-बलबीर पुंज

आगामी दिनों में चार राज्यों- प.बंगाल, केरल, असम, तमिलनाडु और एक केंद्र शासित राज्य- पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव होंगे। 2 मई को नतीजे क्या आएंगे- इसका उत्तर भविष्य के गर्भ में है। इन प्रदेशों में नई सरकार के निर्वाचन हेतु जहां स्वाभाविक रूप से स्थानीय मुद्दों का दबादबा होगा, वही राष्ट्रीय मुद्दों की भी अपनी भूमिका होगी, जिसमें “लव-जिहाद” विरोधी कानून भी एक है। भारतीय जनता पार्टी ने प.बंगाल, केरल विधानसभा चुनाव में विजयी होने पर इस संबंध में कानून लाने की बात कही है। इस संबंध में भाजपा की कटिबद्धता ऐसे भी स्पष्ट है कि उसके द्वारा शासित राज्यों में लव-जिहाद विरोधी कानून या तो लागू हो चुका है या फिर इसकी रुपरेखा तैयार की जा रही है। गत दिनों ही उत्तप्रदेश सरकार ने विधानसभा में “उत्तरप्रदेश विधि विरुद्ध धर्म संपरिवर्तन प्रतिषेध” नामक विधेयक ध्वनि मत से पारित कराने में सफलता प्राप्त की है।

यह विडंबना है कि देश के स्वघोषित सेकुलरवादी और “वाम-उदारवादी” अक्सर लव-जिहाद को भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस.) का एजेंडा बताकर इसे काल्पनिक बताते है। यह सही है कि हिंदूवादी संगठन इसपर मुखर है। किंतु यह भी एक सत्य है, जिसकी अवहेलना भारत में वैचारिक-राजनीतिक अधिष्ठान का एक बड़ा वर्ग करता है कि लव-जिहाद के खिलाफ सबसे पहले आवाज केरल के ईसाई संगठनों ने 2009 में बुलंद की थी, जिससे वह आज भी आतंकित है। जुलाई 2010 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ वामपंथी वी.एस. अच्युतानंदन भी प्रदेश में योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम युवकों द्वारा विवाह के माध्यम से हिंदू-ईसाई युवतियों के मतांतरण का उल्लेख कर चुके थे। यही नहीं, केरल उच्च न्यायालय भी समय-समय पर इस संबंध में सुरक्षा एजेंसियों को जांच के निर्देश दे चुकी है।

यह स्थापित सत्य है कि मुस्लिम समाज का एक वर्ग मजहबी कारणों से झूठ, भय और लोभ के माध्यम और अपने समुदाय के प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन से न केवल गैर-मुस्लिम युवतियों (हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध आदि) का यौन-उत्पीड़न करता है, अपितु उनका मतांतरण कर पीड़ित युवतियों की मूल पहचान और सांस्कृतिक विरासत को छीन भी लेता है। यह कोई दो व्यस्कों के बीच “प्रेम” का मामला नहीं है, केवल “तकैया” अर्थात्- “पवित्र धोखा” है, जिसके अंतर्गत शरियत एक मुस्लिम को विशेष परिस्थिति में झूठ बोलने की अनुमति देता है।

क्या यह सत्य नहीं कि भारत में जितने भी “लव-जिहाद” के मामले आते है, उसमें अधिकांश मुस्लिम अपनी इस्लामी पहचान छिपाने हेतु माथे पर तिलक, हाथ में कलावा और हिंदू नामों आदि का उपयोग करते है? अभी हाल ही में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक निजी न्यूज चैनल को दिए साक्षात्कार में लव-जिहाद विरोधी कानून लाने का कारण बताया था। उन्होंने मेरठ की एक घटना का उल्लेख करते हुए कहा, “असलम नामक व्यक्ति ने अमित बनकर हिंदू बालिका से शादी की। कई वर्षों तक दोनों साथ रहे। इस दौरान दोनों से एक बच्ची पैदा हुई। इसके बाद असलम ने हिंदू युवती के समक्ष अपनी वास्तविक पहचान का खुलासा किया और उसे इस्लाम स्वीकार करने को कहा। यह बात पीड़िता ने अपनी एक सहेली को बताई। जब कई दिनों तक पीड़ित युवती गायब रही, तब उसकी उसी सहेली ने पुलिस और मुझसे संपर्क साधा। जांच में पता चला कि असलम ने पीड़िता और उसकी बेटी को मारने के बाद दोनों की लाशों को घर के भीतर दफना दिया था।” क्या देश में ऐसे कई मामले सामने नहीं आए?

भारत में वामपंथी-जिहादी कुनबा लंबे समय वास्तविकता को निरस्त करने या उसे छिपाने में पारंगत रहा है। अगस्त 1947 में इस्लामी मान्यताओं ने देश को तीन टुकड़ों- पूर्वी पाकिस्तान, पश्चिमी पाकिस्तान और खंडित भारत में विभाजित कर दिया। यह इसलिए हुआ, क्योंकि भारतीय मुसलमानों का वृह्त वर्ग स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में “काफिर” हिंदुओं के साथ बराबर बैठने में घृणा कर रहा था, जो 600 वर्षों तक पराजित हिंदुओं पर राज करने की भावना से जनित था। किंतु इस त्रासदी को देश के उसी कुनबे ने भारतीय समाज के उपेक्षित-शोषित वर्ग द्वारा अपनी पहचान बनाने का प्रयास बता दिया। आज वही लोग, जो दशकों से हिंदू समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, दहेज जैसे कुरीतियों आदि के साथ उनके महिला उन्मुख त्योहारों को लेकर प्रतिगामी बताते थकते नहीं है- वह मुस्लिम समाज में हिजाब, बुर्क़ा, बहु-विवाह, हलाला, तीन तलाक जैसी कालबह्य कुप्रथाओं को कभी मजहबी कारणों से, तो कभी आस्था का प्रश्न बनाकर इन्हें सामाजिक बुराई मानने से ही इनकार कर देते है। आज “लव-जिहाद” को काल्पनिक बताना- उसी “अस्वीकार मानसिकता” का एक और प्रमाण है।

