“मैं एक हिंदू होने की हैसियत से समझाता हूं कि यदि हमारी मातृभूमि के विरुद्ध कोई जुल्म करता है तो वह ईश्वर का अपमान करता है। हमारी मातृभूमि का जो हित है, वह श्रीराम का हित है।”
अपने जीवन के अंतिम समय में भी जिनकी रगों में मातृभूमि के लिए खून दौड़ रहा था, आज Forgotten Indian Freedom Fighters की आठवीं कड़ी में हम उन्हीं वीर क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा के बारे में पढ़ेंगे।

मदनलाल ढींगरा का जन्म 18 सिंतबर 1883 को एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनके पिता सिविल सर्जन थे और अंग्रेजी रंग में पूरी तरह रंगे हुए थे।
उनका परिवार अंग्रेजों का विश्वासपात्र था और जब मदनलाल को भारतीय स्वतन्त्रता सम्बन्धी क्रान्ति के आरोप में लाहौर के एक कॉलेज से निकाल दिया गया तो परिवार ने मदनलाल से नाता तोड़ लिया।
मदनलाल ने जीवनयापन के लिए कुछ दिन मुम्बई में काम किया, फिर अपने बड़े भाई की सलाह पर सन 1906 में उच्च शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैण्ड चले गये जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में मेकैनिकल इंजीनियरिंग में प्रवेश ले लिया।

यहीं से उनके जीवन में एक नया मोड़ आता है।
लंदन में इंडिया हाउस नाम की एक जगह थी और इसे श्यामजी कृष्णवर्मा ने शुरू किया था।
इंडिया हाउस उन समर्पित भारतीय नौजवानों का केंद्र था जो अपने मुल्क को अंग्रेज़ों की कैद से आज़ाद देखना चाहते थे। इंडिया हाउस में जो ज्यादा क्रांतिकारी लोग थे, उनका एक सीक्रेट ग्रुप था और इस ग्रुप को उन्होंने नाम दिया था “फ्री इंडिया सोसाइटी”, इस ग्रुप का नेता भी एक 25 साल का युवक था और उस युवक का नाम था विनायक दामोदर सावरकर।
मदनलाल ढींगरा भी इस ग्रुप के सदस्य थे और वो वीर सावरकर से बहुत प्रभावित थे लेकिन इस ग्रुप के कुछ सदस्यों को ढींगरा पर शक था और उसकी वजह थी ढींगरा के परिवार का ब्रिटिश सत्ता के प्रति वफादार होना।

लेकिन मदनलाल ढींगरा ने इन सभी लोगों के शक को जल्द ही दूर कर दिया।
लन्दन में भारतीय सेना का एक अवकाश प्राप्त अधिकारी विलियम कर्जन वायली रहता था और वो इंडिया हाउस के लिए सिरदर्द बना हुआ था क्योंकि वो भारत से आने वाले छात्रों की जासूसी करता था।
मदनलाल ढींगरा के पिता ने भी वायली को पत्र लिखा कि,”लड़का आजकल इंडिया हाउस के संपर्क में हैं. हमें इसके लक्षण बिलकुल ठीक नहीं लग रहे”
ऐसे समय में इंडिया हाउस के क्रांतिकारियों ने कर्जन वायली को मारने की योजना बनाई और इसका जिम्मा सौंपा मदनलाल ढींगरा को।
इसके दो कारण थे :-

  1. मदनलाल ढींगरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण कोई उस पर शक नही करता।
  2. कर्जन वायली के एक कार्यक्रम में ढींगरा को भी आमंत्रित किया गया था।

