भारत में Religion के अर्थ में धर्म जैसी कोई अवधारणा मूलतः नहीं रही है। एक व्यक्ति से धर्म का आरंभ तथा एक निश्चित पुस्तक को धार्मिक पुस्तक मानने वाले अर्वाचीन धर्मों के अनुयाई इससे बहुत भ्रमित हो जाते हैं।
हिन्दू धर्म का मूल वेद हैं जो न तो एकमात्र पुस्तक हैं और न ही किसी एक लेखक की रचना हैं। इनमें कोई साम्प्रदायिक (Religious) अनुदेश भी नहीं हैं। ये मूलतः व्यक्तिगत, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय जीवन के आचार नियमों, ज्ञान, विज्ञान, दार्शनिक विचारों एवं नैतिकता आदि से संबंधित आप्त पुरुषों के विचार हैं, संवाद हैं। हज़ारों ऋषियों के विचार, यहीं से जन्म लेती है “सर्वसमावेशिता”, जो “हिन्दुत्त्व” का मूल है।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम ने इन्ही आचार नियमों एवं नैतिकता को जी कर दिखाया है इसीलिए हमारा उद्घोष है- “रामो विग्रहवान् धर्मः।” अर्थात् राम ही साक्षात् धर्म हैं। यहॉं धर्म और रिलीजन का अन्तर समझा जा सकता है।
हिन्दुत्व कोई धार्मिक (Religious) अवधारणा नहीं है अपितु यह सभ्यतामूलक (Civilizational) अवधारणा है। भारत विश्व में अकेला ऐसा देश है जहां सदियों से यहूदी एवं पारसी अपनी मूल पूजा पद्धति के साथ सुरक्षित रहे हैं, जबकि शेष विश्व में इनका प्रायः विनाश ही किया जा चुका था। हज़रत मुहम्मद के स्वयं के परिवार एवं रक्तसंबंधियों का जब अरब में विनाश किया जा रहा था तो उन्हें हमने ही शरण दी थी।
इसीलिए दुनिया हमसे ही सर्वसमावेशी होने की अपेक्षा करती है। यही कारण है कि हम प्रायः 5000 वर्षों से अधिक, अनवरत रूप से जीवित, विश्व की एकमात्र संस्कृति हैं।
सिन्धु घाटी सभ्यता के योगी मुद्रा वाले पशुपतिनाथ, त्रिभंग नृत्य मुद्रा वाली नर्तकी, पवित्र वृषभ, माप तौल के मानक और न जाने कितनी विशेषताएं हैं जो हिन्दू सभ्यता में ही सुरक्षित हैं।
हिन्दू शब्द की उत्पत्ति भी ऋग्वैदिक सिन्धु शब्द से हुई है, जो नदीवाचक शब्द है। कालान्तर में जब यह शब्द सिन्धु नदी के अर्थ में रूढ़ हो गया तो यह स्थान सिन्धुस्थान कहलाया और यहां के निवासी सिन्धु। सिन्धु शब्द संस्कृत व्याकरण और निरुक्त के नियमों के अनुसार हिन्दु शब्द और हिन्दू शब्द में रूपांतरित हुआ । जैसे हिंस्र से सिंह शब्द,भारतीय भाषाओं में ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं।
हमें इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि सर्वसमावेशी होने के साथ-साथ हमें अपने धर्म के अन्य मूल पहलुओं पर दृढ़ता से स्थिर रहना होगा। जिससे इस पवित्र संस्कृति की यह पावन धारा यूं ही बहती रहे और विश्व को यह सिखाती रहे कि विभिन्न मत,पंथ, दर्शन, आचार, विचार और संप्रदाय किस प्रकार स्वाभाविक रूप से, दार्शनिक वाद विवाद और खण्डन-मण्डन करते हुए भी, सह अस्तित्व पूर्वक हिन्दू धर्म के रूप में जीवित रह सकते हैं और फल फूल सकते है।
इसी लिए वैदिक ऋषि प्रार्थना करते हैं- ” एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति “। सत् एक ही है बस उसे जानने वाले उसका वर्णन भिन्न भिन्न प्रकार से करते हैं।
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