मुंबई उच्च न्यायालय के विवादित आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगा :राष्ट्रीय महिला आयोग

अभी दो दिन पूर्व ही मुमबई उच्च न्यायालय एक एकल खंडपीठ द्वारा पॉक्सो के एक मुक़दमे की सुनवाई करते हुए “पॉक्सो ” कानून में दर्ज़ विधिक शब्दों की गूढ़ व्याख्या के आधार पर एक नाबालिग बच्ची के यौन शोषण के आरोपी को बच्चों के यौन शोषण से सम्बंधित विशेष कानून पॉक्सो की गंभीरतम अपराध की धाराओं में दोषी नहीं पाया।
असल में पोक्सो क़ानून में वर्णित “शारीरिक संपर्क यौनाचार की भावना से ” में शारीरिक संपर्क को सीधा त्वचा से त्वचा के संपर्क के अर्थ में व्याख्यायित किया। माननीय न्यायमूर्ति ने इसे स्पष्ट करते हुए आदेश में कहा कि , इस कानून में वर्णित शब्द शारीरिक संपर्क का अर्थ सीधा त्वचा से त्वचा का नग्न संपर्क होता है जो अभियोजन द्वारा प्रस्तुत इस मुक़दमे में नहीं दर्शाया गया कि अभियुक्त अपीलार्थी ने बच्ची के कपडे हटा कर उसके स्तन दबाए। विधिक रूप से “शारीरिक संपर्क ” साबित नहीं होता है।
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किसी भी विधिक आदेश की सरल व्याख्या विशेषकर उसे समझने और दूसरों को समझाने के लिए सबसे जरूरी होता है ,पूरे मुक़दमे को शुरू से अच्छी तरह पढ़ा व समझा होना। विधिक निर्णयों ,आदेशों के निहितार्थ तक पहुंचने की जल्दबाजी अक्सर उस फैसले के मर्म तक खुद ही नहीं पहुंची होती है। वहीँ दूसरी ओर इसका एक लाभ ये अवश्य होता है कि ऐसे निर्णयों की प्रतिक्रिया , आम जनमानस में किसी भी विधि प्रक्रिया , कानून और उसकी व्याख्या में विमर्श कर सहभागिता करने के अवसर में बदलने जैसे होते हैं।
महिला और बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्षरत कहते हैं कि ,माननीय न्यायालय ने जहाँ शारीरिक संपर्क को बुनियादी मान कर उसकी गूढ़ विधिक व्याख्या को आधार बनाया वहीँ दूसरी तरफ इस विशेष कानून के प्रयोजन और बड़े उद्देश्य जो कि समाज में रह रहे बच्चों का समाज के ही लोगों द्वारा किए जा रहे यौन शोषण जैसे जघन्य अपराध को प्रतिषेध करने के लिए ही लाया गया था उसके किसी भी शब्द या शब्द समूह से आरोपी को कैसे और क्यूँ लाभ दिया जाना चाहिए।
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