राजस्थान काँग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष एवं पूर्व शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा ने महाराणा प्रताप और अकबर के मध्य हुए संघर्ष को सत्ता-संघर्ष मात्र बताकर मातृभूमि, स्वधर्म, स्वदेश, स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए सर्वस्वार्पण की प्रेरणा जगाने वाले राष्ट्र के सर्वमान्य एवं सार्वकालिक महानायक महाराणा प्रताप का तो अपमान किया ही, साथ ही यह उन सबका भी अपमान है, जो किसी-न-किसी स्तर पर उनके जीवन से महानतम प्रेरणा ग्रहण करते हैं। जिनका नाम लेते ही नस-नस में बिजली-सी दौड़ जाती हो; धमनियों में उत्साह, शौर्य और पराक्रम की धारा प्रवाहित होने लगती हो; मस्तक गर्व और स्वाभिमान से ऊँचा हो उठता हो- ऐसे परम प्रतापी महाराणा प्रताप पर भला किस भारतीय को गर्व नहीं होगा! उनका जीवन त्याग व बलिदान, साहस और संघर्ष का निकष था। उन्हें सत्ता से कहीं अधिक मातृभू की स्वाधीनता, कुल की मान-मर्यादा, आठवीं शताब्दी से चली आ रही अपने पूर्वजों की समृद्ध एवं गौरवशाली परंपरा और प्रजा के हिताहित की चिंता थी। उन्हें सनातन भारत के महान राजाओं की प्रजा-वत्सलता, राजपुरुषों के वीरोचित धर्म, ऊँचे आदर्शों, उदात्त जीवनमूल्यों का सम्यक एवं समुचित बोध था। अपने समकालीन अन्य राजाओं की तरह उनके समक्ष भी यह सरल विकल्प था कि वे अधिकार एवं साम्राज्य-विस्तार की लिप्सा एवं दर्प से मदमत्त एक विधर्मी एवं आक्रमणकारी शासक के चरणों में अपनी स्वाधीनता व स्वाभिमान को गिरवी रख अपमानजनक संधि व समझौते कर लेते और याचना में मिले सत्ता-सुख को निर्बाध भोगते रहते। पर उन्होंने सरल विकल्प का चयन न कर बीहड़ों और जगंलों की ख़ाक छानने, अपने बच्चों, परिजनों और विश्वसनीय साथियों समेत घास की रोटी खाकर भी संकटों का साहसपूर्वक सामना करने का कठिन एवं संघर्षपूर्ण विकल्प चुना। किसके लिए? केवल सत्ता के लिए? ऐसा कहना तो क्या सोचना भी अनुचित एवं अनैतिक होगा।
क्या यह सत्य नहीं कि हल्दीघाटी के युद्ध से पूर्व अकबर ने चार-चार संधि-प्रस्ताव महाराणा प्रताप को भेजे थे? पर उन्होंने उसे ठुकराकर मेवाड़ के गौरव एवं स्वाभिमान की रक्षा तथा प्रजा-हित को सर्वोपरि रखा। अकबर से संधि कर क्या राजा मान सिंह ने अपनी सत्ता नहीं बचाई, प्रताप की तुलना में कहीं बड़े भूभाग पर उनका आधिपत्य रहा, पर इतिहास के पृष्ठों से लेकर लोकमानस की दृष्टि में भी उन्हें वह मान-सम्मान-स्थान कभी नहीं मिला, जो महाराणा को मिला। प्रायः यह देखने में आता है कि निष्पक्ष कहे जाने वाले राज्य (बफ़र स्टेट) शक्तिशाली के साथ जाते हैं, पर राजस्थान के अधिकांश छोटे-छोटे राज्यों ने अकबर के विरुद्ध संघर्ष में महाराणा प्रताप का साथ दिया। ईडर, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ के शासकों से प्रताप के मधुर संबंध रहे। जोधपुर का राठौड़ चंद्रसेन, जालोड़ के ताज खां तथा हकीम खां का भी प्रताप को बराबर सहयोग रहा। बूंदी के हाड़ा सुर्जन ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली किन्तु उसका विद्रोही पुत्र दूदा प्रताप का सहयोगी बनकर मुगलों के विरुद्ध लड़ता रहा। सिरोही के राव सुरताण के साथ प्रताप ने अपनी पौत्री का विवाह कर, उनसे स्थाई एवं मधुर संबंध स्थापित किए। कुल मिलाकर प्रताप का पड़ोसी राज्यों के साथ सदैव शांति, सहयोग एवं मैत्रीपूर्ण संबंध रहा। यदि उनमें सत्ता-सुख या राज्य-विस्तार की लिप्सा होती तो आस-पड़ोस के राज्यों के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं होते।
