तारीख 22 सिंतबर 1929, महादेव देसाई जो कि मोहनदास गांधी के पर्सनल सेक्रेट्री थे, उन्हें गांधी का एक पत्र मिला। पत्र में गांधी ने लिखा था,
“अभी तक मैंने जतिन के बारे में कुछ नहीं लिखा है। मुझे इस बात में जरा भी आश्चर्य नहीं होगा अगर मेरे बहुत घनिष्ठ लोग मेरी बात न समझें। निजी तौर पर मुझे नहीं लगता कि मेरे नजरिये में बदलाव की जरूरत है। मुझे इस आंदोलन में कुछ भी सही नहीं लगता। मैंने चुप रहना ठीक समझा, क्योंकि मुझे पता है कि मेरा बोला हुआ गलत तरीके से इस्तेमाल किया जाएगा”
इस पत्र में जिस आंदोलन की बात रही है वो है – आमरण अनशन आंदोलन और इस आंदोलन के कारण ही 13 सिंतबर 1929 को जतिन दा उर्फ जतिंद्रनाथ दास की मृत्यु हो गयी थी।
Forgotten Indian Freedom Fighters लेख की नौंवी कड़ी में आज हम उन्हीं महान क्रांतिकारी जतिनदास के बारे में पढ़ेंगे, जिनके अमूल्य योगदान को गांधी ने अपनी मानसिकता के कारण महत्व नही दिया।
(हालांकि गांधी खुद कई बार अनशन पर बैठे हुए है)

जतिन दा का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कोलकाता में हुआ था। बचपन से ही उनके मन में देश को आज़ाद कराने की भावना बलवती हो रही थी इसी कारण मात्र 16 वर्ष की आयु में उन्होंने गांधी के नेतृत्व वाले 1920 के असहयोग आंदोलन में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
इस आंदोलन की वजह से उन्हें 6 महीने कारावास की सजा भी हुई थी।

गांधी की आंदोलन वापिस लेने की रणनीति से वो निराश हो गए थे, इस कारण उन्होंने क्रांति का मार्ग चुन लिया।
भारत माता के लिए कुछ करने का जज्बा लिए जतिन्द्रनाथ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए। जिसके बाद वे क्रांतिकारी संगठन ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के अहम सदस्य बन गए। इसी संगठन से जुड़कर उन्होंने बम बनाना एवं हथियार चलाना सीखा।
साल 1925 में अंग्रेजों ने उन्हें ‘दक्षिणेश्वर बम कांड’ और ‘काकोरी कांड’ के सिलसिले में गिरफ़्तार कर लिया। हालांकि सबूत नहीं मिलने के कारण उन पर मुकदमा तो नहीं चल पाया, लेकिन वे नजरबन्द कर लिए गए।
इस प्रकार अपने साहसिक कार्यों से जतिन दा जल्द ही संगठन में लोकप्रिय हो गए।

1928 की ‘कोलकाता कांग्रेस’ के ‘कांग्रेस सेवादल’ में जतिन दा नेताजी सुभाष बाबू के सहायक थे। वहीं पर उनकी भेंट सरदार भगत सिंह से हुई और उनके अनुरोध पर जतिन दा बम बनाने के लिए आगरा आए।
08 अप्रैल 1929 को भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त के द्वारा जो बम केंद्रीय असेंबली में फेंके गए थे वो जतिन दा द्वारा ही बनाए गए थे।
इसके बाद जब ब्रिटिश पुलिस ने भगत सिंह और उनके साथियों को पकड़ने के लिए गतिविधि तेज कर दी, तब इन क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने वाले कारखानों पर भी छापा पड़ा।
भगत सिंह की गिरफ्तारी के बाद लाहौर षडयंत्र केस में 14 जून 1929 को जतिन दा को भी अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया।

