एक आदरणीय मित्र ने अपने एक आलेख में एक अमेरिकी मित्र के साथ अपने विमर्श को साझा किया है कि आखिर पहाड़े की जरूरत क्यों है जब आपके पास कैलकुलेटर मोबाइल फोन और कंप्यूटर आदि कई इलेक्ट्रॉनिक डिवाइसेज हैं जो आपसे ज्यादा शीघ्रता से सारी गणनाएं कर देते हैं . हमारे भारतीय मित्र ने अपने अमेरिकी मित्र से कहा कि अगर जंगल में आपके पास जब कुछ भी ना हो तब क्या करेंगे तो अमेरिकी मित्र ने कहा कि फिर पहाड़े सुनाने किसको हैं जंगल में शेर को तो पहाड़े सुनने से रहा. खैर मेरे मित्र अपने अमेरिकी मित्र के हास्य बोध और तर्कों के कायल हुए और यह उनका निजी अधिकार है .
परंतु क्या आपको पता है कि अंकों की गणना हमारे मस्तिष्क को और अधिक धारदार बनती हैं शायद इसीलिए सवैया , पौना , ड्यौढ़ा भी बच्चों को रटवाया जाता था दो एकम दो ,दो दुनी चार … के साथ साथ. मिथिला की प्राचीन परम्परागत शिक्षा पद्धति में सिद्धांत कौमुदी, अमरकोश, लीलावती , न्यायसूत्र और काव्य प्रकाश आदि, बच्चों विद्यालय की उम्र होने तक रटा दिया जाता था ताकि जब जरूरत पड़े उस समय व्याकरण, शब्दकोश, गणित के सूत्र और सिद्धांत, छन्दशास्त्र आदि सब कंठस्थ हों. ये भी ज्ञात हो कि लीलावती में वर्णित सारे गणितीय तथ्य श्लोकों में छन्दबद्ध हैं. हमारे ऋषियों ने लिखा है कि…

पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं च धनम्।
कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्।।
अर्थात्
किसी पुस्तक में रखी विद्या और दूसरे के हाथ में गया धन। ये दोनों जब जरूरत होती है तब हमारे किसी भी काम में नहीं आती। यही कारण है कि हमारा ज्ञान श्रुति और स्मृति में बँटा था जिसे सिर्फ सुनकर और याद रख कर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाया जाता रहा . जिसे लिखा नहीं गया और जो आमतौर पर दिव्य ज्ञान था .श्रुति में चार वेद आते हैं : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद,अथर्ववेद और वेदो के सूक्त। हर वेद के चार भाग होते हैं : संहिता, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद्। इनके अलावा बाकी सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति के अन्तर्गत आते हैं।
यदि कभी श्रुति और स्मृति में वैचारिक व्यतिरेक हुआ तो श्रुति के कथन को प्रमाण माना जाता था.
अब सवाल पहाड़े रटने की जरूरत की बात तो ये बता दूं कि अंक गणना मस्तिष्क को सक्रिय बनाती है और अंक मां की गोद को भी कहते हैं . इन अंकों के पहाड़े की बार बार रटना मानसिक गणना को तीव्र बनाता है और मानव मस्तिष्क को वही आराम देता है जो शिशु को मां की गोद में आता है. कैलकुलेटर, मोबाइल या कम्प्यूटर पर थिरकती अंगुलियाँ क्या मानव मन को वही अनुभूति दिलवा सकती हैं? जाहिर है बिल्कुल नहीं.
इस लिए जो लोग पहाड़े याद करना दकियानूसीपन और व्यर्थ मानते हैं वे सुडोकू को बुद्धिवर्धक खेल मानते हैं. .. और मामला वही है मानव मस्तिष्क में अंक चिंतन करके उसी मानसिक बौद्धिकता को प्राप्त करना. हम भारतीय जंगल में किसी शेर को सुनाने के लिए पहाड़े नहीं रटते, बल्कि स्वान्तःसुखाय करते हैं क्योंकि जब बाकी सभ्यताएँ बस 60 तक की गिनती जानती थी तब भी हम भारतीय प्रकाश की गति और सूर्य की पृथ्वी से दूरी भी माप सकते थे.
वेदों के सायण भाष्य में एक श्लोक में लिखा है…
योजनानाम् सहस्रद्वे द्वेशते द्वे च योजने.
एकेन निमिषार्धेन क्रममान नमोस्तुते. .
यहाँ पर “सहस्र द्वे द्वे शते द्वे” का अर्थ है “2202” और “एकेन निमिषार्धेन” का अर्थ “आधा निमिष” है। अर्थात सूर्य की स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि सूर्य से चलने वाला प्रकाश आधा निमिष में 2202 योजन की यात्रा करता है।आइए योजन और निमिष को आज प्रचलित इकाइयों में परिवर्तित करके देखें कि क्या परिणाम आता हैःअब तक किए गए अध्ययन के अनुसार एक योजन 9 मील के तथा एक निमिष 16/75 याने कि 0.213333333333333 सेकंड के बराबर होता है।2202 योजन = 19818 मील = 31893.979392 कि.मी.आधा निमष = 0.106666666666666 सेकंडअर्थात् सूर्य का प्रकाश 0.106666666666666 सेकंड में 19818 मील (31893.979392 कि.मी.) की यात्रा करता है।याने कि प्रकाश की गति 185793.750000001 मील (299006.056800002) कि.मी. प्रति सेकंड है।वर्तमान में प्रचलित प्रकाश की गति लगभग 186000 मील (3 x 10^8 मीटर) है जो कि सायनाचार्य के द्वारा बताई गई प्रकाश की गति से लगभग मेल खाती है।
अपने आंकिक ज्ञानको हम से कमतर पाकर विदेशी सामान्यतया हमारे मौलिक शिक्षा का मजाक उड़ाते हैं परन्तु पहाड़े के रटने के दौरान होने वाले मानसिक विकास को पाने के लिए आज तक सुडोकू खेल रहे हैं.

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