भारत में बड़बोलों का प्रजातंत्र है जो जितना गाल बजाए उसकी उतनी पहचान बनती है। आजादी के बाद जहां हिंदुत्व वादियों ने जमीनी काम देखा, इस्लाम और ईसाइयत के धार्मिक अतिक्रमण के खिलाफ आवाज उठाई वही स्वतंत्रता संग्राम से आफिसियली संबंधित कांग्रेसियों ने सत्ता में जुगाड़ बनाया। उस समय का कम्युनिस्ट धड़ा बोलने का काम करता रहा और कांग्रेस ने उसमें हस्तक्षेप भी नहीं किया लगभग ‘निंदक नियरे राखिए’ वाली बात बनी रही। कांग्रेस ने सत्ता संभाली और स्पॉन्सर्ड विपक्ष के रूप में कम्युनिस्ट को बनाए रखा । इन कम्युनिस्टों ने इतिहास, भूगोल, राजनीति शास्त्र मनोविज्ञान , समाज शास्त्र आदि के कंटेंट में अपना निजी दर्शन घुसेड़ना जारी रखा। परिणाम यह हुआ के संविधान लिखते समय भी भारतीय ग्रंथों की अवहेलना हुई ।चाणक्य का अर्थशास्त्र मनुस्मृति, विदुर नीति, बृहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति आदि ग्रंथों की अवहेलना करके विदेशों के संविधान से चुरा चुरा कर भारतीय संविधान का लगभग कट एंड पेस्ट प्रारूप तैयार हुआ। जो काम राजा राममोहन राय ने भारतीय ज्ञान को पद दलित करने के प्रयास के रूप में प्रारंभ किया उसे सच्चिदानंद सिन्हा, राजेंद्र प्रसाद और भीमराव अंबेडकर की संस्कृत और भारतीय संस्कृति के प्रति स्थायी जलन ने भारत के संविधान को एक मौलिक ग्रंथ होने के बदले सिर्फ विदेशी संविधानों का परिशिष्ट (एपेंडिक्स ) बना कर छोड़ दिया और उसका कारण था इन सब लोगों का संस्कृत न जानना। खैर इन्हीं किताबों को पढ़कर भारतीय विद्वानों की फौज तैयार हुई जो लगभग वामपंथ के द्वारा (जिसे आमतौर पर पंथनिरपेक्ष माना जाता रहा परंतु उसने सनातन की निंदा सबसे ज्यादा की) तैयार विषय वस्तु को पढ़कर ही शिक्षित हुए । इन्हीं ग्रंथों को पढ़कर लगभग अब तक के न्यायाधीश, अधिवक्ता, भारतीय प्रशासनिक अधिकारी ,प्राध्यापक , शिक्षक , प्रबंधक आदि तैयार होते रहे हैं। चूंँकि वामपंथ की मूल खुराक असंतोष है इसीलिए आज भी भारतीय न्यायालय सिर्फ असंतोष का निपटारा करती है न उसे अपराध से लेना होता है ना अपराधियों से। पूरी न्याय व्यवस्था लगभग वकीलों की तरफदारी करती हुई दिखती है। अगर अभियोग कर्ता अपनी बीमारी की वजह से केस की सुनवाई के दौरान उपस्थित ना हो तो उसके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है सर्च वारंट भी निकल सकता है परंतु अगर अभियुक्त के वकील को छींक भी आ जाए तो अगली तारीख मिल जाती है। खैर
आजकल की बड़ी खबरों में है मैरिटल रेप। यह शब्द जाने अनजाने ही सही भारतीय न्याय व्यवस्था के द्वारा उछाला गया सिक्का है। इतने केस लंबित पड़े हुए हैं न्यायालयों में 1-1 जज पर हजारों की संख्या में केस निपटाने का भार है और वकीलों की इनकम भी सलामत रखनी है इसीलिए आप देखेंगे कि न्यायालय उन मामलों में बड़ी तेजी दिखाता है जिसमें न्याय नहीं करना होता है सिर्फ असंतोष की मंद मंद जलती हुई आग को खोर खोर करके प्रज्वलित करना होता है। एक सामान्य हत्या के केस को अपराधी को फांसी तक पहुंचाते पहुंचाते चाहे मृतक का परिवार खुद मौत के मुंह में चला जाए पर कातिल की फांसी पर स्टे ऑर्डर देने में कोर्ट 1 दिन की भी देरी नहीं करता। निर्भया के रेपिस्ट को सजा मिलते मिलते मनमोहन सरकार शहीद हो गई। संसद पर हमले के आरोपी आज भी कुछ नामचीन विश्वविद्यालयों में फख्र से लिया जाने वाला नाम हैं। तो आखिर यह मैरिटल रेप नाम का सिक्का क्यों चलना पड़ा। तो वजह है कोर्ट की पहचान का संकट मतलब न्याय के पटल पर अस्तित्व विहीनता। आप पिछले 2 साल के अखबारों को पलट कर देख लीजिए तो भारतीय न्यायालय ने कुल 300 हत्यारों को भी सजा नहीं सुनाई होगी। आर्थिक घोटालेबाज, रेप ,रियल स्टेट, ठगी, लूट, एक्सीडेंट आदि के मामलों की तो बात ही मत पूछिए।
कोर्ट का काम तो बस उसी दर से तारीख पर तारीख देना है जिस दर से आरोग्य सेतु एप ओटीपी भेजता है।
