भारत एक लोकतांत्रिक देश है, यहाँ हर किसी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, अपनी बात कहने, सुनने की आज़ादी है…. लेकिन…. इस आज़ादी पर कुछ अंकुश हैं! इसे समझने के लिए यह समझिए कि बोलने की आज़ादी का अर्थ यह नहीं है कि आप भरे हुए सिनेमा हॉल में झूठ मूठ का बम बम चीखें चिल्लाएँ और चीखते हुए दौड़ने भी लगें! यहाँ बात एकदम साफ़ है, आप स्वतंत्र हैं लेकिन आपकी अभिव्यक्ति समाज और देश के लिए किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं होना चाहिए – यह नियम मीडिया और ख़बरिया चैनलों, पोर्टलों इत्यादि पर विशेष रूप से लागू होता है। आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर झूठ और अराजकता नहीं फैला सकते और न ही अपने पूर्वाग्रह जनित साहित्य को खबर के नाम पर परोस ही सकते हैं। यदि आपको झूठ ही लिखना है तो अपने साहित्य को समाचार न कह फेंटेसी कह कर लिखिए।

मैं पत्रकारिता के आज कल के हाल को लेकर चिंतित हूँ, क्योंकि ऐसा विस्मयकारी माहौल मैंने कभी नहीं देखा। पहले के पत्रकार कम से कम गाँव, घर के माहौल और परिवारमाला से जुड़ी हुई बातें, सृजनात्मक एवं सकारात्मक भाव के साथ कहते थे लेकिन अब? एक नई पीढ़ी का उद्गम हुआ है जिसे न धर्म का ज्ञान है, न ही अपनी विरासत का कोई भान है और जिसका संयुक्त परिवार की परम्पराओं से न ही कोई लेना देना है। ऐसा हवाई व्यक्ति/महिला जब समाज की किसी खबर की रिपोर्टिंग करता है तो उसकी रपट ज़मीन से कहीं दूर आसमानी किताबी बातों से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं।

मैंने अभी तक सुशांत सिंह राजपूत के बारे में कुछ नहीं लिखा, कई बार लिखना चाहा लेकिन फिर खुद को रोक लिया… जब कोई मामला न्यायालय में हो तो ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार की पब्लिक पोस्ट लिखने के पहले सोचना चाहिए… अपने मन की कल्पनाओं से उपजे विचारों (ऐसा हुआ होगा या वैसा हुआ होगा जैसी काल्पनिक स्थिति) और पूर्वाग्रह से बचना चाहिए। लेकिन…. प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, और वेबपोर्टलों को इस मामले में अपनी नैतिक सीमा को भंग करते हुए कई बार देख रहा हूँ। मीडिया का एक वर्ग इस समय सीबीआई जाँच की माँग मात्र से इतना बिलबिला गया है कि वह अनाब शनाब बकने लगा है… कुछ अतिवादी “बुद्धिजीवी” पत्रकारों ने तो पूरे बिहार को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। एक ने यहाँ तक कह दिया कि वह कोई बड़ा कलाकार नहीं था तो जाँच क्यों हो? मतलब मीडिया का एक वर्ग सीधे सीधे यह कह रहा है कि आम आदमी अगर संदेहास्पद परिस्थिति में मर जाए या मार दिया जाए तो भी उसकी कोई जाँच नहीं होना चाहिए….! आज इसी कड़ी में वामपंथी पोर्टल दी प्रिंट ने बिहारी परिवारों पर एक पोस्ट लिखी जिसमें पच्चीस छब्बीस साल की एक अनुभवहीन महिला पत्रकार ने इतना कुछ लिख दिया कि क्या कहा जाए! सीधे सीधे मध्यम वर्ग के परिवार, संस्कार, माता/पिता और बच्चे के आपसी सम्बन्ध इत्यादि को लेकर अनर्गल बातें कह कर रिया चक्रवर्ती और बॉलीवुड माफियाओं को जस्टिफाई करने का प्रयास हुआ।