01 जुलाई 1909 को मदनलाल ढिंगरा उस कार्यक्रम में जाते है जहाँ कर्जन वायली मेहमान बनकर आया था।
कार्यक्रम लगभग समाप्त हो चुका था और कर्जन वायली घर लौटने के लिए निकलता है।
तभी कुछ प्रशंसकों ने उससे बातचीत करने के लिए उसे रोक लिया और मदनलाल ढींगरा भी वहाँ पहुँच जाते है।
मदनलाल ढिंगरा की बात सुनने के लिए कर्जन वायली नजदीक जाता है और उसी वक़्त मदनलाल ढींगरा ने सटासट चार गोलियां कर्जन के चेहरे पर दाग दी।
कर्जन ज़मीन पर गिर गया और पांचवी गोली निशाना चूक गई। ढींगरा के हाथ में बंदूक थी और सबके चेहरों आश्चर्य मिश्रित भय।
बंदूक की छठी गोली ढींगरा को रोकने आ रहे मुंबई के एक पारसी आदमी को गिराने में खर्च हो जाती है। अब ढींगरा ने अपने माथे पर नली रखकर ट्रिगर दबाया तो गोली बाहर नहीं आई क्योंकि छह की छह गोलियां खत्म हो चुकी थी। दो अंग्रेज़ दौड़कर ढींगरा को पकड़ लेते हैं, पुलिस बुलाई जाती है और ढींगरा को गिरफ्तार कर लिया जाता है।

इस घटना के चार दिन बाद लंदन के कैक्सटन हॉल में एक मीटिंग बुलाई गई और इस मीटिंग में ज्यादातर वे भारतीय थे जिन्हें कर्जन की हत्या पर पश्चाताप दिखाकर मदनलाल ढींगरा को धिक्कारना था।
इसे भाग्य की विडंबना ही कह सकते हैं कि मदनलाल ढींगरा के पिता ने अंग्रेजों के साथ वफादारी निभाते हुए अपने बेटे के कार्य की निंदा की और उसका पिता होना ही अपने लिए लज्जाजनक माना। लंदन में रहने वाले ढींगरा के बड़े भाई ने भी अपने छोटे भाई के कृत्य की निंदा की।

वीर सावरकर के साथ मदनलाल ढींगरा

ढींगरा पर लंदन के कोर्ट में मुकदमा चलता है। फैसला सुनाने से पहले जज पूछता हैं कि क्या तुम्हें अपने पक्ष में कोई आखिरी बात कहनी है तो ढींगरा जवाब में कहते हैं, “मेरी जेब में एक चिट्ठी थी, जो पुलिस ने गिरफ्तार करते समय निकाल ली थी। जो कुछ भी मुझे कहना है वो उसी दस्तावेज़ में है”
कोर्ट ने ढींगरा की बात को नकार दिया क्योंकि ढींगरा की चिट्ठी साजिश के तहत गायब कर दी गई थी, लेकिन फांसी से एक दिन पहले वो चिट्ठी रहस्मयी अंदाज़ में लंदन के डेली न्यूज़ नामक अखबार में छप जाती है क्योंकि वीर सावरकर के पास उस चिट्ठी की एक नकल थी और वीर सावरकर ने अपने एक अंग्रेज दोस्त डेविड गार्नेट के संपर्क से वो चिट्ठी छपवा दी थी।

17 अगस्त 1909 को लंदन में मदनलाल ढींगरा हाथों में भगवद्गीता लिए हुए फांसी के फंदे के सामने खड़े है। जब कठघरे में उससे पूछा गया था कि तुमने ऐसा क्यों किया, तो उसका जवाब साफ था,
“पिछले पचास साल में हुए 8 करोड़ भारतीयों के कत्ल के लिए मैं अंग्रेज़ों को ज़िम्मेदार मानता हूं। मैं अंग्रेजों को जिम्मेदार मानता हूं भारत से हर साल 10 करोड़ पाउंड लूटने के लिए। जैसे किसी जर्मन को इस देश में कब्ज़ा करने का अधिकार नहीं, अंग्रेजों को भी कोई अधिकार नहीं कि वे भारत पर कब्ज़ा करें और हमारी नज़र में एक ऐसे अंग्रेज़ को मारना पूरी तरह से न्यायसंगत है जो हमारी पवित्र भूमि को दूषित करता हो”

इस तरह मात्र 26 वर्ष की आयु में भारत माँ की सेवा करते करते एक और वीर सपूत ने अपना जीवन समर्पित कर दिया। मदनलाल ढींगरा पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत भूमि से बाहर अपने प्राणों का बलिदान किया था।
ऐसे महान वीर क्रांतिकारी को शत् शत् नमन, जिन्होंने अपनी ज़िंदगी की लौ से क्रांति की ज्वाला को दीप्तिमान रखा।
जय हिंद
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