यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्ता के लिए पूर्व में असदुद्दीन ओवैसी (2012 तक), असम में मौलाना बदरुद्दीन अजमल और हाल ही में पश्चिम बंगाल में पीरज़ादा अब्बास सिद्दीकी जैसे कट्टर सांप्रदायिक-इस्लामिक सोच वाले दलों से हाथ मिलाने को लेकर जब कांग्रेस-नेतृत्व पार्टी के भीतर-बाहर सवालों एवं आलोचनाओं से घिरने लगा, तब वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर उल्टे-सीधे, अनर्गल वक्तव्य देकर देशवासियों को भटकाने एवं भ्रमित करने की (कु) चेष्टा कर रहा है। अच्छा तो यह होता कि संघ को लेकर पूर्वाग्रह-दुराग्रह रखने वाले सभी दलों एवं नेताओं को उदार मन से आकलित करना चाहिए था कि क्या कारण हैं कि तीन-तीन प्रतिबंधों और विरोधियों के तमाम अनर्गल आरोपों को झेलकर भी संघ विचार-परिवार विशाल वटवृक्ष की भाँति संपूर्ण भारतवर्ष में फैलता गया, उसकी जड़ें और मज़बूत एवं गहरी होती चली गईं, वहीं लगभग छह दशकों तक सत्ता पर काबिज़ रहने, तमाम अंतर्बाह्य आर्थिक-संस्थानिक-व्यवस्थागत सहयोगी-अनुकूल तंत्र विकसित करने के बावजूद क्यों काँग्रेस और उसके सभी वैचारिक साझेदारों-सहयोगियों का प्रभाव निरंतर घटता-सिकुड़ता चला गया? उसे बौद्धिक-वैचारिक पोषण देने वाला वामपंथ तो आज केवल एक राज्य में सिमटकर रह गया है।
संघ के इस विस्तार एवं व्याप्ति के पीछे भारत एवं भारतीयता को पोषित करने वाले उसके राष्ट्रीय, समाजोन्मुखी, युगानुकूल विचार, तपोव्रती प्रचारकों एवं लक्षावधि स्वयंसेवकों का ध्येयनिष्ठ-निःस्वार्थ-अनुशासित जीवन, अभिनव दैनिक शाखा-पद्धत्ति और व्यक्ति निर्माण की अनूठी कार्ययोजना कारणरूप में उपस्थित रही है। प्रश्न यह भी कि क्या साधना के बिना सिद्धि, साहस-संघर्ष के बिना संकल्प और प्रत्यक्ष आचरण के बिना प्रभाव की प्रप्ति संभव है? कदापि नहीं। संघ ने सेवा-साधना-संघर्ष-साहस-संकल्प के बल पर यह भरोसा और सम्मान अर्जित किया है। उसके बढ़ते प्रभाव से कुढ़ने-चिढ़ने की बजाय कांग्रेस-नेतृत्व एवं संघ के तमाम विरोधियों को ईमानदार आत्ममूल्यांकन करना चाहिए कि क्यों सर्वसाधारण समाज आज संघ पर अटूट विश्वास करता है और उन पर कदाचित किंचित मात्र या वह भी नहीं? क्यों वह संघ-विरोधियों के आरोपों को गंभीरता से नहीं लेता? कथनी और करनी के अंतर एवं दोहरे मापदंडों को समाज कभी सहन और स्वीकार नहीं करता। संघ की रीति-नीति-कार्य पद्धत्ति में उसे यह भेद या दुहरापन नहीं दिखता। उसे संघ में भारत के मूलभूत सोच-संस्कारों-सरोकारों का प्रतिबिंब दिखाई पड़ता है।
प्रायः संघ के विरोधी यह कहकर उस पर हमला करते हैं कि स्वतंत्रता-आंदोलन में उसकी क्या और कैसी भूमिका थी? उल्लेखनीय है कि मातृभूमि के लिए किए जा रहे कार्यों का श्रेय न लेना संघ के प्रमुख संस्कारों में से एक है। स्वाभाविक है कि स्वतंत्रता-पूर्व के दिनों में कांग्रेस की तमाम गतिविधियों में उसके प्रमुख पदाधिकारी और स्वयंसेवक हिस्सा लेते रहे, मातृभूमि पर सर्वस्व न्योछावर करने वाले क्रांतिकारियों से भी उनकी निकटता