अब आप मुझे बताएँ कि कोई पत्रकार अगर यह लिखे कि मिडिल क्लास परिवार अपने बेटे की बड़े शहर में गर्ल-फ्रेंड को लेकर गलत सोच ही रखेंगे तो आप क्या कहेंगे, आप बिहारी होंगे तो शायद हँसेंगे, क्योंकि मैं भी हँस पड़ा था! बहरहाल प्रिंट की पोस्ट में इनका इशारा सुशांत के पिता के कमेंट की ओर था जिसमें उन्होंने यह कहा कि रिया से मिलने के पहले उनके बेटे के किसी मानसिक रोग जैसी किसी खबर के बारे में उन्होंने नहीं सुना था? आप बताएँ कि एक पिता जिसने अपना योग्य, पढ़ा लिखा और समझदार बेटा खोया हो क्या वह अपना अनुभव नहीं कहेगा? अगर सुशांत के पिता को बेटे की बड़े शहर वाली गर्ल फ्रेंड से दिक्कत ही होती तो क्या वह अंकिता लोखंडे को लेकर वही रवैया नहीं अपनाते? यहाँ सुशांत के मामले से हर बिहारी परिवार पर एक आरोप मढ़ दिया जाना क्या सही हुआ? इन्होने कितने बिहारी परिवारों से बात की? इन्हे क्या मालूम बिहार के परिवारों के बारे में? यह कौन होती है जो बिहार को लेकर ऐसा आरोप मढ़ दें?

यहाँ अपनी पोस्ट में यह, रिया चक्रवर्ती को बचाने के लिए सुशांत के पिता को किसी खलनायक के समान दिखाने से नहीं चूँकती, वह इसके लिए पूरे बिहार और बिहारी परिवार, बेटे इत्यादि सभी पर सवालिया निशान लगा देती हैं! अब वामपंथी हैं तो हिन्दू प्रतीक चिन्हों से घृणा होगी ही सो ज्योति यादव भी बिहार को “Cow Belt” कह जाती हैं और बिहारी मध्यम परिवारों के बेटे पर श्रवण कुमार होने के बोझ जैसी बातें और इसके मानसिक दवाब के बारे में लिख जाती हैं लेकिन यह भूल जाती हैं कि माता पिता का ध्यान रखना और श्रवण कुमार जैसा होने का गुण बिहारी बेटों के लिए किसी गौरव से कम नहीं है।

यह हर मध्यम वर्गीय बिहारी परिवार को टॉक्सिक कहती हैं, टॉक्सिक का शाब्दिक अर्थ हुआ विषैला/जहरीला! पोस्ट की टाइटल में ही इन्होने “टॉक्सिक बिहारी फॅमिली” शब्द लिख दिया है – इनकी मानें तो हर बिहारी परिवार टॉक्सिक यानि विषैला है? मतलब बड़ा होने पर हर बिहारी बेटा अपने माता पिता को छोड़ दे क्योंकि वामपंथी पोर्टल दी प्रिंट की पचीस साल की रिपोर्टर ज्योति यादव कहती है कि हर बिहारी परिवार विषैला है, टॉक्सिक है और पिता की सत्ता पर चलने वाला है! इनका मतलब यह है कि बेटों को पिता से संपर्क तोड़ लेने चाहिए क्योंकि पिता तो टॉक्सिक होता है न, वह ठीक कैसे हो सकता है? इसके कुतर्क की सीमा देखिये? बिहार और बिहारी बेटों के बारे में ऐसी ओछी और बेवकूफी भरी बात कहने वाली यह होती कौन है? किसने इसे यह अधिकार दिया कि यह बिहार और बिहारियों पर ऐसी बातें करे?

जाहिर सी बात है इस लड़की को मध्यम वर्ग के संयुक्त परिवारों पर कमेंट करने लायक अनुभव अभी हुआ ही नहीं है लेकिन इतनी कम उम्र के पत्रकारों में ऐसे टॉक्सिक (जहरीली) मानसिकता का होना कितना खतरनाक है? सुशांत के मामले में आज न सही कल सच/झूठ सामने आएगा लेकिन इसकी पड़ताल में पत्रकारिता अपने निम्न स्तर पर आ गिरी है और यह बहुत बड़ी चिंता का विषय है!

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