*ऐतिहासिक भूलों में सुधार का एक और अध्याय
-बलबीर पुंज
भारत को भारतीय परंपराओं से जोड़ने की श्रृंखला में एक और अध्याय जुड़ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 जनवरी को सिखों के 10वें गुरु गोबिंद सिंहजी के साहिबदाजों को श्रद्धांजलि देते हुए इस वर्ष से प्रत्येक 26 दिसंबर को ‘वीर बाल दिवस’ मनाने की घोषणा की। इस स्वागतयोग्य फैसले से न केवल विदेशी शक्तियों से भारत का सतत संघर्ष चरितार्थ होता है, साथ ही यह निर्णय उस राष्ट्रविरोधी दर्शन को भी रेखांकित करता है, जिसमें भारतीय संस्कृति से घृणा, अपने विषाक्त एजेंडे की पूर्ति हेतु भारतीय जनमानस में कपट से अत्याचारियों के प्रति गौरव का भाव पैदा करने और देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले अनगिनत वीरों को गुमनामी के अंधेरे में धकेलने की मानसिकता छिपी है।
जिस प्रकार इस्लामी आक्रमणकारियों से भारत की आत्मा- सनातन संस्कृति को बचाने हेतु गुरु गोबिंद सिंहजी ने निरंतर संघर्ष किया और 1708 में वीरगति को प्राप्त हुए, उसकी प्रेरणा विरासत में उन्हें अपने पिता और सिख पंथ के नौंवे गुरु तेग बहादुरजी से मिली। तब इस्लामी तलवार के समक्ष निडर होकर गुरु तेगजी बहादुरजी ने धर्म के मार्ग पर चलना स्वीकार किया था, जिससे अपमानित क्रूर औरंगजेब ने उन्हें और उनके दो शिष्यों- भाई मतिदास और भाई दयालदास को अमानवीय यातना देकर मौत के घाट उतार दिया। जिस स्थान पर गुरु तेगजी का शीश काटा गया था, वह दिल्ली का गुरुद्वारा सीसगंज साहिब और जहां उनका अंतिम संस्कार हुआ, वह दिल्ली का गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब कहलाता है। विडंबना है कि देश का एक वर्ग दिल्ली स्थित इन दोनों स्थानों की विशेषता की अवहेलना करके उन मजहबी ढांचों (कुतुब मीनार परिसर सहित) का महिमामंडन करता है, जो जिहादी मानसिकता की उपज है।
अपने पिता और अन्य सिख गुरुओं की परंपरा को गुरु गोबिंद सिंहजी और उनके चारों पुत्रों ने आगे बढ़ाया। 1704-05 में मुगल सेना के एक हमले में गुरु गोबिंद सिंह के दो बड़े बेटे- अजित सिंह (17 वर्षीय) और जुझार सिंह (13 वर्षीय), शौर्य का परिचय देकर वीरगति को प्राप्त हुए थे। तब पश्चात गुरु गोबिंद सिंह की मां माता गुजरी को उनके दोनों छोटे पौत्रों- जोरावर सिंह (9 वर्ष) और फतेह सिंह (7 वर्ष) के साथ सरहिंद में मुगल सैन्याधिकारी वजीर खान ने पकड़ लिया। जब दोनों वीरपुत्रों ने इस्लाम में मतांतरित होने से इनकार कर दिया, तब उन्हें एक दीवार में जीवित चुनवाकर मार डाला गया। यह स्थान आज पंजाब के फतेहगढ़ साहिब जिले में गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब के नाम से विख्यात है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी शहादत को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया है।
यह शौर्यगाथा केवल साहिबजादों तक सीमित नहीं। इस वीरशिरोमणि पंक्ति में 14 वर्षीय हकीकत राय का भी नाम शामिल है। एक मौलवी ने हकीकत पर अपनी सनातन संस्कृति पर गर्व और हिंदू आराध्यों पर मुस्लिम छात्रों की आपत्तिजनक टिप्पणी के खिलाफ प्रतिकार-प्रतिवाद करने के कारण ईशनिंदा का झूठा आरोप लगा दिया था। जब मुगल सैन्य अधिकारी जकारिया खान के शासनकाल में हकीकत को सजा हेतु एक क़ाज़ी के समक्ष लाया गया, तब उनसे इस्लाम अपनाने या मौत में से कोई एक विकल्प चुनने को कहा गया। हकीकत ने इस्लामी मतांतरण से इनकार कर दिया और उनका सिर धड़ से अलग कर दिया गया। इससे पहले बाबा बंदा सिंह बहादुर (वास्तविक नाम लक्ष्मणदेव), जिन्होंने मराठाओं-राजपूतों की भांति मुगलों के अजेय होने के भ्रम को तोड़ा था और वजीर खान को मारकर साहिबजादों की निर्मम हत्या का बदला लिया था- उन्हें 9 जून 1716 को इस्लामियों द्वारा प्रचंड यातनाओं के साथ नृशंस मौत के घाट उतारने