लाहौर षड्यंत्र केस में क्रांतिकारियों के पोस्टर

उन दिनों जेल में भारतीय राजनैतिक कैदियों की हालत एकदम खराब थी। उसी तरह के कैदी यूरोप के हों, तो उनको कुछ सुविधाएं मिलती थीं। यहां के लोगों की जिंदगी नरक बनी हुई थी। उनके कपड़े महीनों नहीं धोए जाते थे, तमाम गंदगी में खाना बनता और परोसा जाता था। इससे धीरे-धीरे भारतीय कैदियों में गुस्सा भरता गया।
जेल में क्रान्तिकारियों के साथ राजबन्दियों के समान व्यवहार न होने के कारण क्रान्तिकारियों ने 13 जुलाई 1929 से अनशन आरम्भ कर दिया।
भगतसिंह, बटुकेश्वर दत्त के साथ जतिन दा ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी।
जतिन दा ने कह दिया था कि, “मैं अनशन तभी करूंगा, जब मुझे कोई इससे पीछे हटने को नहीं कहेगा। मेरे अनशन का अर्थ है, ‘जीत या फिर मौत!’

इस अटल प्रण के साथ ही जतिन दा की क्रांतिकारी भूख हड़ताल शुरू हुई। उनका मानना था कि संघर्ष करते हुए गोली खाकर या फांसी पर झूलकर मरना शायद आसान है। क्योंकि उसमें अधिक समय नहीं लगता; पर अनशन में व्यक्ति धीरे-धीरे मृत्यु की ओर आगे बढ़ता है। ऐसे में यदि उसका मनोबल कम हो, तो संगठन का मूल उद्देश्य खतरे में पड़ जाता है।

खैर अनशन की शुरुआत हो गयी थी और क्रांतिकारी इस बार पूरी तरह दृढ़ निश्चय के साथ तैयार थे।
जेल में जो अंग्रेज अफसर तैनात थे, वो भी हर कीमत पर अनशन तुड़वाने के लिए उतावले थे।
हर एक घटिया तरक़ीब अपनाई गई।
पहले स्वादिष्ट भोजन, मिठाई, दूध देना शुरू किया और जब इन सबसे बात नही बनी तो जेल अधिकारियों ने जबरन अनशन तुड़वाने का निश्चय किया। वे बंदियों के हाथ पैर पकड़कर, नाक में रबड़ की नली घुसेड़कर पेट में दूध डाल देते थे।
जतिन दा के साथ भी ऐसा ही किया गया, तो वे जोर जोर से खांसने लगे। इससे दूध उनके फेफड़ों में चला गया और उनकी हालत बहुत बिगड़ गयी।
इतना सब होने के बावजूद भी जतिन दा अपने संकल्प से टस से मस नही हुए।

तारीख थी 13 सिंतबर 1929, अनशन का 63वां दिन।
बताया जाता है कि उस दिन जतिन दा के चेहरे पर एक अलग ही तेज था। उन्होंने सभी साथियों को साथ में बैठकर गीत गाने के लिए कहा, उनके एक साथी विजय सिन्हा ने उन का प्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ और फिर ‘वन्दे मातरम्’ गाया।
यह गीत पूरा होते ही जतिन दा ने इस दुनिया से विदा ले ली और सिर्फ 24 साल की उम्र में भारत माँ का यह सच्चा सपूत अपने देश के लिए शहीद हो गया।

जतिन दा की मृत्यु की ख़बर

उनकी मौत की खबर सुनकर सुभाष बाबू ने उन्हें ‘भारत का युवा दधीची’ कहा, जिन्होंने अंग्रेजों के साम्राज्य के विनाश के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।
ऐसा बताया जाता है कि कोलकाता में जतिन दा की अंतिम यात्रा में 7 लाख लोग शामिल थे जो करीब 2 मील तक लम्बी कतार में थे।
भारत माँ के इस वीर सपूत महान क्रांतिकारी को हमारा शत् शत् नमन।
जय हिंद
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