में स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर उन्होंने भी ब्रिटिश राज के खिलाफ जंग की तैयारी शुरू कर दी। उन्हें देशी राज्यों से कोई सहायता नहीं मिली तो वासुदेव ने शिवाजी का मार्ग अपनाकर आदिवासियों की सेना संगठित करने की कोशिश शुरू की।

वर्ष 1879 में उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह की घोषणा कर दी। उन्होंने पूरे महाराष्ट्र में घूम-घूमकर नवयुवकों से विचार-विमर्श किया, और उन्हें संगठित करने का प्रयास किया।
जातिवाद का जहर घुला देखकर वासुदेव ने निर्णय लिया कि सभी जातियों को एक करना ही किसी उत्तम संगठन का निर्माण कर सकता है। वह जातिवाद से उठकर स्वराज का निर्माण करना चाहते थे। शुरुआत में लोगों ने उनसे एकमत होने के विषय पर नाराजगी जताई थी, तब उन्होंने भगवान श्रीराम को आदर्श मानते हुए एक संगठन का निर्माण किया और उसे “रामोशी” नाम दिया।
उन्होंने महाराष्ट्र में कोली,भील, धांगड़ जातियों को लेकर महाराष्ट्र के 7 जिलों में अपनी सेना तैयार की और कुछ दिनों के लिए पुणे को पूरी तरह अपने अधीन कर लिया।

उनका बनाया गया संगठन “रामोशी” भारत का प्रथम सशस्त्र संगठन था और वासुदेव भारत के प्रथम सशस्त्र क्रांतिकारी।
वो वासुदेव ही थे जिन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता के बाद आज़ादी के महासमर की पहली चिनगारी जलाई थी।
वो वासुदेव ही थे जिन्हें ‘सशस्त्र क्रांति का जनक’ कहा जाता है।
वो वासुदेव ही थे जिन्होंने 1857 की निराशा में पुनः आशा रूपी राष्ट्रवाद का संचार किया।
वो वासुदेव ही थे जिनकी वीरता की कहानियों के चलते बंकिम चटर्जी को ‘आनंद मठ’ में 5 बार संसोधन करने पड़े थे।

महाराष्ट्र के अधिकांश जिलों में वासुदेव का प्रभाव फैल चुका था, लोग उनसे प्रभावित हो रहे थे और “रामोशी” संगठन से जुड़ रहे थे।
अंग्रेज उनके बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो रहे थे और ऐसा बताया जाता है कि अंग्रेज उनके नाम से थर थर कांपते थे।
13 मई 1879 की रात को वासुदेव ने अपने साथियों के साथ अंग्रेजों पर हमला कर दिया और अंग्रेजों के भवन में आग लगा दी।
उसके बाद अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ने पर 50 हज़ार रुपए का इनाम घोषित किया, किन्तु दूसरे ही दिन मुम्बई नगर में वासुदेव के हस्ताक्षर से इश्तहार लगा दिए गए कि जो अंग्रेज़ अफ़सर ‘रिचर्ड’ का सिर काटकर लाएगा, उसे 75 हज़ार रुपए का इनाम दिया जाएगा। अंग्रेज़ अफ़सर इससे और भी बौखला गए।
इसके बाद अंग्रेज सेना और वासुदेव की सेना में काफी बार झड़पें भी हुई, लेकिन इन झड़पों से वासुदेव की सेना के गोले बारूद समाप्त होने लगे थे।
इस कारण ये निर्णय लिया गया कि कुछ समय तक शांत रहने में ही समझदारी है और पुणे के पास आदिवासी इलाकों में उन्होंने अपना ठिकाना बनाया।

20 जुलाई 1879 को वासुदेव बीमारी की हालत में एक मंदिर में आराम कर रहे थे, पर किसी धोखेबाज ने उनके यहाँ होने की खबर ब्रिटिश अफसर को दे दी और उसी समय उनको गिरफ्तार कर लिया गया।
उनके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गयी।
लेकिन एक बहुत ही विख्यात वकील महादेव आप्टे ने उनकी पैरवी की। जिसके बाद उनकी मौत की सजा को कालापानी की सजा में बदल दिया गया और उन्हें अदन (यमन) की जेल में भेजा गया।
फरवरी 1883 का वाकया था, उन्हें जेल की रोटी मंजूर नहीं थी। अंदर ही अंदर कुछ कर गुजरने की भावना मन में बढ़ रही थी इसलिए वो जेल से भाग गए लेकिन 17 मील तक पैदल भागने के बाद वासुदेव को पकड़ लिया गया।
इस बार उन्हें जेल में कठोर यातनाएं दी गई और इन्हीं कठोर यातनाओं के कारण 17 फरवरी 1883 को इस महान क्रांतिकारी, भारत माँ के वीर सपूत ने अपना जीवन समर्पित कर दिया वो भी माँ भारती को आज़ाद करवाने के सपने के साथ ही।

वासुदेव ने कहा था, “अंग्रेजों ने जितनी बीमारियां अब तक देश को दी हैं, उन सारी बीमारियों का एक ही इलाज है—स्वराज”
स्वराज के महान प्रणेता और यौद्धा वासुदेव बलवंत फड़के को शत् शत् नमन।
जय हिंद
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