इस वैश्विक महामारी के समय वह पुरानी कहावत ध्यान में आती है–‘स्वास्थ्य ही सबसे बड़ी संपत्ति है’। ‘स्वास्थ्य’ की अवधारणा को कई सदियों पहले ही प्रतिपादित किया जा चुका है।’स्वास्थ्य’ को परिभाषित करते हुए सुश्रुत संहिता में लिखा गया है –”सम दोष सम अग्निश्च सम धातु मल क्रिय । प्रसन्न आत्मेन्द्रिय मनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते॥”इस परिभाषा के अनुसार, एक व्यक्ति ‘स्वास्थ्य’ की स्थिति में है यदि उसके शरीर केतीनों दोष,पाचन अग्नि एवं सातों धातु सम स्थिति में हो,मलत्याग की प्रक्रिया ठीक से काम कर रही हो तथा उसके अत्मा, इंद्रियाँ और मन प्रसन्न अवस्था में हो। चारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति के लिए स्वास्थ्य अनिवार्य है।
‘स्वास्थ्य’शब्द का पर्यायवाची शब्द अंग्रेजी भाषा में नहीं है। पाश्चात्य जगत के अधिकांश अनुभव भौतिक दुनिया तक सीमित हैं; अतः उनकी शब्दावली में भारत के ऋषियों द्वारा तपस्या से प्राप्त भौतिक जगत के परिधि के बाहर के अनुभूतियों के आधार पर दिए गए अवधारणाओं के लिए शब्द नहीं है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण विषय है कि जिस काल में समस्त भारत अंग्रेजों के विरुद्ध युद्धरत था उस काल में कई ऐसे भारतीय अवधारणाओं (धर्म, राष्ट्र इत्यादि) कोआंग्ल भाषा के सीमित परिधि में बांधने का सफल प्रयास हुआ। इन आंग्ल शब्दों के आधार पर बनी नीतियों के दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। इसी प्रकार, आंग्ल शब्द ‘हैल्थ’,’स्वास्थ्य’ का पर्यायवाची नहीं अपितु एक बहुत ही संकीर्ण अवधारणा है। १९४८में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू॰एच॰ओ॰) ने ‘हैल्थ’ को इन शब्दों में परिभाषित किया – ‘हैल्थ पूर्ण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक कल्याण की अवस्था हैं और केवल रोग की अनुपस्थिति अथवा दुर्बलता नहीं हैं’।
ध्यान देने वाली बात यह है कि इस महामारी के प्रारम्भिक दिनों से ही समस्त विश्व इस तथ्य को पुनः स्वीकार रही है की भारत की परंपराओं में विज्ञान अंतर्निहित है। भोग आधारित पाश्चात्य जीवन के खोखलापन भी स्थापित हो गई है। इसके स्पष्ट संकेत हैं कि महामारी से त्राहि-त्राहि कर रहे सभी देशों के लोग ‘स्वास्थ्य’ की प्राप्ति के लिए भारतीय जीवन शैली को अपनाएँगे और भारत पुनः‘विश्वगुरु’के स्थान पर आसीन होगा। आज जब समस्त विश्व भारत के ऋषि परंपरा के पथ पर चलने के लिए व्याकुल है, तब यह उचित होगा कि हम भी पाश्चात्य विचारों का अंधानुकरण बंद करें और कठोर तपस्या के माध्यम से ऋषियों द्वारा अर्जित ज्ञान की ओर अग्रेसित हो।
परम पूज्य डॉ॰ केशव बलिराम हेडगेवार जी आधुनिक भारत के ऋषि हैं। उन्होने वर्तमान काल की आवश्यकताओं के अनुरूप भारत के प्राचीन ज्ञान को अनुकूलित किया और हमें ‘शाखा’ पद्धति से अवगत कराया।स्वयंसेवकों केद्वारा एक निश्चित स्थान और समय पर प्रतिदिन एक निश्चित अवधि के लिए किए जाने वाले पूर्वनिर्धारित गतिविधियों के अभ्यास को शाखा कहा जा सकता है। शाखा के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने स्थापना काल से ही ‘व्यक्ति निर्माण’ के कार्य में निरंतर प्रयासरत हैं। शाखा से ‘व्यकित निर्माण’ तथा ‘व्यक्ति निर्माण’ से ‘परम् वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रम्’ की प्राप्ति संघ का एकमात्र लक्ष्य हैं।शाखा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का शरीर और आत्मा दोनों है। यह एक साधना है और इस साधना से प्रत्येक स्वयंसेवक इहलोक और परलोक दोनों में यश की प्राप्ति कर सकते हैं। ‘स्वास्थ्य’तो शाखा से प्राप्त होने वाली एक अत्यंत छोटा लाभ हैं।
