छत्रपति संभाजी महाराज एक ऐसे महावीर, महानायक थे जिन्होंने प्राणों का त्याग कर दिया लेकिन अपना धर्म नहीं छोड़ा. छत्रपति शिवाजी महाराज जी के पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज जी के वीर गाथा और उनके बलिदान के बारे में जब आप सुनेंगे तो यकीनन आपके भी रोंगटे खड़े हो जाएंगे. वैसे साहस और वीरता का वरदान संभाजी को अपने पिता शिवाजी महाराज से विरासत में ही मिला था . संभाजी महाराज का जीवन और उनकी वीरता ऐसी थी कि उनका नाम लेते ही औरंगजेब के साथ पूरी मुगल सेना कांप उठती थी। इतिहास के पन्नों को पलटे तो मालूम होता है कि संभाजी के घोड़े की टाप सुनते ही मुगल सैनिकों के हाथों से अस्त्र-शस्त्र छूटकर गिरने लगते थे। औरंगजेब खुद दिल्ली छोड़ उनके पीछे पीछे भागता रहा। लेकिन उसे संभाजी से हमेशा मुंह की खानी पड़ी.

साभार-सोशल मीडिया

मुगल अक्रांता औरंगजेब को 27 सालों तक उत्तर हिंदुस्तान से दूर रखनेवाले संभाजी महाराज के द्वारा किये गए कामों के लिए हिंदु समाज को उनका कृतज्ञ होना चाहिए । उन्होंने औरंगजेब की आठ लाख सेना का पूरे साहस और निडरता से सामना किया. औरंगज़ेब दक्षिण भारत को जीतने के लिए अपने 3 लाख सैनिकों की भारी सेना लेकर बुरहानपुर में डेरा डाल कर बैठा हुआ था। उस समय मराठा शासक हुआ करते थे छत्रपति संभाजी महाराज, जिन्होंने काफ़ी मुश्किल से गद्दी पाई थी। अपने ही लोगों ने गद्दारी कर उन्हें मारना चाहा था और उनके छोटे भाई जिनकी उम्र 10 साल थी राजाराम को छत्रपति बना दिया था। बावजूद इसके संभाजी महाराज ने गद्दी संभाली.

औरंगज़ेब की क्रूरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि खुद उसका सबसे छोटा बेटा मुहम्मद अकबर उसके आतंक से भागा फिर रहा था। उसी दौरान उसने संभाजी के दरबार में शरण ली । इधर बौखलाए औरंगज़ेब ने जब दक्कन का अभियान शुरू किया तो उसे बीजापुर और गोलकोण्डा को जीतने में 3 साल लग गए। उसके बाद उसकी नज़र मराठा साम्राज्य की तरफ़ पड़ी, जिसकी नींव छत्रपति शिवाजी महाराज ने रखी थी .

1687 ख़त्म होते-होते मराठा और मुग़लों के युद्ध के घाव दिखने लगे थे। संभाजी चारों तरफ से मुगलों से घिरे हुए थे और उनकी हर गतिविधि की सूचना उनके गद्दारों के जरिये औरंगज़ेब तक पहुंच जाती थी. जिसका नतीजा ये हुआ कि 1 फरवरी, 1689 को संघमेश्वर पर अचानक से मुग़ल लड़ाका मुक़र्रब ख़ान ने धावा बोला और संभाजी को बंदी बना लिया। संभाजी और कवि कलश को जोकरों की वेशभूषा में ऊंट पर बिठा कर मुग़ल कैम्प में घुमाया गया। इस दौरान उनके साथ ऐसे-ऐसे अपमानजनक बर्ताव किये गए जिसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता.

औरंगज़ेब ने संभाजी के सामने कई मांगें रखीं जिसके बदले संभाजी की जान बख्शने की बात कही. संभाजी से उनका सारे किलों को मुगलों को देने को कहा गया। उनसे कहा गया कि वे उन सभी मुगलों के नाम बताएं, जो मराठा से मिले हुए हैं। साथ ही वे मराठा के छिपे हुए खजाने का पता बताएं. और आखिर में संभाजी महाराज को हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम कबूल करने के लिए भी मजबूर किया गया। छत्रपति शिवाजी महाराज की तरह ही अपने बुलंद हौंसले से संभाजी ने ये सब मानने से इनकार कर दिया।

औरंगज़ेब ने आदेश दिया कि संभाजी को प्रताड़ित कर के मार डाला जाए। सबसे पहले संभाजी महाराज और कवि कलश की जीभ काट दी गईं। उन्हें रात भर तड़पने के लिए छोड़ दिया गया। अगले दिन उनकी आंखें फोड़ डाली गईं. इस बीच भी हर दिन हर क्षण उनसे कहा जाता रहा कि अगर उन्होंने इस्लाम अपना लिया तो उनकी जान बच जाएगी, लेकिन इस मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना के बावजूद संभाजी मुगलों के सामने नहीं झुके. इसके बाद उनके सभी अंगों को एक-एक कर काटा जाने लगा। संभाजी से बार-बार कहा गया कि वे पैगम्बर मुहम्मद के द्वारा दिखाए गए रास्तों को अपनाएं और इस्लाम कबूल कर लें लेकिन संभाजी तो पर्वत की तरह अडिग थे जिन्हे कोई हिला नहीं सकता था. उन्हें लगातार तीन सप्ताह तक इसी तरह से तड़पाया गया। तीन सप्ताह तक ऐसे ही दर्द और पीड़ा देने के बाद संभाजी का गला काट दिया गया। उन्हें मार डाला गया। उनके मृत शरीर को कुत्तों के सामने फेंक दिया गया। 11 मार्च 1689 का वो मनहूस दिन था, जब उनकी मृत्यु हुई। उनके सिर को लेकर दक्षिण के कई प्रमुख शहरों में घुमाया गया। ये सब औरंगज़ेब ने हिंदुओं में अपना डर कायम रखने के लिए किया था। संभाजी की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी और बेटे साहूजी को औरंगज़ेब ने क़ैद कर लिया।

देखा जाए तो संभाजी महाराज के जाने से मराठा साम्राज्य बिखरा नहीं उल्टा और बड़ा हुआ।लगभग पूरा भारत जीतने वाले स्वदेशी मराठा साम्राज्य ने अफ़ग़ानिस्तान तक अपनी सीमाओं को बढ़ाया।धर्म के लिए अपने प्राणों को न्योछावर करनेवाला ये राजा इतिहास में अमर हो गये. संभाजी महाराज जी ने अपने प्राणों का बलिदान कर हिन्दू धर्म की रक्षा की और अपने साहस व धैर्य का परिचय दिया। ऐसे धर्म के लिए बलिदानी होने वाले छत्रपति संभाजी महाराज को नमन।

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