रही, भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका रही, बावजूद इसके संघ के स्वयंसेवकों एवं कार्यकर्त्ताओं ने कभी इनका श्रेय नहीं लिया। देश का विभाजन न हो, इसके लिए संघ प्राणार्पण से प्रयासरत रहा। पर जब विभाजन और उससे उपजी भयावह त्रासदी के कारण लाखों लोगों को अपनी जड़-ज़मीन-ज़ायदाद-जन्मस्थली को छोड़कर विस्थापन को विवश होना पड़ा, जब एक ओर सामूहिक नरसंहार जैसी सांप्रदायिक हिंसा की भयावह-अमानुषिक घटनाएँ तो दूसरी ओर सब कुछ लुटा शरणार्थी शिविरों में जीवन बिताने की नारकीय यातनाएँ ही जीवन की असहनीय-अकल्पनीय-कटु वास्तविकता बनकर महान मानवीय मूल्यों एवं विश्वासों की चूलें हिलाने लगीं, ऐसे घोर अंधेरे कालखंड और प्रतिकूलतम परिस्थितियों के मध्य संघ ने अकारण शरणार्थी बना दिए गए उन लाखों हिंदू विस्थापितों-शरणार्थियों की जान-माल की रक्षा के लिए अभूतपूर्व-ऐतिहासिक कार्य किया। महाराजा हरिसिंह को समझा-बुझाकर जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय करवाने में संघ का निर्णायक योगदान रहा और जब पाकिस्तानी सेना ने कबायलियों के वेश में जम्मू-कश्मीर पर हमला किया तब स्वयंसेवकों ने राष्ट्र के जागरूक प्रहरी की भूमिका निभाते हुए भारतीय सेना की यथासंभव सहायता की। उसके स्वयंसेवकों ने राष्ट्र-रक्षा में सजग-सन्नद्ध प्रहरी की इस भूमिका का निर्वाह 1962 और 1965 के युद्ध में भी किया। उल्लेखनीय है कि युद्ध में लड़ने वाले सैनिकों का अपना महत्त्व तो होता ही होता है, पर उसका मनोबल बढ़ाने वालों, उसकी जय बोलनेवालों का भी कोई कम महत्त्व नहीं होता। आपातकाल की क़ैद से लोकतंत्र को मुक्त कराने के लिए भी सबसे अधिक संघर्ष-त्याग स्वयंसेवकों ने ही किए। सर्वाधिक संख्या में जेल की यातनाएँ भी स्वयंसेवकों ने ही भोगीं। गाँधी जी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद, आपातकाल के दौरान तथा विवादित गुंबद के विध्वंस के पश्चात संघ को अकारण प्रतिबंधित किया गया, सत्ता की हनक और धमक के बल पर उसे दबाने की सायास चेष्टा की गई, नक्सली-कट्टरपंथी-हिंसक वामपंथी प्रवृत्तियों का वह सर्वाधिक ग्रास बना, पर उसके स्वयंसेवक-कार्यकर्त्ता-पदाधिकारी न डरे, न झुके, न विचलित हुए, न ही कोई समझौता किया। संघर्षों की इन अगन-भट्ठियों में तपने के पश्चात संघ कुंदन की तरह और निखरा-दमका तथा चहुँ ओर उसकी कीर्त्ति-रश्मियाँ फैलती चली गईं।
अपने उद्भव काल से लेकर आज तक संघ ने तमाम प्रताड़नाएँ झेलकर भी राजनीतिक नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन की भूमिका ही स्वीकारी। क्योंकि यह सत्य है कि व्यापक मानवीय संस्कृति का एक प्रमुख आयाम होते हुए भी राजनीति प्रायः तोड़ती है, संस्कृति जोड़ती है, राजनीति की सीमाएँ हैं, संस्कृति की अपार-अनंत संभावनाएँ हैं। संघ समाज में एक संगठन नहीं, अपितु समस्त समाज का संगठन है। देश-धर्म-संस्कृति की रक्षा हेतु प्रतिरोधी स्वर को बुलंद करने के बावजूद संघ का मूल चरित्र और स्वर सकारात्मक एवं रचनात्मक है। वह अपने मूल गुण-धर्म-प्रकृति में