आखिर “लव-जिहाद” किसे कहते है? प्रेम-विवाह में केवल निस्वार्थ प्यार होता है। यह किसी भी पुरुष और महिला के बीच हो सकता है, चाहे दोनों एक ही मजहब से हो या फिर अंतर-मजहबी। किंतु “लव-जिहाद” में एक छोर पर व्यक्ति को “प्रेम” की आवश्यकता होती है, तो दूसरी ओर केवल और केवल मजहब के प्रति समर्पण- अर्थात् उसमें “प्रेम” से अधिक इस्लाम और उसकी मान्यताओं के प्रति निष्ठा महत्वपूर्ण होती है।

यह स्थिति तब और विकृत हो जाती है, जब मुसलमान और गैर-मुस्लिम के बीच विवाह एकतरफा रहता है- क्योंकि इस्लाम में मुस्लिम महिलाओं का गैर-मुस्लिम से विवाह “हराम” है। उनकी शादी केवल अपने मजहब के भीतर ही हो सकती है। यह मजहबी पाबंदी मुस्लिम समाज के व्यवहार का अकाट्य हिस्सा आज भी है। “सेकुलर” भारत इसका अपवाद नहीं है। वर्ष 2012 में केरल के तत्कालीन मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेसी नेता ओमान चांडी ने बताया था कि 2009-12 के बीच 2,667 गैर-मुस्लिम महिलाएं इस्लाम मतांतरित हुई थी, जबकि केवल 81 मुस्लिम महिलाओं का मतांतरण हुआ था। स्पष्ट है कि इस्लाम में विवाहित गैर-मुस्लिम महिलाओं की संख्या, इस्लाम से बाहर जाकर विवाह और मतांतरण करने वाली मुस्लिम महिलाओं से 33 गुना अधिक है।

सच तो यह है कि “लव-जिहाद” के अस्तित्व को अब आसानी से निरस्त नहीं किया जा सकता। “प्यार” को लोग सहज समझते है, किंतु “जिहाद” का संबंध प्रेम से न होकर इस्लामी संघर्ष से है- जोकि केवल युद्ध तक सीमित नहीं है। “जिहाद” का अर्थ इस्लाम को बढ़ावा देने हेतु किया गया कोई भी प्रयास है। क्या प्रेम (विवाह सहित) इस्लाम को बढ़ावा देने हेतु अभिन्न हो सकता है? तटस्थ और इस्लामी स्रोतों का कहना है कि हां, ऐसा संभव है और यह है भी।

कई प्रमाणिक शोध (इस्लामी सहित) में दावा किया गया है कि प्रेम-विवाह इस्लाम के विस्तार में महत्वपूर्ण है। “डेमोग्राफिक इस्लामिजेशन: लॉल मुस्लिम गल मुस्लिम कंट्री” नामक एक दस्तावेज में यूरोपीय समाजशास्त्री फिलिप फार्ग्यूस ने समझाया है कि मुस्लिम देशों में कैसे प्रेम और विवाह के माध्यम से इस्लामीकरण किया जा रहा है। फार्ग्यूस कहते हैं, “प्रेम अब भी इस्लामी विस्तार में वही भूमिका निभा रहा है, जैसा इतिहास में अबतक हुआ है।”

“हाउ इस्लाम स्प्रेड थ्रूआउट द वर्ल्ड” शीर्षक से एक शोधपत्र में हस्साम मुनीर ने इस बात का विरोध किया है कि इस्लाम केवल तलवार के बल पर फैला है। यह दस्तावेज “यकीन संस्थान” की वेबसाइट पर उपलब्ध है, जिसकी स्थापना इस्लामोफोबिया का मुकाबला करने और समाज में इसके दुष्परिणाम बताने हेतु किया गया है। मुनीर के अनुसार, घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंतर-मजहबी विवाह उन मुख्य युक्तियों में से एक है, जिससे इस्लाम का विस्तार हो सकता है। बकौल मुनीर, “मुसलमानों और गैर-मुस्लिमों के बीच विवाह इस्लाम के प्रसार हेतु ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण रहा है। इस प्रक्रिया से इस्लाम में मतांतरित होने वाले लोगों में सर्वाधिक महिलाएं थीं।”

लेखक और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रोफेसर क्रिश्चियन सी.साहनर ने अपनी पुस्तक “क्रिश्चियन मार्ट्यर्स अंडर इस्लाम: रिलीजियस वॉयलेंस एंड मेकिंग ऑफ द मुस्लिम वर्ल्ड” (प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस) में लिखा है, “इस्लाम शयन कक्ष के माध्यम से ईसाई दुनिया में फैला।” गैर-मुस्लिम महिलाओं के लिए अधिकांश मुस्लिम पुरुषों का प्रेम मजहबी अभियान अधिक है। अर्थात्- यह इस्लाम के विस्तार हेतु जिहाद है। इस पृष्ठभूमि में क्या मजहब के नाम पर धोखे को स्वीकार करने से सभ्य समाज स्वस्थ रह सकता है?

लेखक वरिष्ठ स्तंभकार, पूर्व राज्यसभा सांसद और भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।

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