लेखक – कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट महत्व रखती है। यह तिथि नवसम्वत्सर – हिन्दू नववर्ष के उत्साह पर्व की तिथि है। यह तिथि भारतीय मेधा के शाश्वत वैज्ञानिकीय चिंतन – मंथन के साथ – साथ लोकपर्व के रङ्ग में जीवन के सर्वोच्च आदर्शों से एकात्मकता स्थापित करती है। वैज्ञानिकता पर आधारित प्राचीन श्रेष्ठ कालगणना पध्दति के अनुरूप ऋतु चक्र परिवर्तन एवं सूर्य – चन्द्र की गति के अनुरूप नव सम्वत्सर का प्रारम्भ होता है। भारतीय संस्कृति यानि हिन्दू संस्कृति के माहों ( मासों ) का नामकरण नक्षत्रों के नाम पर हुआ। और इसके लिए हमारे पूर्वजों ने व्यवस्था दी कि – जिस मास में जिस नक्षत्र में चन्द्रमा पूर्ण होगा , वह मास उसी नक्षत्र के नाम से जाना जाएगा। और इस पध्दति के अनुसार — चैत्र – चित्रा, वैशाख – विशाखा, ज्येष्ठ – ज्येष्ठ, अषाढ़ – अषाढ़ा, श्रावण – श्रवण, भाद्रपद -भाद्रपद, अश्विन – आश्विनी , कार्तिक – कृतिका, मार्गशीर्ष – मृगशिरा, पौष – पुष्य, माघ- मघा, फाल्गुन – फाल्गुनी ; आदि के आधार पर नामकरण किया है।

सृष्टि रचयिता भगवान ब्रह्मा जी ने चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को सूर्योदय के साथ ही सृष्टि निर्माण कार्य प्रारम्भ किया था। जो कि सात दिनों तक चला। और इसी कारण से सृष्टि सम्वत्सर – नवसम्वत्सर का प्रारम्भ भी इसी तिथि से माना जाता है ‌। यानि भारत की शाश्वत सनातनी हिन्दू धर्म संस्कृति के संवाहक एवं अविरल प्रवाह के रूप में – हिन्दू नववर्ष / नवसम्वत्सर सतत् अपनी वैविध्य पूर्ण उत्सवधर्मी छटा बिखेरता आ रहा है।

भारतीय संस्कृति एवं प्रकृति का पारस्परिक तदात्म्य भी अपने आप में अनूठा है। हम प्रायः देखते हैं कि -चैत्र प्रतिपदा के साथ ही प्रकृति में परिवर्तन – नव चैतन्यता, नवोत्साह का वातावरण यत्र – तत्र सर्वत्र दिखाई देने लग जाता है। और बसंतोत्सव में माँ वीणापाणि के पूजन के सङ्ग वृक्षों पर नव कोपल आने के साथ – साथ ऋतुराज वसंत चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से
अपनी पूर्णता को प्राप्त करता हुआ दिखता है। ग्रीष्म ऋतु में फलदार वृक्षों पर प्रायः फल आ जाते हैं । सूर्य की किरणों से प्रकृति द्युतिमान होने लग जाती है। फसलों की कटाई के साथ ही कृषकों के यहाँ धन- धान्य का आगमन होने लग जाता है। और नव सम्वत्सर में नव परिवर्तन की धानी चूनर ओढ़े प्रकृति आनन्द की रचना करने लग जाती है । प्रकृति के साहचर्य के सङ्ग जीवन की उमङ्गों को बिखेरने वाला भारतीय नव‌ सम्वत्सर अपने आप में अद्वितीय – अनूठा- अनुपमेय एवं‌ अप्रतिम है। स्थूल से लेकर सूक्ष्मतम् काल गणना की पध्दति यानि – पृथ्वी के समानान्तर – सूर्य, चन्द्र व समस्त ग्रह – नक्षत्रों की गति के अनुरूप समय की लघुतम ईकाई को ध्यान में रखकर भारतीय पञ्चाङ्ग में वर्ष की कालगणना का प्रतिपादन दृष्टव्य होता है। इस दिशा में महान गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री भास्कराचार्य का योगदान अप्रतिम है। उन्होंने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही सूर्योदय से सूर्यास्त तक कालखण्ड की वैज्ञानिक विवेचना करते हुए दिन, महीने और वर्ष की गणना करते हुए ‘पञ्चाङ्ग’ की रचना की थी। वर्तमान में गेग्रोरियन कैलेण्डर के प्रचलन के बाद भी भारतीय जीवन पद्धति में भारतीय पञ्चाङ्ग प्रणाली के अनुसार ही शुभ मुहूर्त देखकर समस्त शुभकार्य एवं प्रयोजन सम्पन्न कराए जाते हैं। संस्कारवान श्रेष्ठ समाज की रचना के उद्देश्य से महान पूर्वजों द्वारा बनाए गए सोलह संस्कारों यथा —गर्भाधान , पुंसवन , सीमन्तोन्नयन , जातकर्म, नामकरण संस्कार,निष्क्रमण संस्कार, अन्नप्राशन , चूड़ाकर्म , विद्यारम्भ , कर्णवेध , यज्ञोपवीत ,वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह व अंत्येष्टि ; इन समस्त संस्कारों को भारतीय तिथि, मुहूर्त देखकर सम्पन्न कराया जााता है।