प्रतिक्रियावादी नहीं, सृजनात्मक है। सेवा, साधना, सृजन, त्याग, तपस्या ही उसकी स्वाभाविक गति है। यह अकारण नहीं है कि राष्ट्र के सम्मुख चाहे कोई संकट उपस्थित हुआ हो या कोई आपदा-विपदा आई हो, संघ के स्वयंसेवक स्वयंप्रेरणा से सेवा-सहयोग हेतु प्रस्तुत एवं तत्पर रहते हैं। प्राणों की परवाह किए बिना कोविड-काल में किए गए सेवा-कार्य उसके ताज़ा उदाहरण हैं। संघ के स्वयंसेवकों ने यदि सदैव एक सजग-सन्नद्ध-सचेष्ट प्रहरी की भूमिका निभाई है तो उसके पीछे राष्ट्र को एक जीवंत भावसत्ता मानकर उसके साथ तदनुरूप एकाकार होने का दिव्य भाव ही उनमें जागृत-आप्लावित रहा है। यह कम बड़ी बात नहीं है कि एक ऐसे दौर में जबकि चारों ओर बटोरने-समेटने-लेने की प्रवृत्ति प्रबल-प्रधान हो, संघ के स्वयंसेवक देने के भाव से प्रेरित-संचालित-अनुप्राणित हो राष्ट्रीय-सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों में योगदान देकर जीवन की धन्यता-सार्थकता की अनुभूति करते हैं।
संघ का पूरा दर्शन ही ‘मैं नहीं तू ही’, ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’, ‘याची देही याची डोला’ के भाव पर अवलंबित है। संघ समाज के विभिन्न वर्गों-खाँचों-पंथों-क्षेत्रों-जातियों को बाँटने में नहीं, जोड़ने में विश्वास रखता है। वह बिना किसी नारे, मुहावरे, तुष्टिकरण और आंदोलन के अपने स्वयंसेवकों के मध्य एकत्व एवं राष्ट्रीय भाव विकसित करने में सफल रहा है। गाँधीजी और बाबा साहेब आंबेडकर तक ने यों ही नहीं स्वयंसेवकों के मध्य स्थापित भेदभाव मुक्त व्यवहार की सार्वजनिक सराहना की थी। संघ संघर्ष नहीं, सहयोग और समन्वय को परम सत्य मानकर कार्य करता है। उसकी यह सहयोग-भावना व्यष्टि से परमेष्टि तथा राष्ट्र से संपूर्ण चराचर विश्व और मानवता तक फैली हुई है। छोटी-छोटी अस्मिताओं को उभारकर अपना स्वार्थ साधने की कला में सिद्धहस्त लोग, दल और विचारधाराएँ संघ द्वारा प्रस्तुत व्यापक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता को न समझ सकते, न उसका अनुसरण ही कर सकते। वैसे भी बाहर, दूर या किनारे बैठकर संघ को नहीं समझा जा सकता, उसके लिए गहरे उतरना होगा, उसके लिए राजनीति के दलदल से मुक्त होकर शुद्ध-उदार- सहज-सनातन सांस्कृतिक धारा का हिस्सा बनना पड़ेगा, उसके लिए सस्ती एवं सतही राजनीति का परित्याग कर सेवा-तप-त्याग-संघर्ष का दुरूह एवं दुर्गम संघ-पथ अपनाना और विरोध एवं कुप्रचार का सरल एवं सुगम पथ छोड़ना पड़ेगा। स्वाभाविक है कि उन्हें सुर्खियाँ दिलाने एवं संवेग पैदा करने वाला मार्ग अधिक सरल जान पड़ता है। संघ जिस हिंदुत्व और राष्ट्रीयता की पैरवी करता है, उसमें संकीर्णता नहीं, उदारता है। उसमें विश्व-बंधुत्व की भावना समाहित है। उसमें यह भाव समाविष्ट है कि पुरखे बदलने से संस्कृति नहीं बदलती।
प्रणय कुमार
9588225950
DISCLAIMER: The author is solely responsible for the views expressed in this article. The author carries the responsibility for citing and/or licensing of images utilized within the text.