2 अप्रैल 2011 को उन्होंने जब वानखेड़े में विश्वविजयी छक्का लगाया था तो वो गेंद को देर तक दर्शक-दीर्घा में जाते देखते रहे थे। उनकी आंखों में संयम का पिघला सीसा ढल गया था। गेंद के सीमारेखा पार करते ही उन्होंने बल्ले को जादुई अंदाज़ में लहराया और स्थिर हो गए। जिस दौर में एक शतक लगाकर युवा तुर्क तलवार की तरह बल्ला भांजते हैं और दम्भ की दुदुम्भी बजाते हुए अपनी केंद्रीयता का जयघोष करते हैं, तब विश्वविजेता का वह अन्यभाव साधारण तर्कणा को उलट देने वाला था। आप मानें या ना मानें, वह दृश्य भारतीयों के मन-मस्तिष्क पर छप गया है, वह मिटाए नहीं मिटता। उस रात मुम्बई के समुद्रतट से जो चक्रवात उठा था, उसने समूचे भारत-देश को उन्मत्त कर दिया था। किंतु महेंद्र सिंह धोनी का व्यक्तित्व उस चक्रवात की धुरी की तरह था, जहां एक सुई भी नहीं डगमगाती।
धोनी के व्यक्तित्व की इसी निर्लिप्तता ने लोकभावना को लुभा लिया है। विजय पर वो आवेश में नहीं आते, पराजय पर हताश नहीं होते, वो इनके परे स्थिर बने रहते हैं। यों विजय के लिए वो भरपूर प्रयास करते हैं। अपने शिखर के दिनों में वो पिच पर एक अडिग पर्वत की तरह दिखलाई देते थे। वो आख़िर तक क़िला लड़ाते, और बहुधा जीतकर लौटते। किंतु एक श्रमसाध्य विजय के बाद भी उत्सव मनाने का उनका तरीक़ा प्रतिपक्षियों से हाथ मिलाने और यादगार के तौर पर एक विकेट को अपने साथ लेकर चल देने का होता। दर्शक सोचने पर विवश हो जाते कि वो ऐसा क्यों करते हैं, वो अधीर उत्साह से जश्न क्यों नहीं मनाते। तब उनमें से बहुतेरे इस पर विचार करते कि जब दूसरे खिलाड़ी अपने शरीर को इस्पात की तरह ढाल रहे थे, तब महेंद्र सिंह धोनी ने अपने मन को रथ में जुते अश्व की तरह साधा था। उन्होंने स्वयं को विचलित होने की अनुमति नहीं दी। उन्होंने मान लिया था कि उन्हें विचलित होने का कोई अधिकार नहीं है।
धोनी लम्बे समय तक टीम के कप्तान थे, फिर वो टीम के सबसे वरिष्ठ खिलाड़ी की तरह खेलते रहे। उन्होंने स्वयं के लिए उत्तरदायित्व चुने और उनका निर्वाह किया। वो किसी परिवार के मुखिया की तरह सोचते थे। उन्होंने उसी तरह क्रिकेट खेला, जैसे किसी मध्यवर्गीय परिवार का मुखिया घर चलाता है। जैसे मुखिया अपनी आमदनी और ख़र्चे के अनुपात को महीने की 30 तारीख़ तक खींचकर लाना चाहता है, धोनी ने भी हमेशा चाहा कि वो आख़िरी ओवर तक खेलें। खेल को अंत तक लेकर जाएं। उनके व्यक्तित्व में यह जो व्यवहारकुशलता है, धैर्य और ठहराव है, और सबसे बढ़कर उनमें जो आत्मविलोपन है, उसने असंख्यों को उनका चहेता बना दिया है। आज वो दुनिया में भारत के सबसे वरेण्य एथलीट हैं। मैंने देखा है कि जिन टीमों से भारत की लम्बी प्रतिद्वंद्विता रही है, उनके समर्थक भी महेंद्र सिंह धोनी को सदैव ही यथेष्ट सम्मान देते हैं। उनकी पर्सनैलिटी का अपना एक ब्रांड है। आख़िरकार बात केवल खेल की नहीं है, जीत की भी नहीं है, आपने कैसे खेला, क्या सोचा, आपके व्यक्तित्व के आयाम कितने गहन और गम्भीर हैं, इन सच्चाइयों को भी लोकमानस तुरंत चीन्ह लेता है और अपने जीवन के अनुक्रमों को उनसे जोड़कर देखने लगता है।
महेंद्र सिंह धोनी अपने कैरियर की संध्यावेला में पहुंच चुके थे। यह सच है कि उनके खेल में वो बात नहीं रह गई थी। रंगे हुए बालों और क़स्बाई आकर्षण वाला चेहरा लेकर परिदृश्य पर अवतरित होने वाले झारखण्ड के नवयुवक से अभी तक उन्होंने एक लम्बी यात्रा तय की थी। मैच के दौरान खेल मैदानों में उनके नाम की जो गूंज इधर सुनाई देती थी, उसमें विदा की ध्वनि भी सम्मिलित होती थी। सभी जानते थे कि अब वे अधिक दिन नहीं खेलेंगे, किंतु सबके मन में कौतूहल था कि वो कैसे जाएंगे। धोनी का जैसा मिज़ाज रहा है, उसमें उनसे यह अपेक्षा किसी को नहीं थी कि वो अपने लिए समारोहपूर्वक विदाई का आयोजन रचेंगे। बहुत सम्भव यही था कि वो अचानक एक दिन संन्यास की घोषणा कर दें, जैसे उन्होंने टेस्ट क्रिकेट से संन्यास की घोषणा करके सबको चौंका दिया था। इंस्टाग्राम पर दो पंक्ति की पोस्ट लिखकर कि आज शाम 7 बजकर 29 मिनट से मुझे रिटायर्ड मान लिया जाए, उन्होंने वही किया, जिसकी उनसे उम्मीद की जाती थी।
अपने शिखर दिनों में महेंद्र सिंह धोनी मैच जीतने के बाद मोटरसाइकिल से मैदान की परिक्रमा किया करते थे। हम जानते थे कि वो एक दिन इसी तरह मोटरसाइकिल उठाएंगे और भारतीय क्रिकेट से दायरों से चुपचाप दूर चले जाएंगे। लेकिन कब? यह तो “बेस्ट फ़िनिशर” ही तय कर सकता था! ज़िंदगी में चलना और दौड़ना जितना ज़रूरी होता है, रुक जाना उससे कम ज़रूरी नहीं होता। कब रुक जाना है, यह समझ भी बड़े मनोयोग से बनती है। एक हुनरमंद को इस बात की भी बड़ी दाद मिलती है कि उसने आख़िरी बात किस अदा से कही, और कितने सलीक़े से वो हम सबकी आंखों से ओझल हो गया।
माहीं तुम्हारे जाने से अब अपना बचपन भी शायद चला ही गया
अलविदा, महेंद्र सिंह धोनी
असित पाण्डेय।
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