से पहले उनके मुंह में, उनके ही चार वर्षीय पुत्र अजय का दिल निकालकर रख दिया था। भारत ऐसे ही कई वीर-वीरांगनाओं से भरी भूमि है, जिन्होंने बाल्यकाल में देश की रक्षा हेतु निडर होकर अपने पराक्रम का लोहा मनवाया। वर्ष 1938 में सीने पर ब्रितानी गोली खाने वाले 12 वर्षीय बाजी राउत भी इस सूची में शामिल है। किंतु स्वतंत्र भारत में बच्चों को स्कूलों में आज भी मुगल शासक अकबर को ‘महान’ बताया जा रहा है, जिसने 13 वर्ष आयु में ‘गाजी’ (काफिर को मारने वाला) की पदवी पाई थी और 1567-68 के चित्तौड़गढ़ संघर्ष में हजारों गैर-सैनिक हिंदुओं के संहार का निर्देश दिया था।
स्वतंत्र भारत में अभी बाल दिवस 14 नवंबर को मनाया जाता है। इस दिन देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती होती है। स्वतंत्र भारत में ऐसा प्रारंभ से नहीं था। पं.नेहरू के निधन (27 मई 1964) से पहले देश में 20 नवंबर को बाल दिवस मनाया जाता था, जिसका संबंध 1954 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल दिवस मनाने की घोषणा से था। किंतु पं.नेहरू के देहांत पश्चात तत्कालीन कांग्रेस नीत भारतीय नेतृत्व ने परिवर्तन करके इसे 14 नवंबर कर दिया और तब से देश के स्कूलों में छात्र ‘चाचा नेहरू’ के जन्मदिवस को बाल दिवस के रूप में मनाने के लिए बाध्य हो गए।
पं.नेहरू का बाल्यकाल कैसा था? नेहरू का जन्म 1889 में संपन्न-समृद्ध परिवार में तब हुआ था, जब अंग्रेजों के वफादार सैयद अहमद खां मजहबी कारणों से देश में मुस्लिम अलगाववाद और दो राष्ट्र सिद्धांत का बीजारोपण कर चुके थे और पराधीन भारत गरीबी-अराजकता आदि सामाजिक कठिनाइयों से जूझ रहा था। पं.नेहरू का बचपन राजसी आनंद भवन में सभी सुख सुविधाओं के साथ बीता। विद्यालयी शिक्षा लंदन स्थित हैरो स्कूल, तो महाविद्यालयी पढ़ाई कैंब्रिज विश्वविद्यालय के ट्रिनिटी कॉलेज से पूरी की। कालांतर में अपनी योग्यता और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के बजाय गांधीजी की ‘अनुकंपा’ से स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बने। पं.नेहरू की जीवनशैली पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित रही। इस पृष्ठभूमि में बहुतेरे लोग पं.नेहरू के बतौर स्वतंत्रता सेनानी और उनके प्रधानमंत्री कार्यकाल के प्रशंसक हो सकते है। परंतु बाल्यकाल में उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं किया था, जो देश के करोड़ों बच्चों के लिए प्रेरणादायक हो सके।
इस संबंध में कांग्रेस और गांधी परिवार समर्थकों द्वारा तर्क दिया जाता है कि पं.नेहरू बच्चों को पसंद करते थे और बच्चों में उन्हें भारत का भविष्य दिखता था, इसलिए 14 नवंबर को बाल दिवस मनाना उचित है। यदि ऐसा है, क्या देश के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जोकि बोर्ड परीक्षाओं के समय संवाद करके छात्रों का मनोबल बढ़ाते है और बच्चों से उन्हें खासा लगाव भी है- तो क्या इस आधार पर भविष्य में प्रधानमंत्री मोदी के जन्मदिवस 17 सितंबर को बाल दिवस के रूप में मनाना उचित होगा? अनुमान लगाना कठिन नहीं कि यदि ऐसा हो गया, तो विरोधियों की क्या प्रतिक्रिया होगी।
सच तो यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में अयोध्या स्थित भव्य राममंदिर के पुनर्निर्माण कार्य प्रारंभ होना, धारा 370-35ए का संवैधानिक क्षरण करके कश्मीर को उसकी मूल पहचान की ओर लौटाने (कश्मीरी पंडितों को पुन: बसाने के प्रयास सहित) की प्रक्रिया शुरू होना, लगभग 350 वर्षों से जकड़ी काशी को औरंगजेब की मानसिकता से मुक्त कराना और अब 26 दिसबंर को साहिबजादों के बलिदान दिवस को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा- ऐतिहासिक भूलों में सुधार की दिशा एक और ठोस कदम है।
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