भारतीय संस्कृति में ‘शक्ति’ का बहुत बड़ा महत्व है। शक्ति की साधना और आराधना ने भारतीय चिति को ज्ञान- विज्ञान के सर्वोच्च – सर्वोत्कृष्ट वरदान दिए हैं। और चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से ही माँ आदिशक्ति दुर्गा भवानी की उपासना का पावन पर्व चैत्र नवरात्रि भी प्रारम्भ होता है।प्रतिपदा से लेकर नवमी तक प्रमुख रूप से माता के नौ स्वरूपों की आराधना की जाती है। माँ के नव स्वरुपों का ध्यान इस मन्त्र से किया जाता है —
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।

भारतीय परम्परा में शक्ति स्वरूपा माता की पूजा और नौ दिनों में कन्याओं को देवी का स्वरूप मानकर कन्या पूजन करना हमारी संस्कृति के सर्वोच्च जीवनादर्शों को प्रस्तुत करता है। हमारी संस्कृति एवं परम्परा में – नारी शक्ति का स्वरूप जीवन के मूल – आधार के रूप में है। जो अपनी शक्ति से सृजन का संसार रचती है। नवरात्रि का पर्व हमारी उसी महान सभ्यता के साथ हमें एकमेव करता है ,जो माता के रूप में शक्ति की भक्ति करता हुआ लोकमङ्गल की कामना करता है।

और इतना ही नहीं नवसम्वत्सर की चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि ब्रम्हा जी की सृष्टि रचना के साथ – साथ चतुर्युगों — सतयुग, त्रेता, द्वापर एवं कलियुग की वैशिष्ट्य से भी जोड़ती है।और गौरवशाली अतीत के साथ – हमारा परिचय करवाती है। यह तिथि यह बोध करवाती है कि – हमारी संस्कृति के महान आदर्श कौन थे? कौन हैं? और उनका पथानुसरण करते हुए युगानुकुल ढंग से हमें निरन्तर गतिमान रहना चाहिए।

त्रेता में यह तिथि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम से जुड़ती है। अपने चौदह वर्ष का वनवास काटने एवं अधर्म रुपी रावण का समूल संहार करने के पश्चात भगवान अयोध्या लौटे। तदुपरान्त चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि को उनका वैदिक विधि विधान के‌ साथ राज्याभिषेक हुआ । और रामराज्य के शंखनाद से चहुंओर आनंद की लहर दौड़ गई। बाबा गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामराज्य के विषय में लिखा—
दैहिक दैविक भौतिक तापा।राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती।चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥

इतना ही नहीं चैत की नवमी तिथि को भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम का प्राकट्योत्सव भी है। अहा! कितना सुन्दर समन्वय है न! कि चैत्र की प्रतिपदा और नवमी तिथियाँ , दोनों प्रभु के जीवन से जोड़ती हैं। जहां श्री राम नवमी को भगवान का प्राकट्य पर्व है, तो प्रतिपदा रामराज्य के राज्याभिषेक का पर्व। तो वहीं द्वापर में महाभारत युद्ध पूर्ण होने पर भगवान श्री कृष्ण के पाञ्चजन्य घोष के साथ ही युधिष्ठिर का राजतिलक हुआ। और राजसूय यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही उन्होंने युधिष्ठिर सम्वत का शुभारम्भ किया था। वरुणदेव के अवतार माने जाने वाले भगवान झूलेलाल का प्राकट्य पर्व ‘चेटी चंड’ को सिंधी समाज के साथ साथ समूचा भारत मनाता है। यह पर्व प्रेम सद्भाव एकत्व एवं सौहार्द के साथ जीवमात्र के प्रति प्रेम की कामना करता है। और चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही भूतभावन बाबा महाकाल की नगरी अवंति (उज्जयिनी) में महान सम्राट राजा विक्रमादित्य ने विक्रम सम्वत का शुभारम्भ किया था। और पतित पावनी शिप्रा के तट पर सम्वत पर्व मनाया गया था। वर्तमान में यही विक्रम सम्वत भारतीय जीवन पद्धति में सर्वाधिक प्रचलन में है। और आधुनिक सन्दर्भ में हिन्दू नववर्ष के रूप में विक्रम सम्वत के साथ ही नवसम्वत्सर का शुभारम्भ पर्व मनाया जाता है। और विक्रम सम्वत ईस्वी कालगणना से 57 वर्ष आगे चलता है।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा की तिथि अपने आप में संस्कृति एवं विचारों के वैशिष्ट्य को समेटे हुए है। इसी तिथि को महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना की थी। सिख पंथ की दशम गुरु परम्परा के दूसरे गुरू – गुरु अंगदेव का जन्मपर्व भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हुआ था। वहीं विश्व के अपने आप में अनूठे – स्वयंसेवी सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म भी इसी दिन हुआ था। उन्होंने 27 सितम्बर 1925 को विजयादशमी के दिन हिन्दू समाज को संगठित – सर्वशक्तिमान बनाने के उद्देश्य से संघ की स्थापना की थी। और उनकी विशद् दृष्टि से निर्मित रा.स्व.संघ राष्ट्रभक्त व्यक्तित्व निर्माण के पुनीत कार्य में सतत् जुटा हुआ है।