शाखा का वर्गीकरण स्वयंसेवकों के आयु के आधार पर भी किया जा सकता है। इसके अनुसार यह बाल, तरुण (विद्यार्थी एवं व्यवसायी) तथा प्रौढ हो सकते हैं। प्रत्येक शाखा का मुख्यशिक्षक एक निश्चित समय पर प्रतिदिन सिटी से एकत्रित होने के लिए संकेत करता है। यह एक स्वयंसेवक को एक निश्चित दिनचर्या का पालन करने में सक्षम बनाता है। वर्तमान समय में प्रत्येक आयु वर्ग के लोगों में रोग का एक प्रमुख कारण है उनके दैनिक जीवन में नियम पालन का अभाव।नगर में रहने वाले अधिकांश लोगों के कार्य करने, भोजन करने तथा निद्रा का कोई निश्चित समय नहीं रह गया हैं। चल दूरभास यंत्र एवं इंटरनेट के आगमन पश्चात अभी ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों की दिनचर्या भी अस्त व्यस्त हो रही हैं। नित्या शाखा जाने से एक स्वयंसेवक का जीवन नियमित हो जाता है और स्वतः एक दिनचर्या बन जाती हैं। निर्धारित समय पर शाखा पहुँचने के लिए समय पर विश्राम करना और इसके लिए अपने कार्यों को समय पर संपादित करना आवश्यक हो जाता हैं। शाखा केन्द्रित दिनचर्या के पालन से शारीरिक और मानसिक दोनों पक्षों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त स्वयंसेवक समय का अपव्यय करना बंद कर देता हैं जिससे वह अपने पठन-पाठन अथवा व्यवसाय कार्य में अधिक एकाग्रता से जुट जाता हैं। अतः शाखा इस बात का सूचक है कि हम अपने जीवन को किस पथ पर ले जा रहे हैं – स्वास्थ्य के पथ पर अथवा रोग के।
शाखा में स्वयंसेवकों के व्यक्ति निर्माणहेतु किए जाने वाले गतिविधियां उनमें अनुशासन एवं संगठन शक्ति का विकास करती है। इनसे शारीरिक एवं बौद्धिक विकास के साथ-साथ,नेतृत्व कौशल, संगठनात्मक कौशल तथा संचार कौशल का विकास होता हैं। स्वयंसेवक के हृदय में सेवा भाव एवं राष्ट्र के प्रति समर्पण और सर्वस्वत्याग की भावना जागृत होती हैं । आइये अब देखते हैं कि इन गतिविधियों का स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ता हैं।स्वस्थ जीवन के निर्वाह के लिए एक अनुशासित जीवन अत्यंत आवश्यक है। हमारे जीवन के सभी पक्षों में अनुशासन होना चाहिए। शाखा से स्वयंसेवक के अंदर इस गुण का विकास होता है। शाखा में खेल सहित विभिन्न शारीरिक गतिविधियों के लिए एक निश्चित समय आवंटित किया गया है। शाखा में कराये जाने वाले शारीरिक विषयों का चयन स्वयंसेवकों के आयु के आघार पर तय किया गया हैं। प्रौढ शाखाओं को छोड़करअन्य शाखाओं में सूर्य नमस्कार एक अनिवार्य विषय है। यह एक संपूर्ण व्यायाम है और इसका अभ्यास अत्यंत लाभदायक है। प्रौढ शाखाओं में सरल प्राणायाम का अभ्यास यह सुनिश्चित करता है कि इन शाखाओं में आने वाले स्वयंसेवक स्वस्थ और रोगमुक्त रहे।
जिन लोगों को शाखा के गतिविधियों में सम्मेलित होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ हैं और संघ के उद्देश्य से अनभिज्ञ हैं, ऐसे लोगों के मन में स्वयंसेवकों द्वारा किए जाने वाले दंड अभ्यास के बारे में प्रश्न उत्पन्न होते हैं। विभिन्न स्थितियों में दंड को उचित पद्धति से पकड़ने के सरल अभ्यास के माध्यम से ही स्वयंसेवक के अपने मानसिक अनुशासन का विकास होता हैं। वर्तमान समय में अनुचित जीवन शैली के कारण अनेक लोग जोड़ों में पीड़ा के कारण कष्ट भोग रहे हैं। शाखा में दंड प्रहार भी एक अनिवार्य विषय हैं और इससे शरीर के जोड़ों में वृद्धावस्था में भी लचीलापन बना रहता हैं। संचलन, आसान, व्यायाम योग तथा खेल इत्यादि गतिविधियों से स्वयंसेवक शारीरिक रूप से स्वस्थ रेहता हैं। मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसे रोगों से आजकल युवा वर्ग भी पीड़ित हो रहा हैं, परंतु शाखा में शारीरिक अभ्यास के द्वारा वे इन रोगों से दूर रह सकते हैं। इनसे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता हैं और इसका महत्व वर्तमान परिपेक्ष में सभी समझ सकते हैं।