साहस, संघर्ष, त्याग और बलिदान की तुलना सम्राज्य-विस्तार की अंधी महत्त्वाकांक्षा, येन-केन-प्रकारेण अपना प्रभुत्व स्थापित करने की निरंकुश मानसिकता तथा विजय के पश्चात अगाध एवं अनियंत्रित सुख भोगने की लपलपाती लिप्सा से भला कैसे की जा सकती है! महाराणा के महान संघर्ष को सत्ता-संघर्ष कहने-बताने वाले क्या कल को चित्तौड़ की हज़ारों स्त्रियों के जौहर को भी सत्ता-संघर्ष बताकर अवमूल्यित-अपमानित करेंगें? अकबर आक्रांता था, साम्राज्य-विस्तार के साथ-साथ संपूर्ण भारतवर्ष को इस्लामी झंडे तले लाना भी उसका गौण-अघोषित लक्ष्य था। जबकि महाराणा प्रताप अपनी मातृभूमि की स्वाधीनता, प्रजा की मान-मर्यादा एवं अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे थे। और इस लड़ाई में केवल उनके सैनिक ही सम्मिलित नहीं थे, बल्कि उनकी आम प्रजा भी निजी सुख-दुःख की चिंता किए बिना कंधे-से-कंधा मिलाकर उनके साथ खड़ी थी। बल्कि इतिहास में इसलिए भी उनका नाम विशेष उल्लेख्य होना चाहिए कि युद्ध-कौशल के साथ-साथ उनका सामाजिक-सांगठनिक कौशल भी अनुपमेय था। उन्होंने जाति, पंथ, मत, मज़हब, संप्रदाय आदि संकीर्ण धारणाओं से ऊपर उठकर सदा राजधर्म का पालन किया। यही कारण था कि उनके शासनकाल में क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, मुसलमान, वनवासी भील, लोहार आदि सभी छोटी-बड़ी जातियों में एकजुटता व मेलजोल का वातावरण बना रहा। अकबर के विरुद्ध संघर्ष में इन सबकी समान व सक्रिय भागीदारी रही। हल्दीघाटी युद्ध में तो इन जातियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया। आज से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व जन सहयोग एवं सामाजिक समरसता की दृष्टि से महाराणा प्रताप की यह उपलब्धि निःसंदेह एक प्रेरणास्पद व अनुकरणीय घटना है।
जातीय विभाजन की आग में घी डालकर सदैव अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने वाले आज के तमाम दलों एवं नेताओं को महाराणा से सामाजिक एकता एवं समरसता की सीख लेनी चाहिए ! उन्होंने भीलों के साथ मिलकर एक ऐसा मज़बूत सैन्य एवं सामाजिक गठजोड़ बनाया था, जिसे भेद पाना अकबर के लिए आसान नहीं था। राज-काज व दैनिक व्यवहार में ऊँच-नीच का भेद मिटाए बिना समरसता की ऐसा रचना-स्थापना क्या कभी संभव थी? उनकी प्रजा का उन पर कितनी अपार श्रद्धा रही होगी कि भामाशाह ने उन्हें सेना का पुनर्गठन करने के लिए अपनी सारी संपत्ति दान कर दी। कहते हैं कि यह राशि इतनी बड़ी थी कि इससे 25000 सैनिकों के लिए 5 वर्ष तक निर्बाध रसद की आपूर्त्ति की जा सकती थी। यह सब महाराणा प्रताप के महान व्यक्तित्व, धवल-उज्ज्वल चरित्र, अदम्य साहस, गहन सूझ-बूझ तथा अपराजेय पौरुष एवं पुरुषार्थ के बल पर ही संभव हुआ होगा। उनकी नैतिकता, उदारता एवं चारित्रिक ऊँचाई का अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि एक बार कुंवर अमर सिंह अति उत्साह एवं शत्रु-भाव में अब्दुर्रहीम खानखाना की बेग़मों को क़ैद कर लाए तो महाराणा ने उन्हें डाँटते हुए उन महिलाओं को ससम्मान वापस भिजवाने का आदेश दिया। रहीम ने इस प्रसंग का आदरपूर्वक उल्लेख भी किया है। जिस महाराणा से शिवाजी जैसे योद्धा, वियतनाम जैसे देश तथा तमाम स्वतंत्रता-सेनानियों ने प्रेरणा ग्रहण की, जो स्वत्व, स्वाभिमान और स्वाधीनता के प्रतीक-पर्याय हों, ऐसे महापुरुष के मान-मर्दन की कुचेष्टा कुंठित एवं कुत्सित मानसिकता का परिचायक है।
प्रणय कुमार
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