नवसम्वत्सर – हिन्दू नववर्ष अपनी महान विरासत व वैज्ञानिक पद्धति के साथ – साथ अपनी बहुवर्णी उत्सवधर्मिता के माध्यम से समूचे भारत को एकसूत्र में पिरोता है। यह पर्व देश के विभिन्न हिस्सों में यथा —दक्षिण भारत क्षेत्र के- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल व कर्नाटक इसे ‘उगादि पर्व’ व कश्मीर में ‘नवरेह’ तो वहीं पूर्वोत्तर क्षेत्र के असम में ‘बिहू’ और मणिपुर में माह के पहले दिन के रूप में – सजीबू नोंग्मा, पनबा या मीती,चेरोबा सा सजीबू चेरोबा आदि के रूप में मनाया जाता है। साथ ही तमिलनाडु में ‘पुतुहांडु’ और केरल में ‘विशु’ के रूप में भी नवसम्वत्सर मनाने की परम्परा देखने को मिलती है। और महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के द्वारा चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ‘हिन्दवी स्वराज’ की स्थापना के उत्सव के रूप में ‘गुड़ी पड़वा’ हर्षोल्लास के रंग में डूबकर मनाया जाता है।इस उल्लास पर्व का क्षेत्र भगवान परशुराम की भूमि गोवा , कोंकण क्षेत्र तक विस्तृत है। वहीं पंजाब में ‘बैसाखी’ के रूप में और बंगाल प्रांत में ‘पोहेला बैसाखी ‘ या ‘नबा बरसा’ के रूप में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।

ज्ञान – विज्ञान एवं उत्सव के विविध रङ्गों से सुसज्जित हिन्दू नववर्ष मनुष्य व प्रकृति के साथ एकात्म स्थापित करने वाला है। यह पर्व मनुष्य की सर्वोच्च मेधा के प्रतीक को अभिव्यक्त करता है। हमारी ऋषि परम्परा ने युगों पहले जिस वैज्ञानिक चिंतन पध्दति को जीवन में ढाल दिया था। वह वर्तमान में भी आश्चर्य का विषय है। सोचिए! प्रकृति के सूक्ष्म परिवर्तन, वैज्ञानिकीय कालगणना के साथ ही हिन्दू नववर्ष – नवसम्वत्सर का शुभारम्भ होता है। यानि प्रकृति के नवोन्मेष के सङ्ग – नवसम्वत्सर का आगमन, जो कि वैज्ञानिक अनुसंधानों की कसौटी पर पूर्णतः खरा है। और यह समूचे राष्ट्र के लिए गौरव का विषय है कि हमारे पास ‘स्वत्वबोध’ के महान आदर्श एवं जीवन पद्धतियाँ हैं, जो लोकल्याण की भावना से परिपूर्ण हैं। और श्रेष्ठ भारतीय संस्कृति व्यष्टि -समष्टि एवं परमेष्ठि के साथ तदात्म्य एवं साहचर्य निरुपित करती है । उसी संस्कृति का शाश्वत संवाहक हिन्दू नववर्ष- नवसम्वत्सर लोकमङ्गल के विपुल उत्साह, उत्सवधर्मी जीवन और सृजन का विराट संसार रचाए बसाए हुए ‘स्व’ को पहचानकर कृण्वन्तो विश्वमार्यम का चिर सनातन संदेश दे रहा है।
~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
सम्पर्क – 9617585228

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