बौद्धिक विकास के लिए शाखा में स्वयंसेवक कई गतिविधियोंका अभ्यास करते हैं। गीत, बोध कथा, समाचार समीक्षा जैसी गतिविधियों का मानसिक स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। संचित मानसिक तनाव को निकालने,मन को चिंता मुक्त करने,संस्कारों एवं नैतिक मूल्यों के विकास तथा धर्म के प्रति आस्था जागृत करने में इन गतिविधियों की महत्वपूर्ण भूमिका हैं। बढ़ते मानसिक तनाव, नैतिक मूल्यों के ह्रास और धर्माचरण की कमी से समस्त जगत कष्ट में हैं और शाखा से इन समस्याओं का निराकरण संभव हैं। सभी स्वयंसेवकों से यह अपेक्षा की जाती हैं कि वे प्रत्येक मास एक सुभाषित, अमृत वचन और गीत कंठस्थ करें। इससेउनके स्मरण शक्ति का विकास होता हैं। इससे वृद्धावस्था से संबन्धित समस्याओं जैसे मनोभ्रंश (डिमेंशिया) और अल्जाइमर रोग को दूर रखा जा सकता हैं। शाखा में विभिन्न बौद्धिक विभाग के गतिविधियों से स्वयंसेवक में आत्मविश्वास कि भी वृद्धि होती हैं। नित्य प्रार्थना से स्वयंसेवकों का ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित रहता है। अतः शाखा में दैनिक उपस्थिति शारीरिक और मानसिक आरोग्य के लिए अत्यंत लाभदायक हैं।
मानसिक संतुलन स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक है। मन तभी प्रसन्न हो सकता है जब अपना परिवार, समुदाय और राष्ट्र में समृद्धि और स्थिरता हो। शाखा में प्राप्त प्रशिक्षण के कारण एक स्वयंसेवक परिवार और समुदाय के प्रति अपनेकर्तव्यों का निष्ठापूर्वक निर्वाहन करता हैं। शाखा के माध्यम से स्वयंसेवक अन्य स्वयंसेवकों और उन लोगों से भी संपर्क करता है जो कभी शाखा नहीं आयें है। शाखा में स्वयंसेवक प्रत्येक सप्ताह एक दिवस सेवा कार्य करते हैं। इन गतिविधियाँ से सहयोग, एकता और समरसता आदि भावनाओं का विकास होता हैं। इनसे राष्ट्र समृद्धि के पथ पर अग्रसर होता है। आध्यात्मिक एवं आर्थिक रूप से समृद्ध राष्ट्र में ही मानसिक आरोग्य कि स्थिति को प्राप्त किया जा सकता हैं। वर्तमान युग में राष्ट्र कि समृद्धि का पथ निसंदेह शाखा के माध्यम से ही प्राप्त हो सकती हैं। शाखा से प्राप्त होने वाली लाभों को देखते हुए यह सुझाव दिया जा सकता हैं कि इस युगानुकूल पद्धति को सरकारी नीतियों में सम्मिलित किया जाना चाहिए। स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों और युवकों को शाखाजाने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ताकि उनका शारीरिक विकास और चरित्र निर्माण हो सके। देश के प्रत्येक गाँव एवं नगर के प्रत्येक बस्ती शाखायुक्त होने से लोगों के चिकित्सा पर होने वाले व्यय कम हो जाएंगे, जिससे आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। कारागारों में शाखा लगनी चाहिए जिससे बंदियों में नैतिक मूल्यों का विकाश किया जा सके। मादकपदार्थों के जाल में फंसनेसे युवाओं को बचाने के लिए भी शाखा प्रभावी सिद्ध होगा। प्रोढ़आयु के पुरुषों के लिए शाखा अत्यंत लाभदायक हैं। इससे वे स्वस्थ रहेंगे और उन्हें दूसरों पर निर्भर नहीं होना पड़ेगा। चिकित्सक से दूर रहने के लिए पड़ोस की शाखा में नित्या जाना सबसे अच्छा उपाय है। तालाबंदी के समय ‘कुटुंब शाखा’ स्वयंसेवक और उनके परिवार को शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ रखने में सहायक सिद्ध हुए हैं। अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपने समाज के सभी समस्याओं का समाधान शाखा के माध्यम से संभव है।
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