बुद्धदेब बाबू ने पद्मभूषण पुरस्कार लौटा दिया। ये खबर माकपा के महासचिव येचुरी साहेब ने ट्वीट करके बताया। कम से कम जिसे मिला वही बताता पर अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्षधर राजनैतिक दल के ग्यारह साल मुख्यमन्त्री रहे भद्र पुरुष को अपनी बात भी रखने की आज़ादी नहीं!
आपकी ट्वीट को वे रीट्वीट करते तो और बात होती…
मुझे याद आया फ़िल्म दुश्मन का एक दृश्य जिसमें एक बुज़ुर्ग अपनी बात शुरू करते हीं खाँसने लगते हैं और उनके साथा आया हुआ उनका भतीजा उनका तात्पर्य समझाता है कि चाचाजी कहना चाहते हैं कि … ।
यूँ तो ये पद्म सम्मान अन्धा बाँटे रेवड़ी हीं है , बार बार अपनों को हीं दिया जाता है पर इस बार जब बुद्धदेब बाबू और ग़ुलाम नवी आज़ाद को मिला तो समकालीन सत्ता की एक बेहतर भंगिमा देखने को मिली। थोड़ा कम हीं सही अपने प्रतिपक्षियों को भी सम्मान देने की कोशिश हुई। विपक्ष को तो सरकार के इस कदम की थोड़ी कंजूसी के साथ हीं सही तारीफ़ करनी चाहिये थी पर यहाँ तो पुरस्कार लौटाने के पीछे भी गैरों के मुँह से कुछ अज़ीब वज़ह मिली कि हमें बताया नहीं गया पहले।
बुद्धदेब जी ने ये नई बात बताई आपने। दरअसल पहले बुद्धिजीवी बिचौलिये पुरस्कारों के निर्णायक कमेटियों के इर्द गिर्द घेरा बनाये हुए रहते होंगे और पुरस्कारार्थियों को इस की खबर और पूर्वानुमान पहुँचाते रहे होंगे, और आप की ये शिकायत रही होगी कि इतने बुद्धिजीवियों के रहते ये खबर मुझे क्यों नहीं मिली। पहले इन बुद्धिजीवी विचारकों को पुरस्कार चयन आयोग की सदारत और सदस्यता पैदायशी मिल जाती थी इसी लिये पहला , दूसरा या फिर तीसरा भारत रत्न तत्कालीन प्रधानमन्त्री को हीं मिल गया था पर इस दक्षिणन्थी सरकार में कोई ऐसा नहीं है शायद। ना अमरीका को अटल के शासनकाल के परमाणु परीक्षण का पता पहले चला ना हीं बुद्धदेव मोशाय को पुरस्कार मिलने का वरना फ़िराक साहब को ये पहले हीं पता चल चुका था कि उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार संयुक्त रूप से मिलने वाला है और उन्होंने अपनी आपत्ति जता कर इसे एकल करवाया।
बाबू मोशाय ये बहाने जँचे नहींकि आप से किसी ने पूछा नहीं इसीलिये आप इन्कार कर रहे हैं। मोदी कुछ भी हो कम से कम पाकिस्तान तो नहीं है । उसका दिया हुआ निशाने पाकिस्तान मोरार जी देसाई या दिलीप साहेब ने भी ये कह कर नहीं लौटाया कि पाकिस्तान ने घोषणा करने से पहले उनसे पूछा नहीं, ये तो खैर भारतीय गणराज्य के राष्ट्रपति की तरफ से मिलने वाला था।
वैसे हमारे गाँव में अगर आपने अतिथि से पूछ लिया कि भोजन तो करेंगे ना तो वह यही कहेगा कि नहीं , अभी खाकर आया हूँ, भोजन करने में असमर्थ हूँ, भले हीं वह तीन दिन का फ़ाका करके आया हो। पुरस्कार के मामले में तो कहना हीं क्या?
आप चाहते क्या थे ? आपसे पूछा जाता कि आपको पुरस्कार चाहिये या नहीं और तब आप स्वीकार करते? गज़ब की लीचड़ई है साहेब!
दर असल आपने कभी प्रतिपक्ष का सम्मान किया हीं नहीं तो ये घी क्या हज़म होगा? जितना सम्मान नेहरू ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी और इन्दिरा ने वीर सावरकर का किया आपकी वाममोर्चा सरकार ने उतना भी श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नहीं किया। आपका दल तो ना सोमनाथ चटर्जी को सम्मान दे पाया ना जुझारू नेता कन्हैया कुमार का जो इस विपक्ष विहीन काल खंड में एनडीटीवी के रवीश और राहुल के साथ अकेला सत्ता के विरुद्ध डटा हुआ था।

यद्यपि ये पुरस्कार राजनीति प्रेरित होते हैं परन्तु मिलते तो राष्ट्रपति भवन से हैं जो राजनीतिक रूप से तटस्थ माना जाता है।
लगता है कि भले हीं फ़ैज़ की नज़्म ” बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे ” वाम प्रदर्शनकारियों का एंथम बन चुका है पर आप की पार्टी में अब भी वही दृश्य है कि … ” चाचाजी कहना चाहते हैं कि …”
आपकी पार्टी गैरों के घर में असहिष्णुता तलाशती रहती है पर आपको पता नहीं कहाँ कहाँ असहिष्णुता मिल सकती है।
” लाली देखन मैं गई…मैं भी हो गई लाल ”
लगता है आपकी विचारधारा को लाल के अलावा और कुछ नहीं भाता इसीलिये न तो ज्योति दा को प्रधान मन्त्री बनने देता है और ना आपको पद्मविभूषण।

जै राम जी की।

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