दरअसल भारतीय न्याय व्यवस्था तो नाली की सफाई, हेट स्पीच, कोरोना का लॉकडाउन, सांसदों की बर्खास्तगी, चुनावी रैलियों पर रोक , फांसी पर स्टे, घोटालेबाज के लिए एंटीसिपेटरी बेल जैसे कामों में व्यस्त होती है उसे फुर्सत कहां कि वास्तविक केसों को निपटाए। अभी तक भारतीय न्यायालय ने पति पत्नी के बेडरूम को छोड़ रखा था परंतु इस मैरिटल रेप से भारतीय कानून की पहुंच भारतीय दंपति के बिस्तर पर रखें तकिए और तौलिए की तरह हो गई।
इस मैरिटल रेप के नाम पर जब चाहे पत्नी अपने पति को जेल भिजवा सकती है। मेरा मानना है कि अब तक किसी पति ने भी मौखिक और रिकॉर्डेड सहमति के बाद अपनी पत्नी के साथ हमबिस्तरी नहीं की होगी परंतु शायद अब पतियों को एक ब्लैंक एफिडेविट फार्म भी रखना पड़ेगा जो सहमति का प्रमाण होगा ।
एक सर्वे कहता है कि 80 से 90 प्रतिशत भारतीय पत्नियां चरमसुख नहीं जानती हैं या उन्होंने इस का अनुभव नहीं किया है तो दूसरे सर्वे के अनुसार लगभग 50% महिलाओं ने माना है कि वह अपने पति के साथ हमबिस्तर इस लिए होती हैं क्योंकि उन्हें उन पर दया आती है।
तो जैसे ही ये दया का भाव गया मैरिटल रेप टर्म आया।
आम भारतीय संस्कृति में मधु-यामिनी से लेकर आम दिनों तक भी पत्नी के द्वारा लाया गया दूध का गिलास आमतौर पर पति द्वारा कायिक भोग की सहमति मान लिया जाता था। माना जाता है कि सिर्फ माहवारी के दिनों में पत्नी पति के लिए दूध का गिलास नहीं लाती थी। और यह अघोषित और अनडॉक्युमेंटेड सहमति का प्रमाण-पत्र है, था और रहेगा परंतु इस मैरिटल रेप में पत्नी जब चाहे पति के साथ अनुभूत दैहिक सुख को एक सामान्य नाराजगी के उपरांत रेप घोषित कर सकती है।
यही न्यायालय है जो शाह बानो के केस में मुस्लिम पर्सनल ला से छेड़छाड़ नहीं कर पाती है परंतु एक हिंदू दंपति के शयन कक्ष नैराश्य को मैरिटल रेप नाम का अपराध घोषित कर सकती है।
जो भारतीय कानून तीन बार तलाक बोलने के बाद पछताए हुए पति को अपनी उसी पत्नी को वापस लाने के लिए किसी धर्माधिकारी के आदेश पर उस तलाकशुदा पत्नी के किसी परपुरुष के साथ कम से कम एक रात अनिवार्य रूप से हमबिस्तर होने को रेप नहीं मानती है उसे हिन्दू पति पत्नी के मनमुटाव को मैरिटल रेप घोषित करने में 1 सेकंड भी नहीं लगता।
एक चुटकुला बताता है कि पत्नी के पहले वर्ष चंद्रमुखी दूसरे वर्ष सूर्यमुखी और तीसरे वर्ष ज्वालामुखी होती है। पाठक भी ये मानेंगे कि चंद्रमुखी से मनमुटाव होगा क्यों और ज्वालामुखी से मनमुटाव का सोचना भी किसी पति के लिए कितना भारी पड़ेगा, यह कोर्ट को भी नहीं मालूम।
शायद कोर्ट को मालूम हो कि कितने पति और उनका परिवार दहेज विरोधी कानून की वेदी पर बलि चढ़ चुके हैं और ऐसा ही हाल अस्पृश्यता निवारण कानून का है।
अगर ये मैरिटल रेप का सिक्का चल निकला तो दहेज विरोधी कानून, अस्पृश्यता निवारण कानून के बाद मैरिटल रेप की संभावना भारतीय परिवार व्यवस्था की धज्जियां उड़ा देंगी क्योंकि भारतीय कानून संहिता दरअसल वकीलों के द्वारा की गई व्याख्याओं की गुलाम है। भारतीय न्यायाधीश आईपीसी और सीआरपीसी तो समझते हैं परंतु वकीलों के द्वारा इनमें उल्लिखित धाराओं का तात्पर्य समझने में उलझ जाते हैं। यही वजह है कि कोई भी जागरूक नागरिक बलात्कार के 10 ऐसे केस नहीं बता सकता जिसमें बलात्कारी को सजा हुई हो।
और वह भारतीय कानून मैरिटल रेप नाम की एक अपराध श्रृंखला को घोषित करने का अधिकार कैसे पा सकता है जिसे आज तक यह पता नहीं है कि वेश्याएंँ क्या होती हैं और भारत में रेड लाइट एरिया का न्यायिक रूप से कोई अस्तित्व है।
तो न्याय व्यवस्था ने अपनी न्यायिक तंद्रा और निर्णयजन्य आलस्य झुठलाने के लिए सनातन समाज की एकमात्र स्थायी इकाई परिवार को खंडित करने वाला एक ऐसा सिक्का उछाल दिया है कि आने वाले दिनों में शायद व्यक्ति ही समाज की इकाई बनकर रह जाएगा क्योंकि वह विवाह करने से डरेगा। उसे हर वक्त ये डर बताता रहेगा कि जुल्फों के साए में बीती हुई शाम कब जेल की काली अंधेरी रात में बदल जाए।।
यह मैरिटल रेप भारतीय न्याय व्यवस्था का बड़बोलापन ही तो है और वामपंथी सोच का ढूंढा हुआ नया असंतोष।

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